हर शहर की समस्या पार्किंग 

पार्किंग अकेली राजधानी दिल्ली की समस्या नहीं है। मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, बंग्लुरु और हैदराबाद भी पार्किंग की इस समस्या से जूझ रहे हैं। सिर्फ  बड़े महानगरों में ही नहीं बल्कि कानपुर, बनारस, गाजियाबाद, मेरठ, लुधियाना, अमृतसर, भोपाल, इंदौर, नागपुर, पुणे जैसे शहरों में भी आज पार्किंग एक बड़ी समस्या है। आज भारतीय शहरों की बिजली, पानी के बाद अगर कोई सबसे बड़ी समस्या है तो वह पार्किंग की है। शहरों में अनियोजित विकास और निजी वाहनों के प्रति भारतीय मध्यवर्ग में मौजूद जबरदस्त मोह के कारण देश के शहरों में पार्किंग की समस्या दिन पर दिन गहराती जा रही है। देश की राजधानी में लाखों की संख्या में वाहन हैं। इतने वाहन आधे यूरोप में नहीं हैं और इससे भी बड़ी समस्या यह है कि राजधानी दिल्ली में हर दिन राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र से 3 लाख से ज्यादा वाहन आते हैं। शहर में वाहनों की इस भारी भीड़ के कारण राजधानी दिल्ली के यातायात औसतन रफ्तार औसतन 12.5 किलोमीटर प्रतिघंटा रह गयी है। इसमें भी 2.5 का इजाफा दिल्ली में मेट्रो हो जाने के बाद हुआ है। नहीं तो यह रफ्तार 10 किलोमीटर तक सीमित हो गयी थी। आज भी राजधानी के कई ऐसे इलाके हैं जहां ट्रैफिक चलते नहीं रेंगते हैं। लगभग इसी तरह का हाल कोलकाता का भी है। मुम्बई देश की राजधानी का यह भौगोलिक स्वरूप भी गोल होने की बजाय लम्बाई में है। बावजूद इसके मुम्बई में बॉम्बे बीटी से लेकर लोवर परेल तक दिन में अकसर ट्रैफिक रेंगता है। शहरों में वाहनों की इस भरमार के कारण एक तरफ  जहां शहरों का आवागमन बेहद धीमा हो गया है, वहीं दूसरी तरफ  इन वाहनों के रखने की एक बड़ी समस्या पैदा हो गयी है। हमारे महानगरों में भी 60 प्रतिशत से ज्यादा वाहन घरों के अंदर नहीं बल्कि घरों के बाहर सड़कों पर रहते हैं। खासकर कारें। इससे सिर्फ  आवागमन ही बाधित नहीं होता बल्कि इन शहरों के अंदर  पैदल चलना भी बाधित होने लगा है। सवाल है आखिर हिंदुस्तानी शहरों में दिनोंदिन पार्किंग की समस्या इस कदर भयावह क्यों होती जा रही है? इसके बहुत सीधे से कारण हैं। हमारे यहां वाहन कुछ खास शहरी इलाकों तक ही केंद्रित हैं।  जिनमें सबसे बड़ी तादाद कारों, मिनी बसों और दुपहिया वाहनों आदि की है। हमारे इन शहरों के वाहन मोह के पीछे कुछ कारण मजबूरी के चलते हैं तो कुछ पाखंड के। जहां तक मजबूरी की बात है तो हमारे सभी बड़े शहरों, महानगरों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था बेहद खस्ताहाल है। अगर मुम्बई की लोकल को छोड़ दें तो देश के किसी भी महानगर में कम से कम सुनिश्चित देने वाली सार्वजनिक व्यवस्था नहीं है। मुम्बई में भी लोकल में भीड़ का जो आलम होता है, उसमें सफर करना अपने आप में किसी सजा से कम नहीं होता। दुनिया के शायद ही किसी देश में स्थानीय रेलगाड़ियां इस कदर भेड़-बकरी की तरह  भरकर चलती हों जैसे कि मुम्बई में चलती हैं। लेकिन लोगों की मजबूरी है और कोई रास्ता नहीं है। दिल्ली और कोलकाता जैसे घनी आबादी वाले महानगरों में तो सार्वजनिक परिवहन की इससे भी खस्ताहाल व्यवस्था है। यही वजह है कि नौकरीपेशे वाला मध्यवर्ग जरा सी सुविधा होने पर अपने निजी दुपहिया वाहन या कार के लिए सोचने लगता है। अगर इन महानगरों में ही सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था दुरुस्त हो जाए तो भी वाहनों की संख्या में हो रही खतरनाक बढ़ोत्तरी में कुछ विराम लग सकता है। लेकिन शहर नियोजकों और सरकारों के पास इस संदर्भ में न तो सोचने का समय है और न ही उसमें अमल करने की कूव्वत जिसके कारण हमारे शहर दिन पर दिन रेंगने के लिए मजबूर हो रहे हैं। आजादी के बाद देश में निजी और सार्वजनिक दोनों ही तरह के वाहनों में भारी वृद्धि हुई है। 1947-50 में जहां देश में सभी तरह के वाहनों की कुल संख्या 1.20 लाख के आसपास थी वहीं आज देश में निजी और सार्वजनिक वाहनों की संख्या तकरीबन 4.50 करोड़ के आसपास पहुंच गयी है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में वाहनों की संख्या में कितनी तेजी से इजाफा हुआ है। लेकिन दुर्भाग्य से देश के 82 प्रतिशत से ज्यादा वाहन कुल 23 बड़े और मंझोले महानगरों में मौजूद हैं। इस कारण इन्हें संभालने का सारा परिवाहन ढांचा चरमरा गया है। जिस तरह पहले जमाने में कृषि समाज के दौर में हर परिवार के अपने जानवर होते थे। उसी तरह आज महानगरों में और दूसरे शहरों में औसतन 1 वाहन है।