प्रणब मुखर्जी का नागपुर दौरा- अपने उद्देश्य में सफल रहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ


यह बात तो समझी जा सकती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने प्रणब मुखर्जी को अपने कार्यक्रम में क्यों बुलाया होगा, पर यह आसानी से समझ में नहीं आता कि पूर्व-राष्ट्रपति ने यह निमंत्रण क्यों स्वीकार किया। मुझे तो लगता है कि वे राजनीतिक रूप से पृष्ठभूमि में जाने के लिए तैयार नहीं हैं, और इसीलिए उन्होंने यह विवादास्पद कदम उठाया। इस लिहाज़ से देखा जाए तो प्रणब मुखर्जी एक बार फिर राष्ट्रीय मंच पर स्वयं को पेश करने में समर्थ रहे, और दूसरी तऱफ संघ उनकी इस इच्छा का लाभ उठा कर अपनी स्वीकारोक्ति बढ़ाने में न केवल कामयाब रहा, बल्कि उसने अपनी कुछ वैचारिक धारणाओं पर मुहर भी लगवा ली। यही कारण है कि स्वयं को ‘आजीवन स्वयंसेवक’ कहने वाले लालकृष्ण अडवानी ने इस घटना को ‘ऐतिहासिक’ करार दिया है। 
श्री मुखर्जी ने ‘पूर्व-राष्ट्रपति’ के तौर पर निश्चित रूप से संघ की प्रतिष्ठा और स्वीकारोक्ति बढ़ाने में अपना योगदान किया है। यह हकीकत श्री मुखर्जी के वक्तव्य के ‘राजनीतिक सहीपन’ से नहीं छिप सकती। नेहरूवादी राजनीति में आजीवन पले और गांधी-परिवार के नेतृत्व में कार्यरत रहे प्रणब मुखर्जी से और कुछ बोलने की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती थी। संघ की हिंदू-एकता की परियोजना के जिन पहलुओं को आड़े हाथों लिया जाना चाहिए था, उन्हें निशाना बनाने में श्री मुखर्जी नाकाम रहे। एक तरह से मुखर्जी की अपने कार्यक्रम में भागीदारी के ज़रिये संघ ने अपनी उन विचारधारात्मक दावेदारियों की राष्ट्रीय मंच पर पुष्टि करवा ली, जो अन्यथा विवादास्पद मानी जाती रही हैं। दिलचस्प बात यह है कि यह सफलता संघ ने श्री मुखर्जी को सरसंघचालक मोहन भागवत के बाद यानी अंतिम वक्ता के रूप में बोलने का मौका दे कर हासिल की। यानी, जो मोहन भागवत ने अपने भाषण में कहा था उसे प्रणब मुखर्जी अपनी आलोचना का विषय बना सकते थे। चूंकि वे आखिरी वक्ता थे, इसलिए उनके विचार माहौल में तैरते रह जाते, और संघ को अ़फसोस होता कि उसने पूर्व-राष्ट्रपति को क्यों बुलाया। लेकिन, हुआ उल्टा। श्री मुखर्जी अपने लिखित भाषण से बंधे रहे, जो ़खासा ़िकताबी किस्म का था और ज़्यादा से ज़्यादा ़िकताबी किस्म के सेकुलरवादियों को ही ़खुश कर सकता था। 
सेकुलरवादी समीक्षक इस बात को प्रणब मुखर्जी की मंच पर ‘मौजूदगी का दबाव’ बता रहे हैं कि मोहन भागवत ने अपने भाषण में भारत में पैदा होने वालों को हिंदू करार देने के बजाय भारतीय करार दिया। वे यह भी कह रहे हैं कि इससे पहले मोहन भागवत जब भी बोलते थे तो उन्हें हमेशा हिंदू कहते थे। दरअसल, इन लोगों को संघ के विचार और अभिव्यक्ति में हुए परिवर्तनों की कोई थाह नहीं है। यह संघ वह नहीं है जो हिंदूकरण की बात कहता था। साठ के दशक में ही उसने ‘हिंदूकरण’ की जगह ‘भारतीयकरण’ का मुहावरा अपना लिया था। दीनदयाल उपाध्याय और बलराज मधोक जैसे संघ के नेता और विचारक राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन के ‘भारतीयकरण’ की चर्चा करते थे। वे यह मान कर चलते थे कि ‘भारतीय’ बनने की प्रक्रिया में ही ‘हिंदू’ बनना अंतर्निहित है। इस तरह से उन्होंने भारतीय और हिंदू को एक-दूसरे का पर्याय बना दिया था। सेकुलर-दृष्टि शुरू से भारतीयता और हिंदू होने के आग्रहों के बीच इस तरह के अंतर्गुक्फन को साम्प्रदायिक करार देती रही है। लेकिन प्रणब मुखर्जी और उनके भाषण के प्रशंसक भागवत की इस बात को नहीं समझ पाए। 
इसी तरह जब भागवत ने विविधता में एकता की चर्चा की तो उसका मतलब भी वह नहीं था जो सेकुलर-दृष्टि में होता है। सेकुलर-दृष्टि विविधता में एकता को सलाद के प्याले की तरह परिभाषित करती है। इसका मतलब होता है कि सभी धर्म-मत-सम्प्रदाय साथ-साथ रहेंगे, एकताबद्ध रहेंगे, लेकिन उनके ऊपर अपनी सांस्कृतिक विशिष्टताएं किसी एक बड़ी पहचान में विलीन करने का दबाव नहीं होगा। भागवत जब विविधता में एकता की बात करते हैं तो उसका मतलब होता है कुठाली वाली एकता। अर्थात सभी विभिन्नताएं भारतीयता नामक कुठाली में पिघल कर एक शै में बदल जाएंगी। यह राष्ट्रीय एकता की अमरीकी अवधारणा है जिसे संघ बिना अमरीका को श्रेय दिये मानता है। अगर ऐसा न होता तो भागवत को यह कहने की क्या ज़रूरत पड़ती कि विविधताओं को अपनी भिन्नता त्याग कर राष्ट्रहित में काम करना चाहिए? 
