मन की साधना ही सबसे बड़ी साधना होती है : महात्मा बुद्ध 

वैशाख मास की पूर्णिमा को प्रतिवर्ष ‘बुद्ध पूर्णिमा’ के रूप में मनाया जाता है। इसे ‘बुद्ध जयंती’ भी कहते हैं। दरअसल माना गया है कि 563 ईस्वी पूर्व वैशाख मास की पूर्णिमा के ही दिन लुम्बनी वन में शाल के दो वृक्षों के बीच भगवान गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था। वैशाख मास की पूर्णिमा को ही 35 वर्ष की आयु में 528 ईस्वी पूर्व गौतम बुद्ध ने बौध गया में बोधि वृक्ष के नीचे बुद्धत्व प्राप्त किया था और वैशाख पूर्णिमा को ही 80 वर्ष की आयु में 483 ई. पू. गौतम बुद्ध ने उत्तर प्रदेश में कुशीनगर में हिरण्यवती नदी के तट पर महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था। यही कारण है कि बौद्ध धर्म में वैशाख मास की पूर्णिमा को ‘त्रिवधि पावन पर्व’ भी कहा गया है। शायद यही वजह है कि बौद्ध धर्म में बुद्ध पूर्णिमा को ही सबसे पवित्र दिन माना गया है। दरअसल बौद्ध धर्म गौतम बुद्ध की शिक्षाओं व प्रवचनों पर ही आधारित बताया जाता रहा है और माना जाता है कि गौतम बुद्ध ने ही आज से करीब अढ़ाई हज़ार वर्ष पूर्व बौद्ध धर्म की स्थापना की थी। गौतम बुद्ध का वास्तविक नाम सिद्धार्थ गौतम था। गौतम उनका गोत्र था, किन्तु कालांतर में वह सिद्धार्थ गौतम, महात्मा बुद्ध, भगवान बुद्ध, गौतम बुद्ध, तथागत आदि विभिन्न नामों से जाने गए। शाक्य वंश से संबंध होने के कारण सिद्ध को ‘शाक्यों का संत’ भी कहा गया। सिद्धार्थ के पिता राजा शुद्धोधन थे, जो कपिलवस्तु के शाक्य वंशीय राजा थे। कपिलवस्तु हिमालय की तराई में नेपाल की सीमा पर काफी विशाल गणराज्य था, जो आज नेपाल में है। राजा शुद्धोधन की दो रानियां थीं, जिनमें महामाया बड़ी और प्रजापति गौतमी छोटी थी। रानी महामाया जब गर्भवती हुईं तो उस समय के शाक्य समाज के रीति-रिवाजों के अनुसार प्रसव के लिए वह प्रजापति गौतमी के साथ अपने मायके रवाना हुईं। तथापि, रास्ते में ही उन्हें प्रसव पीड़ा शुरू हो गई और लुम्बनी वन में शाल के दो वृक्षों के बीच उन्होंने एक अति सुंदर तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। पुत्र जन्म के पश्चात् दोनों रानियां कपिलवस्तु वापस लौट आईं। इस बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया। सिद्धार्थ के जन्म के कुछ ही समय पश्चात् एक बहुत पहुंचे हुए संन्यासी ने राजा शुद्धोधन को बताया कि यह बालक या तो महान चक्रवर्ती सम्राट बनेगा, या फिर यह समस्त सांसारिक मोहमाया का परित्याग कर एक महान् संन्यासी बनेगा और विश्व का महान् उद्धारक साबित होगा। बालक के संन्यासी बनने की बात सुनकर राजा शुद्धोधन बहुत चिंतित हुए और उन्होंने सिद्धार्थ को मोहमाया और सांसारिक सुखों की ओर आकर्षित करने के लिए उनके समक्ष भोग-विलास तथा ऐश्वर्य के साधनों का ढेर लगा दिया, लेकिन सिद्धार्थ हमेशा शांत और ध्यानमग्न ही रहा करते। अत: यही सोचकर कि कहीं सिद्धार्थ का मन सांसारिक सुखों से उचाट होकर पूरी तरह से वैराग्य में ही न लग जाए, राजा शुद्धोधन ने कम उम्र में ही एक अति सुंदर, सुशील, अति तेजस्वी, सर्वगुण सम्पन्न राज कन्या यशोधरा के साथ उनका विवाह कर दिया। विवाह के पश्चात् सिद्धार्थ गौतम को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और पुत्र का