कश्मीर में संघर्ष विराम क्या केन्द्र सरकार की भूल थी ?

रमज़ान के पवित्र मास में संघर्ष विराम करने की जब देश के गृह मंत्री ने घोषणा की थी तब कश्मीर के हालात से परिचित लोग हैरान रह गए थे। कई सेवानिवृत्त मेजर जनरलस ने इसे देश हित में नहीं माना। मई की 17 तिथि से जून की 17 तक संघर्ष विराम हुआ। इसके दौरान इतनी हत्याएं हुईं। हथियार छीने गए, बैंक लूटे गए और आतंकवादी संगठनों को पुन: जुड़ने और उभरने का अवसर मिल गया। पत्थरबाज़ खुल कर खेलने लगे। मोहतरमा महबूबा मुफ्ती ने जब एक सर्वदलीय बैठक बुलई तब एक निर्दलीय विधायक राशद इंजीनियर ने ‘सीज़फायर’ का सुझाव दिया। भाजपा के नेतागण खामोश रहे, महबूबा मुफ्ती ने प्रैस वार्ता में केन्द्र सरकार से अपील कर दी कि वह घाटी में अमन और शांति के लिए संघर्ष विराम करें। इसके पीछे वो लोग थे जिन्हें भारतीय सेना ‘ऑल आऊट’ के अधीन कुचल रही थी। कश्मीर के यह हालात वर्ष 1990 से आरम्भ हुए तब एक पत्रिका ने शहसुर्खी में प्रकाशित किया था कि इस देश विरोधी संघर्ष को अभी से रोको। परन्तु ऐसा हुआ न। 28 वर्ष पूर्व जहां घड़ी की सुई थी उल्टी घूम कर फिर वहीं पहुंच गई है। मरने वालों का आंकड़ा बढ़ता ही गया, घाटी की सड़कें रक्त रंजित होती रहीं। युवक ही नहीं, महिलाएं और बच्चे जिस तरह पत्थरबाज़ी करने के लिए उतर रहे हैं उस पर अंकुश कैसे लगेगा? सरकारी सम्पत्ति को निशाना बनाया जा रहा है और यह मज़र् बढ़ता ही गया ज्यूं-ज्यूं दवा की। वर्ष 2014 के चुनाव में 60 प्रतिशत से अधित मत पड़े जिससे एक उम्मीद जागी थी। कश्मीर में एक नई हवा बहेगी जो अलगाववादी सोच को उड़ा ले जाएगी परन्तु ऐसा हुआ नहीं। इसके पीछे चार-पांच लोगों का किया धरा माना जाता है। सैय्यद अली शाह गिलानी जो पूरी तरह पाकिस्तान के समर्थक हैं। मीरवाएज़ उमर फारुक जो हिन्दुस्तान के खिलाफ आग उगलने में माहिर माने जाते हैं और प्रत्येक जुम्मा के दिन इनकी मौजूदगी में पाकिस्तानी झंडे लहराते देखे जाते हैं। यासीन मलिक जिसने हथियारबंद संघर्ष  आरम्भ किया और भारतीय सेना के हाथों मारे जाने के डर से अहिंसक प्रदर्शन करने में विश्वास रखने लगा। मसर्रत आलम जो भारत को अपना देश नहीं मानता और कश्मीर को एक बड़ी जेल कहता है। इसी तरह एक महिला जो कश्मीर पर अलगाव समूह के लिए आग उगलती भाषा में माहिर मानी जाती है। इसी तरह दो-चार वकील भी कश्मीर में बेचैनी बनाए रखने के लिए अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इन्हीं में से कुछ घरों में नज़रबंद हैं तो कुछ जेलों में पड़े हैं परन्तु पाकिस्तानी पैसे पर यह आज़ादी का नारा लगाने और पाकिस्तानी परचम लहराए रखने में युवा वर्ग को प्रलोभन देने के साधन जानते हैं। कश्मीर में केन्द्र सरकार कोई ठोस नीति नहीं बना सकी। भारत ने यूं तो पाकिस्तान से चार जंगे लड़ी हैं तीन तो केवल कश्मीर पर ही लड़ी गईं। वह पाकिस्तानी हुकुमरान जो वर्ष 1947 में कबाइली लोगों का संघर्ष कहा करते थे, धीरे-धीरे सब नंगा हो गया और पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर ज़बरदस्ती अधिकार करने के लिए बारूद का सहारा लिया। महाराजा हरि सिंह ने हिन्दोस्तान में शामिल होने के लिए भारतीय सरकार से निवेदन किया जिसे मंजूर कर लिया गया। तत्कालीन रक्षा मंत्री सरदार बलदेव सिंह ने भारतीय सेना को पाकिस्तानी सेना को मुंह तोड़ जवाब देने के लिए आगे भेजा। कश्मीर के हालात दिन-प्रतिदिन खराब होते गए। वर्ष 1965 में युद्ध हुआ तब कश्मीर के बहुत से लोग पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय सेना की सहायता कर रहे थे। पैराटरुपर्स जो