चौराहे पर खड़ा है राष्ट्र

समय का पहिया निरन्तर घूमता रहता है और इसके साथ ही चलता रहता है जीवन का सिलसिला। इस अमल के चलते हुए कई बार देशों और राष्ट्रों की ज़िंदगी में ऐसे अवसर आते हैं, जिनमें अहम फैसले लेने पड़ते हैं। यदि सही फैसले लिए जाएं तो देश और राष्ट्र तरक्की की मंज़िलों की ओर आगे बढ़ते हैं, परन्तु यदि गलत फैसले लिए जाएं तो संबंधित देशों तथा राष्ट्रों को उनकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।हम महसूस करते हैं कि भारत के लोगों के सामने भी 2019 के लोकसभा चुनाव एक ऐसा ही अवसर हैं। यदि इन चुनावों के दौरान देश के लोगों ने सही फैसला लिया तो देश में शान्ति और सद्भावना बरकरार रहेगी और देश आगे बढ़ेगा। परन्तु यदि इन चुनावों के दौरान सही फैसला न लिया जा सका तो देश को तथा देश के लोगों को बड़े खतरों का सामना करना पड़ेगा। हमारी यह सोच राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (जिसमें भारतीय जनता पार्टी एक हावी गुट है) की श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चल रही केन्द्र सरकार की पिछले चार वर्षों की कारगुजारी को देखते हुए बनी है। 2014 के लोकसभा चुनावों में श्री नरेन्द्र मोदी भाजपा के एक बड़े नेता के तौर पर उभर कर सामने आए थे। उन्होंने देश भर में 400 से अधिक चुनाव रैलियां करके लोगों के अलग-अलग वर्गों से लम्बे-चौड़े वायदे किए थे। उन्होंने देश में से भ्रष्टाचार को पूरी तरह खत्म करने, विदेशों से सारा काला धन वापिस लाकर हर परिवार के खाते में 15-15 लाख रुपए जमा करवाने, हर वर्ष युवाओं के लिए 2 करोड़ नौकरियों का प्रबंध करने, किसानों को स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार फसली लागतों पर 50 प्रतिशत मुनाफा देने तथा देश में पूंजी निवेश बढ़ाकर औद्योगिकरण की प्रक्रिया को तेज़ करने के साथ-साथ महंगाई को काबू में रखने सहित अनेक वायदे किए थे। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने पाकिस्तान तथा चीन की हमलावर नीतियों से उपयुक्त ढंग से निपटने सहित दुनिया के अन्य देशों, विशेष पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंध बनाने का भी आश्वासन दिया था। देश के लोग उस समय कांग्रेस पार्टी के दस वर्षीय प्रशासन से ऊब चुके थे। चाहे लोग प्रधानमंत्री के तौर पर डा. मनमोहन सिंह की नीतियों के ज्यादा खिलाफ नहीं थे, परन्तु उनके कार्यकाल के दौरान सामने आए कई बड़े घोटाले, जिनमें कोयला घोटाला, टैलीकॉम घोटाला तथा राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान हुआ घोटाला आदि शामिल थे, के विरुद्ध लोगों में काफी रोष पाया जा रहा था। इन स्थितियों में देश के लोगों ने, खासतौर पर युवाओं ने श्री नरेन्द्र मोदी की एक-एक बात पर विश्वास किया और 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान बड़े बहुमत से उनकी सरकार बनवाई। अब इस सरकार को सत्ता में आए चार वर्ष का समय हो गया है। इस सरकार की कारगुज़ारी की ओर पीछे मुड़ कर जब दृष्टि डालते हैं तो कुछ ठोस हुआ सामने नहीं आता। श्री नरेन्द्र मोदी की यह सरकार विदेशों से काला धन वापिस लाने के मामले में बुरी तरह नाकाम हुई है और भाजपा के अध्यक्ष श्री अमित शाह ने स्वयं माना है कि विदेशों से काला धन वापिस लाकर लोगों के खातों में 15-15 लाख जमा करवाना भाजपा का एक चुनाव जुमला ही था। जहां तक देश के राजनीतिक प्रबंध से भ्रष्टाचार को खत्म करने का संबंध है, इसमें भी मोदी सरकार को कोई ज्यादा सफलता नहीं मिली। चाहे इस सरकार के मंत्री या इस सरकार के वरिष्ठ अधिकारी स्वयं बड़े-बड़े घोटालों में न फंसे हों परन्तु इस सरकार के समय के दौरान देश के राजनीतिक और प्रशासनिक प्रबंध से भ्रष्टाचार कम हुआ नज़र नहीं आया, बल्कि इस समय के दौरान बैंकों की विश्वसनीयता बेहद कम हुई है। देश में बड़े प्रोजैक्टों के लिए वित्तीय प्रबंध करने हेतु सरकारी क्षेत्र के पांच बैंकों को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में मिला दिया गया। इससे आम लोगों को तो कोई ज्यादा फायदा नहीं हुआ परन्तु बड़े उद्योगपति तथा व्यापारी बैंकों के करोड़ों रुपए मार कर विदेशों को भागने में अवश्य सफल हो गए। