राष्ट्र की आत्मा हैं तीर्थ

वास्तव में तीर्थों का अन्तरंग स्वरूप कल्पवृक्ष अथवा चिन्तामणि जैसे गुणों वाला होता है। अन्तर मात्र इतना है कि कल्पवृक्ष अथवा चिंतामणि, जहां नैतिक सुख-सुविधाओं से संबंधित आशा एवं अभिलाषा की पूर्ति करते हैं, वहीं तीर्थस्थल साधक की समस्त कामनाओं की पूर्ति करते हैं। तीर्थ मुक्ति भी देते हैं, युक्ति भी देते हैं और साथ ही भक्ति का अवलम्बन भी प्रदान करते हैं। वामन पुराण के अनुसार, ‘सभी आश्रमों यथा-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास के लोग तीर्थ में स्नान कर कुल की रक्षा करते हैं।’काल प्रवाह के क्रूर चंगुल में फंसकर तथा इसके चलते होने वाले सांस्कृतिक प्रदूषण से भारत के तीर्थ स्थलों की जहां एक ओर पवित्रता नष्ट होती रही है, वहीं इनकी दिव्यता एवं भव्यता में भी गिरावट आई है। इसके अतिरिक्त आधुनिकता और झूठी शान के नाम पर तीर्थों का पर्यटन केन्द्र के रूप में इस्तेमाल होने लगा है। इससे इन तीर्थ स्थलों में जाकर लोगों के मन-मस्तिष्क में जहां पहले शांति एवं अध्यात्म की तरंगें हिलोर लेने लगती थीं, वहीं अब इनकी दुर्दशा देखकर उनका मन क्लेश से भर उठता है।भारतीय संस्कृति के विकास के लिए तीर्थ स्थलों का विकास ज़रूरी है। तीर्थ के रख-रखाव के अभाव में तीर्थ लुप्त होते जा रहे हैं। सरकारें अपना लोक-कल्याणकारी कार्य सम्पादित करने में घोर उपेक्षा बरत रही हैं तो वहां सक्रिय पंडे, पुजारी भी कम दोषी नहीं हैं। वे तीर्थ को अपनी दुकान और श्रद्धालु को अपना ग्राहक समझने लगे हैं। स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति की रक्षा करने एवं भारत के लुप्त होते तीर्थों को पुन: स्थापित करने के महत्वपूर्ण कार्य के लिए सरकार पर आश्रित नहीं रहा जा सकता। हम सभी को जागना पड़ेगा, तीर्थों को प्लास्टिक के दुष्प्रभाव से बचाना भी ज़रूरी है। सरकार को उन्नत प्रौद्योगिकी का उपयोग इन तीर्थों विशेष रूप से पर्वतीय स्थानों के पर्यावरण को बचाने के लिए करना चाहिए। बढ़ती आबादी पर रोक, कंकरीट के जंगल खड़े होने से पहले उन्हें रोकना, प्रदूषण रहित यातायात के साधनों के इस्तेमाल पर सर्वाधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।