पाकिस्तान ने घुसपैठ करने का हवाई तरीका ढूंढा उनको भी पकड़ने और मारने में कश्मीरी युवकों ने भारतीय सुरक्षा कर्मियों को पूर्ण सहयोग दिया। जनरल मुशर्रफ ने जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को परेशान करने के लिए कारगिल पर हमला करवाया तब अलगाववादियों की बातों को नज़र अंदाज़ करके घाटी के निवासियों ने भारतीय सेना को समर्थन दिया। यह स्थिति देख कर ज़िया-उल-हक ने अपनी तानाशाही के दौर में घाटी में परोक्ष युद्ध की जो योजना बनाई उसको जनरल मुशर्रफ ने आई.एस.आई. नामक संस्था के साथ खूब आगे बढ़ाया। आज कट्टरपंथी उभार के काले साये घाटी में फैल रहे हैं और इसका लाभ उठाकर सैय्यद सिलाहूदीन जो कभी घाटी में स्कूल टीचर था, ने कश्मीरी युवकों को जेहाद के नाम पर मरने मारने के लिए उकसाना शुरू कर दिया, हाफिज़ सैय्यद, मौलाना अज़हर मसूद भी पीछे कहां रहने वाले थे। बेकार और परेशान  युवकों को धन और जन्नत का लालच देकर पाकिस्तानी सेना की ‘कवर फायरिंग’ के अधीन भारतीय सीमाओं पर उतारने लगे। वर्ष 2003 में जनरल मुशर्रफ और भारतीय तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मध्य सीमाओं पर संघर्ष विराम का समझौता हुआ जो कुछ महीनों के पश्चात् ही कफन में लिपट गया। अब वादी में मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन उभरने लगे हैं जिससे आतंकवाद की घटनाओं में बढ़ौत्तरी हुई। क्या महबूबा मुफ्ती यह नहीं जानती थी? उन्हें यह भी पता था कि जब उनके वालिद मरहूम मुफ्ती मोहम्मद सय्यद देश के गृह मंत्री थे तब महबूबा जी की हमशीरा राबिया का अपहरण हुआ था और आतंकवादियों ने एक शर्त के तहत उसे छोड़ने की बात कही थी तब देश के तत्कालीन विदेश मंत्री श्री इंद्र कुमार गुजराल ने श्रीनगर जाकर राबिया को आतंकवादियों के चंगुल से मुक्त करवाया। हैरानी की बात तो यह है कि इतना सब कुछ जानते हुए भी महबूबा ने संघर्ष विराम के लिए ज़िद्द क्यों की? जबकि पाकिस्तान में आतंकी फैक्टरियों में तैयार हो रहे जनूनी निरन्तर इस पार भेजे जा रहे हैं जो हिंसा और खौफ का वातावरण बनाने की तालीम लेकर घाटी में खून का खेल खेल रहे हैं। भारत पाकिस्तान से दोस्ती के तरीके तलाश करता रहा और पाकिस्तान विश्वासघात करने में जुटा रहा। पाकिस्तान वही देश है जहां भारत के गद्दार दाऊद इब्राहिम जैसे लोग पनाह लिए बैठे हैं। हद तो तब हो जाती है जब भारत विरोधी तत्व पाकिस्तान से बातचीत करने के लिए दबाव डालने लगता है। पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी कहती रही कि पाकिस्तान और हुर्रियत से बात की जाए। भारत में चीन के राजदूत भी यह कह गए कि कश्मीर के मामले में त्रिपक्षीय बात होनी चाहिए। ़खैर हमें चीन से कोई शिकायत नहीं, अजगर तो कई वर्षों से भारत को नीचा दिखाने के लिए कई तरह के पापड़ बेलता रहता है। हमें शिकवा है तो भारतीय राजनेताओं से जो कश्मीर की समस्या का समाधान उन लोगों के सहारे ढूंढते रहे हैं जो भारत विरोधी रहे। इसलिए संघर्ष विराम का फैसला सरासर भारतीय गृह मंत्रालय की भूल ही कहा जा सकता है। होना तो यह चाहिए था कि ‘ऑल आऊट’ को जारी रखने के लिए सेना को शाबाशी दी जाती। इंजीनियर राशद, बाबर, नबी और शबनम लोन जैसे लोग कई तरह के बहाने बना कर आतंकवादियों के गिरोहों को सहारा देते रहेंगे। यह अमन-शांति के पक्षधर कभी नहीं थे। कई लोग तो भारतीय पासपोर्ट रखते हुए भी अपने आप को भारतीय कहलाना पसंद नहीं करते। प्रसिद्ध पत्रकार शुजात बुखारी और राईफलमैन औरंगज़ेब खां की हत्या को आतंकवाद के कफन में आखिरी कील बना देनी चाहिए। इसी से उस भूल में सुधार हो सकता है।