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने सीना तानकर कहा था कि ‘ना खाऊंगा न ही खाने दूंगा’। लोग आज श्री नरेन्द्र मोदी के इस बयान पर व्यंग्य कसते हुए यह कहते हैं कि भ्रष्टाचार, उद्योगपति तथा कारोबारी खा भी गये और बैंकों के करोड़ों रुपए लेकर भाग भी गए। परन्तु मोदी सरकार उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकी। इस कारण पंजाब नैशनल बैंक और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को करोड़ों रुपयों का घाटा पड़ा और बैंक अपने घाटे पूरे करने के लिए अब अपनी अलग-अलग सेवाएं लोगों को देने के बदले उनके खातों से चुपचाप पैसे काटते जा रहे हैं। बड़े बैंक घाटालों का बोझ आम खाताधारकों पर डाला जा रहा है। नौजवानों ने भाजपा की सरकार लाने के लिए बहुत उत्साह से वोट डाले थे परन्तु हर वर्ष 2 करोड़ नौकरियां पैदा करने के मामले में सरकार बुरी तरह असफल हुई है, जिस कारण युवाओं में बेहद निराशा तथा असंतोष पाया जा रहा है। देश में अपना कोई भी भविष्य न देखकर बड़ी संख्या में नौजवान अब शिक्षा हासिल करने के बहाने विदेशों में जाकर अपना भविष्य तलाश करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। डा. मनमोहन सिंह की पूर्व सरकार के समय शिक्षा और स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों के निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई थी। वह प्रक्रिया इस सरकार के कार्यकाल के दौरान भी उसी तरह जारी रही। इस समय हालत यह है कि आम गरीब लोगों की पहुंच से शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं बाहर हो गई हैं। सरकारी स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की हालत पूरे देश में खराब है। निजी स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों की फीसें इतनी ज्यादा हैं कि आम लोग वहां अपने बच्चों को स्तरीय शिक्षा नहीं दिला सकते। स्वास्थ्य सुविधाएं लेने के लिए भी लोगों को 70 प्रतिशत खर्च अपनी जेब से करना पड़ता है। सरकारी अस्पतालों की हालत भी बेहद खराब है। सरकारी लोग मजबूर होकर निजी अस्पतालों से स्वास्थ्य सुविधाएं ले रहे हैं, जिस कारण लगभग 6 करोड़ लोग हर वर्ष गरीबी की रेखा में दाखिल हो जाते हैं। देश को अनाज सुरक्षा मुहैया करने वाले किसानों की हालत यह है कि हर रोज़ 45 के लगभग किसान और खेत मजदूर आत्महत्याएं कर रहे हैं। 1947 से लेकर अब तक 3 लाख से ज्यादा किसान और खेत मजदूर आत्महत्याएं कर गए हैं और लाखों किसान कृषि के धंधे को अलविदा कह गए हैं। पंजाब, जिसको कि कभी बेहद खुशहाल राज्य समझा जाता था, में भी हर रोज़ 3-4 किसान और खेत मजदूर आत्महत्याएं कर रहे हैं। किसानों को दशकों से उनकी फसलों के लाभदायक मूल्य न मिलने के कारण और कृषि के विकास के लिए सरकारों द्वारा पर्याप्त पूंजी निवेश न करने के कारण और उनकी कृषि लागतों में लगातार वृद्धि होने के कारण ही किसानों की यह दयनीय हालत बनी है। वह इस समय ऋण के जाल में फंसे हुए हैं। किसानों के तीखे हो रहे आंदोलनों को मुख्य रखते हुए कुछ राज्य सरकारों ने उनको ऋण से थोड़ी बहुत राहत देने की कोशिश की है परन्तु यह संकट इतना व्यापक है कि केन्द्र सरकार की बड़ी पहलकदमी के बिना हल नहीं हो सकता। परन्तु श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार की हर रोज़ किसानों तथा खेत मजदूरों की होती आत्महत्याएं भी आंखें नहीं खोल सकीं। केन्द्र सरकार ने लगातार यही दृष्टिकोण अपनाया हुआ है कि किसानों को ऋणों से राहत देने के लिए वह कुछ भी नहीं करेगी। इस संबंधी जो कुछ भी करना है, वह राज्य सरकारें ही करें। दूसरी तरफ हर वर्ष