गठबंधन राजनीति में दरारें

आन्ध्र प्रदेश की तेलगु देशम पार्टी के केन्द्र सरकार और सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से विलगाव ने एक ओर जहां भारतीय जनता पार्टी की कट्टरपंथी राहों पर कैक्टस उगाये हैं, वहीं इस घटना ने विगत कुछ दशकों से देश में उपजी वायदा राजनीति की पोल भी खोली है। देश में इस प्रकार की राजनीति ने नि:संदेह परम्परागत विकास-परक राजनीति को आघात पहुंचाया है। वायदों की इस राजनीति के अनेक पक्ष हैं। बड़े राजनीतिक दल सत्ता हासिल करने के लिए एक ओर आम लोगों से ऐसे भारी-भरकम वायदे कर लेते हैं, जिन्हें पूरा करना उनके बस-बूते की बात नहीं होती। लिहाज़ा आम आदमी के सपने, आशाएं एवं आकांक्षाएं जब टूटती हैं तो उनमें असंतोष और निराशा उत्पन्न होने लगती है। इसी प्रकार कई बार गठबंधन सत्ता हासिल करने के लिए भी बड़े दल छोटे सहयोगी दलों से वायदे कर लेते हैं, परन्तु सत्ता हासिल हो जाने के बाद जब ये वायदे पूरे नहीं हो पाते तो संगठन की राजनीति में दरारें उपजना बहुत स्वाभाविक हो जाता है। ऐसा ही कुछ वर्तमान में हुआ है, जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानि राजग के एक सहयोगी घटक तेलगु देशम पार्टी (तेदेपा) ने अपनी आशाओं पर तुषारापात होने के कारण, राजग से अलग होने की घोषणा कर दी। यहां तक कि तेदेपा ने केन्द्र सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस भी दाखिल कर दिया है। तेलगु देशम पार्टी आन्ध्र प्रदेश का बड़ा एवं सत्तारूढ़ प्रादेशिक राजनीतिक संगठन है। केन्द्र में सत्तारूढ़ होने और राजग से सहयोग करने से पूर्व तेदेपा के नेता और मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू ने प्रदेश की संकटपूर्ण स्थितियों के दृष्टिगत विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग केन्द्र से की थी। परन्तु नि:संदेह केन्द्र के लिए एकाधिक राज्यों को यह दर्जा देते जाना कदापि संभव नहीं हो पाता। इस समय देश के कुल 29 राज्यों में से 11 को विशेष दर्जा हासिल है, जिनमें अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, सिक्किम, त्रिपुरा, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश शामिल हैं। अभी हाल में पंजाब में भी विशेष दर्जा दिये जाने की मांग उठने लगी है। पांच अन्य राज्य भी पहले ही ऐसी मांग कर रहे हैं, जिनमें आन्ध्र प्रदेश भी शामिल है। बिहार में पिछले एक-डेढ़ दशक में उन्नति एवं विकास के दावों के बावजूद वहां की सरकार ने केन्द्र से प्रदेश को पुन: विशेष दर्जा दिये जाने की मांग कर दी है। जनता दल (यू.) द्वारा तेदेपा की इस मांग के समर्थन के पीछे यही राजनीति कार्य कर रही प्रतीत होती है।
विशेष राज्य का दर्जा दिया जाना कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है। यह तो केन्द्र सरकार के स्व-विवेक पर आधारित एक अधिकार है। सम्भवत: इसीलिए केन्द्र में सत्तारूढ़ दल ने पिछले कुछ समय में राजनीतिक मसलहतों के दृष्टिगत इस अधिकार को बांटा है। तेदेपा की ओर से आन्ध्र प्रदेश को विशेष दर्जा दिलाये जाने हेतु सम्पूर्ण कवायद राजनीतिक हितों पर आधारित ही थी। बिहार की मांग के पीछे भी सम्भवत: यही कारण रहा है। किसी राज्य को विशेष दर्जा पहली बार 1969 में दिया गया था। तेदेपा के राजग से अलग हो जाने से बेशक केन्द्र की सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, परन्तु इससे गठबंधन की राजनीति के पीछे वाली मूल भावना और जन-हित की सोच अवश्य प्रभावित होती है, और एक नई दरार पैदा होने लगती है। केन्द्र की भाजपा नीत गठबंधन सरकार के विभिन्न घटक दलों एवं उनके क्षत्रपों द्वारा समय-समय पर दिए गये बयान इन दरारों के बढ़ने का ही संकेत देते हैं। पंजाब का क्षेत्रीय राजनीतिक दल अकाली दल भी राजग में भागीदार है, परन्तु पिछले दिनों अकाली दल के राज्यसभा सांसद नरेश गुजराल ने सरकार की कार्य-प्रणाली पर प्रश्न-चिन्ह उठाते हुए कहा था कि महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार-विमर्श न करने की नीति अपना कर सरकार अपना राज-धर्म सही तरीके से नहीं निभा रही। राजग के एक अन्य बड़े घटक दल शिव सेना ने तो राजग की सत्ता के विरुद्ध खुली ब़गावत की घोषणा कर रखी है। उसके नेता उद्धव ठाकरे ने अगला लोकसभा चुनाव राजग से अलग होकर लड़ने की भी चेतावनी दी है। यह भी एक तथ्य है कि संसद के चालू अधिवेशन के दौरान सदन के बार-बार के स्थगन के पीछे इतना विरोधी दलों का हाथ नहीं, जितना राजग के घटक दलों का रोष-प्रदर्शन आड़े आ रहा है। इससे स्पष्ट रूप से यह पता चलता है कि राजग के भीतरी घटक दलों में असंतोष, निराशा और बेचैनी बढ़ती जा रही है। यह भी पता चलता है कि राजग के सबसे बड़े दल भाजपा की कार्य-प्रणाली पर उंगलियां तो उठी हैं। हम समझते हैं कि नि:संदेह राजनीतिक परिदृश्य पर उपजती यह विश्वासहीनता कोई अच्छा चिन्ह नहीं है। देश के लोकतंत्र में क्षेत्रीय दलों का भी उतना ही महत्व है जितना कि राष्ट्रीय दलों का। यहां तक कि कई प्रदेशों में तो क्षेत्रीय दलों का मत-प्रतिशत राष्ट्रीय दलों से भी अधिक हो जाता है। अत: सरकार बनाने वाले बड़े दल के नेताओं का यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वे अन्य क्षेत्रीय दलों और क्षत्रपों की भूमिका को भी समान रूप से मान्यता दें क्योंकि अपने क्षेत्र के मतदाताओं के प्रति उनका भी उतना ही दायित्व बनता है। कई बार तो क्षेत्रीय दलों के प्रति लोगों की आशाएं अधिक वाबस्ता हो जाती हैं, क्योंकि उनके नेता स्थानीय लोगों के बीच में से उभरे होते हैं। ऐसी स्थिति में, हम समझते हैं कि अगले वर्ष होने वाले महाचुनाव के दृष्टिगत मौजूदा केन्द्र की गठबंधन सरकार और उसके बड़े घटक भाजपा का यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वह गठबंधन की मूल भावना का सम्मान करते हुए सभी घटक दलों को समुचित प्रतिनिधित्व दे, और उसी के अनुसार उनके साथ विचार-विमर्श कर सरकार का संचालन करे। इससे नि:संदेह देश की राजनीति का चेहरा साफ-स्वच्छ बनेगा।