यह बात हमारी निगाह से कैसे छिप सकती है कि भागवत ने अपने वक्तव्य में स़ाफ कहा कि ‘हिंदू समाज भारत का उत्तरदायी है ... भारत के भाग्य के बारे में उससे ही प्रश्न पूछे जाएंगे।’ इसका मतलब स़ाफ है कि अगर ़गैर-हिंदुओं को भारत के भाग्य का उत्तरदायी बनना है तो उन्हें स्वयं को हिंदू होने की श्रेणी में लाना होगा। अगर उन्होंने ऐसा नहीं कर पाया तो क्या होगा? इस सवाल का जवाब मेरी निगाह में यह है कि वे भारत में रहेंगे, और उन्हें नागरिकता के लाभ भी मिलेंगे, लेकिन राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया में उनकी कोई भूमिका नहीं होगी। आखिरकार राष्ट्रनिर्माण तो वही कर सकते हैं जो राष्ट्र के लिए उत्तरदायी हैं। प्रणब मुखर्जी को चाहिए था कि वे इन तमाम ऩुक्तों को ठीक से समझते, और अपने भाषण में उनके प्रति समुचित अनुक्रिया करते। लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके। बाजी श्री प्रणब के हाथ में नहीं संघ के हाथ में रही। 
मोहन भागवत ने अपने भाषण में जो वैचारिक पैनापन दिखाया, वह संघ ने साठ और सत्तर के दशक में किये गए ऊहापोह और आत्मसंघर्ष के ज़रिये हासिल किया है। इस आत्मसंघर्ष का शिखर उस समय आया जब तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने 1974 में पूना की वसंत व्याख्यानमाला में अपना ऐतिहासिक भाषण दिया। यह व्याख्यान आज भी संघ का नीति-वक्तव्य बना हुआ है और देश की सभी भाषाओं में संघ की वेबसाइट पर उपलब्ध है। इस वक्तव्य के बाद संघ के लिए गोलवलकर की दोनों विवादास्पद पुस्तकों (‘बंच ऑ़फ थॉट्स’ और ‘वी, ऑर अवर नेशनहुड ड़िफाइंड’) की उपयोगिता समाप्त हो गई। इसीलिए आज ये पुस्तकें नेपथ्य में चली गई हैं। 1974 में उन्होंने अपने एक व्याख्यान ‘सामाजिक समता और हिंदू संगठन’ से इस पूरी प्रक्रिया को एक नया आयाम दे दिया। 
चातुवर्ण्य को हिंदू समाज में समतामूलकता के स्रोत की तरह देखने के बजाय देवरस ने ‘जन्म आधारित विषमता के शास्त्र’ का विरोध करते हुए इस व्याख्यान में कहा कि ‘वास्तव में देखा जाए तो आज की सम्पूर्ण परिस्थिति इतनी बदल चुकी है समाज धारण के लिए आवश्यक ऐसी जन्मत: वर्ण-व्यवस्था अथवा जाति-व्यवस्था आज अस्तित्व में ही नहीं है। सर्वत्र अव्यवस्था है, विकृति है। अब यह व्यवस्था केवल विवाह संबंधों तक ही सीमित रह गई है। इस व्यवस्था की ‘स्पिरिट’ समाप्त हो गयी है, केवल ‘लैटर’ ही शेष रह गया है। भाव समाप्त हो गया, ढांचा रह गया। प्राण निकल गया, पिंजर रह गया। समाज धारण से उसका कोई संबंध नहीं है। अत: सभी को मिल कर सोचना चाहिए कि जिसका समाप्त होना उचित है, जो स्वयं ही समाप्त हो रहा है, वह ठीक ढंग से कैसे समाप्त हो।’ 
ऐसा कह कर देवरस ने दो तरह के विचार परिवर्तन किये। गोलवलकर वर्णाश्रम में चारों जातियों की समानता की चर्चा करते हुए उन्हें एक धर्मप्रदत्त कर्तव्य में भी बांधने का आग्रह करते थे। पर इससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता था कि धर्मप्रदत्त कर्तव्य जन्मना होना चाहिए या नहीं। देवरस ने आसानी से धर्मप्रदत्त कर्त्तव्य की शर्त ही निबटा दी, क्योंकि वे वर्णाश्रम की समकालीन वैधता ही ठुकरा देना चाहते थे। दूसरे उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय की ‘एकात्म मानववाद’ वाली थीसिस को किसी प्रकार का खंडन किये बिना ठुकरा दिया। उपाध्याय का तर्क था कि वर्णाश्रम आधुनिक समतामूलकता के स्रोत की तरह देखा जाना चाहिए, पर देवरस ने उसे किसी भी तरह से उपयोगी मानने से तो इंकार किया ही, साथ ही यह आग्रह भी किया कि इस व्यवस्था को फिर से जिलाने की कोशिश करना भी व्यर्थ है।  जिस तरह संघ परिवार के भीतर का यह विचार-परिवर्तन हिंदुत्व विरोधी विमर्श कभी नहीं पकड़ पाया, उसी तरह श्री मुखर्जी और उनके प्रशंसक भागवत की बातों की बारीकी समझ पाने में नाकाम रहे।