नाम रखा गया राहुल। बचपन से ही राजकुमार सिद्धार्थ घंटों एकांत में बैठकर ध्यान किया करते थे, लेकिन फिर भी उन्होंने पुत्र जन्म तक सांसारिक सुखों का उपभोग किया। धीरे-धीरे उनका मन सांसारिक सुखों से उचाट होता गया और एक दिन वह मन की शांति पाने के उद्देश्य से भ्रमण के लिए अपने सारथी छेदक को साथ लेकर रथ पर सवार होकर महल से निकल पड़े। रास्ते में उनका साक्षात्कार मनुष्य के दुख की चार घटनाओं से हुआ और जब उन्होंने दुख के इन कारणों को जाना तो उन्होंने मोहमाया और ममता का परित्याग करके पूर्ण संन्यासी बनने का फैसला कर लिया। एक दिन रात्रि के समय पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को गहरी नींद में सोता छोड़कर गौतम बुद्ध ने अपने घर व परिवार का परित्याग कर दिया और सत्य तथा ज्ञान की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकते रहे। उन्होंने छह वर्षों तक जंगलों में कठिन तप व उपवास किए और सूख कर कांटा हो गए, किन्तु उन्हें ज्ञान की प्राप्ति न हो सकी।  अत: उन्होंने एक दिन संन्यास का विचार छोड़ दिया और उनके शिष्य भी एक-एक कर उनका साथ छोड़ गए। इसके बाद गौतम बुद्ध ने शारीरिक स्वास्थ्य व मानसिक शक्ति प्राप्त की। उसके बाद वह बोध गया में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर गहन चिंतन में लीन हो गए तथा मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि इस बार ज्ञान प्राप्त किए बिना वह यहां से नहीं उठेंगे। सात सप्ताह के गहन चिंतन-मनन के बाद वैशाख मास की पूर्णिमा को 528 ईस्वी पूर्व सूर्योदय से कुछ पहले उनकी बोध-दृष्टि जागृत हो गई और उन्हें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो गई। उनके चारों ओर एक अलौकिक आभा मंडल दिखाई देने लगा। उनके पांच शिष्यों ने जब वह अनुपम दृश्य देखा तो वे महात्मा बुद्ध के चरणों में गिरकर उनसे क्षमा याचना करने लगे। इन शिष्यों ने ही उन्हें पहली बार ‘तथागत’ कहकर सम्बोधित किया। ‘तथागत’ यानी सत्य के ज्ञान की पूर्ण प्राप्ति करने वाला।  पीपल के जिस वृक्ष के नीचे बैठकर सिद्धार्थ ने बुद्धत्व प्राप्त किया, वह वृक्ष ‘बोधिवृक्ष’ कहलाया और वह स्थान जहां उन्होंने यह ज्ञान प्राप्त किया, बोध गया के नाम से विख्यात हुआ तथा बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद सिद्धार्थ को ‘महात्मा बुद्ध’ कहा गया।  अपने 80 वर्षीय जीवनकाल के अंतिम 45 वर्षों में महात्मा बुद्ध ने दुनिया भर में घूम-घूमकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया और लोगों को उपदेश दिए। 483 ईसा पूर्व को वैशाख मास की पूर्णिमा को उन्होंने कुशीनगर के पास हिरण्यवती नदी के तट पर महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। उन्होंने उन्हीं साल वृक्षों के नीचे प्राण त्यागे, जिन पर मौसम न होते हुए भी फूल आए थे। महात्मा बुद्ध का अंतिम उपदेश था कि सृजित वस्तुएं अस्थायी हैं, अत: विवेकपूर्ण बनने का प्रयास करो। उनका कहना था कि मनुष्य की सबसे उच्च स्थिति वही है, जिसमें न तो बुढ़ापा है, न किसी तरह का भय, न चिंताएं, न जन्म, न मृत्यु और न ही किसी तरह के कष्ट हों। यह केवल तभी सम्भव है, जब शरीर के साथ-साथ मनुष्य का मन भी संयमित हो क्योंकि मन की साधना ही सबसे बड़ी साधना है।


  -योगेश कुमार गोयल