राजस्थान में भाजपा की उलटी गिनती शुरू

राजस्थान में दो लोकसभा और एक विधान सभा के उप चुनाव में सत्ताधारी पार्टी को मुंह की खानी पड़ी है। इन तीनों सीटों पर भाजपा का कब्जा था। इसे मोदी की हार कहा जाये या महारानी की इस पर मंथन शुरू हो गया है। बहरहाल भाजपा में असंतोष की दबी चिंगारी एक बार फिर सुलग उठी है। कांग्रेस आज बल्ले-बल्ले की स्थिति में है। अजमेर और अलवर में कांग्रेस प्रत्याशी रघु शर्मा और करण सिंह यादव ने शुरू से ही बढ़त बना ली थी। मांडलगढ़ विधान सभा के शुरुआती रुझानों में भाजपा आगे थी मगर धीरे-धीरे कांग्रेस ने अपनी स्थिति में सुधार कर आखिर में भाजपा से यह सीट छीनने में सफ लता हासिल कर ली। इसके साथ कांग्रेस के चेहरे पर मुस्कान और भाजपा के चेहरे पर मूर्धनि छा गई। यह सब जानते हैं कि भाजपा में अंदरखाने सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।  मोदी और वसुंधरा में छत्तीस का आंकड़ा किसी से छिपा नहीं है। प्रदेश में  लोकसभा की सभी 25 सीटें जीतने के बाद भी केंद्रीय मंत्रिमंडल में काबीना मंत्री का ओहदा किसी को हासिल नहीं हुआ। भाजपा के कदावर बागी नेता घनश्याम तिवारी की नाराजगी और नई पार्टी बनाने की घोषणा भी हार के कारणों में एक है। यदि किरोड़ी ,बेनीवाल ,तिवाड़ी और करणी सेना एक हो गई तो आगामी विधान सभा चुनाव में भाजपा को लोहे के चने चबाने होंगे। उप चुनावों के प्रारंभिक नतीजों का विश्लेषण करें तो भाजपा धुर समर्थक वोट भी पार्टी से छिटक गए हैं। राजपूतों की नाराजगी से भाजपा की चूल्हें हिल गई हैं। ब्राह्मणों ने भी भाजपा का साथ नहीं दिया। ये दोनों ही वर्ग भाजपा के परम्परागत मतों की श्रेणी में आते हैं। सरकारी कर्मचारी सातवें वेतन आयोग का लाभ नहीं मिलने से शुरू से ही नाराज हैं। भाजपा के कार्यकर्त्ता भी तवज्जो नहीं  मिलने से हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नाराजगी भी किसी से छिपी नहीं है। सरकार में भ्रष्टाचार और लाल फीताशाही थमने का नाम नहीं ले रही है। ऐसा कोई कद्दावर नेता अब भाजपा में नहीं रहा है जो वसुन्धरा की आंख में आंख मिल कर बात कर सके। महारानी का अहंकार और घमंड भी सिर चढ़कर बोलने लगा है जिससे पार्टी में भारी असंतोष व्याप्त है। भाजपा का संगठनात्मक ढांचा भी चरमरा रहा है। प्रदेश अध्यक्ष के पद पर आसीन अशोक परनामी की स्थिति अपने विधानसभा क्षेत्र  के बाहर कुछ भी नहीं है। परनामी की एकमात्र स्थिति वसुंधरा शरणम् गच्छामि की है और वे कभी इससे ऊपर नहीं उठ सके। इसका खमियाजा भाजपा को उप चुनावों में उठाना पड़ा है। भैरों सिंह शेखावत के कार्यकाल के दौरान भाभड़ा ,चतुर्वेदी और रामदास सरीखे नेता किसी से दबते नहीं थे और अपनी बात खुलकर कहने की हिम्मत रखते थे मगर आज हालत  यह है कि वसुंधरा के सामने सभी हाथ जोड़े खड़े हैं और पार्टी अपनी इस दुर्दशा पर खून के आंसू बहाने पर मजबूर है।  भाजपा के उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार वसुंधरा तीनों सीटों पर हार के बाद मुख्यमंत्री के पद से अपने इस्तीफे की पेशकश कर सकती है।  भाजपा आलाकमान ने पूर्व में भी वसुंधरा को केंद्रीय काबीना में शामिल होने का न्योता दिया था जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया।