अरे दीवानो, हमें पहचानो.... सलीम-जावेद

फिल्म जगत में कहानी लेखक को सही जगह दिखाने में सलीम-जावेद का बड़ा ही योगदान है। इनसे पहले लेखकों को न तो फिल्मों में सही क्रैडिट दिया जाता था और न ही पर्याप्त मुआवज़ा मिलता होता था। उन्होंने उस समय अपना मुआवज़ा एक लाख प्रति फिल्म वसूल किया जब राजेश खन्ना डेढ़ लाख वसूल करते होते थे। लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने के लिए इस लेखक जोड़ी को अनेकों ही मुश्किलों से निकलना पड़ा था। इनका आपस में जोड़ीदार बनना और फिर जुदा होना, किसी पटकथा से कम रोचक नहीं है। जावेद अख्तर प्रसिद्ध उर्दू के शायर जानिसार खां अख्तर के बेटे हैं। उनका जन्म 17 जनवरी, 1945 को खैराबाद (यू.पी.) में हुआ था। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ते-पढ़ते ही उनको शायरी का शौक पैदा हुआ, क्योंकि उनका पिता बंबई में फिल्मी गीतकार भी था, इसलिए जावेद उनके पास 1964 में आ गये, लेकिन जानिसार खां का खुद का गुजारा उस समय बड़ी मुश्किल से चलता था, इसलिए जावेद का खर्च चलाना उनके लिए असंभव था। इसके परिणामस्वरूप जावेद ने अपने पिता का घर अपनी मज़र्ी से छोड़ दिया और फुटकल काम करके अपनी ज़िंदगी की गाड़ी पटरी पर लाने की कोशिश करने लगे। वह कभी साहिर लुधियानवी के घर रात बिताते और कभी किसी स्टूडियो के कोने में अपना रहने का स्थान बना लेते थे। 1964 से 1970 के मध्य जावेद ने बतौर क्लैमर ब्वॉय से लेकर सहायक निर्देशक का काम भी किया था। कुछ समय जावेद हनी ईरानी के घर भी ठहरे थे। बाद में इसी के साथ ही उन्होंने शादी की और उनके दो बच्चे (फरहान अख्तर, जोया अख्तर) भी इनसे पैदा हुए थे। लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने हनी ईरानी को तलाक देकर शबाना आज़मी से शादी कर ली थी। दूसरी ओर सलीम खान का जन्म 24 नवम्बर, 1935 को इंदौर (मध्यप्रदेश) में हुआ था। भोपाल में एक शादी के उत्सव में निर्माता-निर्देशक के.अमरनाथ की उनसे जब मुलाकात हुई तो अमरनाथ ने उनको बंबई आने के लिए कहा। बंबई में सलीम खान का फिल्मी नाम प्रिंस सलीम रखा गया और अमरनाथ ने उनको 400 रुपए मासिक वेतन देना शुरू कर दिया था। सलीम खान ने बहुत सारी (लगभग 10) फिल्मों में बतौर नायक या कई बार महत्वपूर्ण भूमिकाएं भी निभाई थीं। निर्माता बी.के. आदर्श के साथ भी उन्होंने ‘सी’ ग्रेड की एक-दो फिल्में की थीं। कभी-कभी वह ‘तीसरी मंज़िल’ (1966) जैसी बड़ी फिल्मों में भी छोटी-मोटी भूमिकाएं करते नज़र आए थे। कहने का तात्पर्य यह है कि जावेद अख्तर की तरह सलीम खान भी अपनी जीविका चलाने के लिए संघर्ष ही कर रहे थे।