उद्योगपतियों को बजट में ही 5 लाख करोड़ की रियायतें दी जा रही हैं। उद्योगपतियों के डूबे ऋण भी माफ किये जा रहे हैं। देश में रोज़गार के अवसर बढ़ाने के लिए और औद्योगिकरण की प्रक्रिया को तेज़ करने के लिए मोदी सरकार ने स्किल्ड इंडिया, मेक इन इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, स्टार्टअप इंडिया जैसी अनेक योजनाओं के ऐलान बहुत जोर-शोर से किये परन्तु इन योजनाओं ने रोज़गार के अवसरों में कोई खास वृद्धि नहीं की, अपितु निरपेक्ष अर्थशास्त्री तो यह दावा करते हैं कि मोदी सरकार के समय के दौरान रोज़गार के अवसर बढ़ने की बजाय कम ही हुए हैं। नोटबंदी तथा जी.एस.टी. ने किसानों, उद्योगपतियों, व्यापारियों, खासतौर पर छोटे उद्यमियों को तबाह करके रख दिया है। इस समय महंगाई की हालत यह है कि पेट्रोल और डीज़ल के मूल्य आसमान छू रहे हैं।  पाकिस्तान की ओर से छेड़े गए छद्दम युद्ध का उपयुक्त ढंग से सामना करने में भी यह सरकार बुरी तरह नाकाम रही है। चीन ने भी आज तक भारत को अलग-अलग ढंगों से परेशान करने और चारों तरफ से घेरने की नीति बरकरार रखी हुई है। उसके प्रति कभी गर्म और कभी ठण्डा रुख अपना रही मोदी सरकार आज तक कुछ खास सफलता हासिल नहीं कर सकी। अन्य पड़ोसी देशों के साथ भी भारत के संबंधों में कोई बड़ा सुधार नहीं हुआ। हां, यह अवश्य हुआ कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपना ज्यादा समय विदेशी दौरों तथा दूसरे राष्ट्र प्रमुखों को गले लगाने में बिताया है। परन्तु इससे देश को किस-किस क्षेत्र में कितने बड़े लाभ  हुए हैं या कितना विदेशों से पूंजी निवेश हुआ है, इस संबंधी लोगों को सरकार के जवाब का इंतज़ार है। यदि आर्थिक उपलब्धियों की बात हाल के समय छोड़ भी दें, तो इस सरकार की पिछले चार वर्ष की कारगुज़ारी के दौरान जो खतरनाक रुझान सामने आए हैं, वह अधिक ध्यान की मांग करते हैं। अब यह बात सफेद दिन की तरह स्पष्ट हो चुकी है कि भारतीय जनता पार्टी और उसको पर्दे के पीछे चलाने वाला संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत के धर्म-निरपेक्ष और लोकतांत्रिक ढांचे में कोई विश्वास नहीं रखता। वह इस महान देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है और इस मकसद के लिए अल्पसंख्यकों को तरह-तरह की धमकियां देकर हाशिये पर धकेला जा रहा है। यह श्री नरेन्द्र मोदी की पहली सरकार है, जिसके समय के दौरान लोकसभा और राज्यसभा में अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व गत समय की अपेक्षा सबसे कम है। राज्यपाल, केन्द्रीय यूनिवर्सिटियों के उप-कुलपति और विदेशों में नियुक्त किए गए राजदूत तथा अन्य बड़े अकादमिक संस्थानों के प्रमुख भी ज्यादातर इस समय बहुसंख्यक भाईचारे के साथ ही संबंधित हैं। इस सरकार के चार वर्ष के कार्यकाल के दौरान अल्पसंख्यकों तथा दलितों पर तरह-तरह के बहानों से हमले किए गए हैं, जिनके कारण देश में असुरक्षा का माहौल बना हुआ है। देश में ऐसे हालात पैदा हो गए हैं कि मीडिया का बड़ा हिस्सा मोदी की धुन पर नाचने लगा है और दु:खी-सुखी होकर जन-हितों को महत्व देने वाला मीडिया डरा हुआ और दबाव में है। देश में पैदा हुई इस तरह की स्थितियां यह मांग करती हैं कि धर्म-निरपेक्षता और लोकतंत्र को अपनाई हुई राजनीतिक शक्तियां एक मंच पर एकजुट हों और संघ तथा भाजपा द्वारा पैदा की गई उपरोक्त बड़ी चुनौतियों का एकजुट होकर सामना करें। इस संबंधी कर्नाटक के घटनाक्रम ने एक रास्ता दिखाया है, परन्तु देश की अलग-अलग राजनीतिक पार्टियां कितने बेहतर ढंग से एकजुट होकर लोगों को उचित नेतृत्व देने में सक्षम होती हैं। यह आने वाला समय ही बतायेगा। इस समय इस तरह महसूस हो रहा है कि पूरा राष्ट्र एक चौराहे पर खड़ा है। इसके द्वारा सही दिशा में उठाये जाना वाला एक कदम ही इसके भविष्य का फैसला करेगा। यह स्मरण रखने वाली बात है कि हर बड़े सफर की शुरुआत एक छोटे कदम से ही होती है।