जब नारदजी का गर्व हर लिया हरि ने

प्राचीन काल में देवर्षि नारद ने कठिन तपस्या की। जब कोई भी उनकी तपस्या को भंग नहीं कर पाया तो नारद जी अपने पिता ब्रह्मा जी के पास गए और अपनी तपस्या सफल होने की बात कही। इसके बाद वह भगवान शंकर के पास कैलाश पुरी पहुंचे और शिवजी से  अपनी तपस्या पूर्ण होने का समाचार सुनाया। भगवान ने सोचा कि नारद जी को अपनी तपस्या का घमंड हो गया है। उन्होंने देवर्षि नारद से कहा कि तुम इस बारे में भगवान विष्णु जी को मत बताना परन्तु मना करने के बावजूद वह उसी समय भगवान हरि के पास गए और अपनी तपस्या पूर्ण होने को अपनी जीत होना बताया। श्री विष्णु भगवान ने ध्यान करके जाना कि देवर्षि नारद को अपनी तपस्या पूर्ण होने का घमंड हो गया है। उन्होंने सोचा कि नारद जी के घमंड को तोड़ना आवश्यक है। उन्होंने माता लक्ष्मी से कहा कि तुम इसी समय विश्वमोहिनी का रूप धारण करो और उस मार्ग पर जाओ जहां नारद जी जा रहे हैं। उन्हेें कामदेव को जीतने का घमंड हो गया है, इसलिए मेरे इस भक्त का गर्व हरो। जब नारद जी हरिनाम सुमिरण करते हुए जा रहे थे तो उन्हें रास्ते में एक बड़ा राज्य दिखाई पड़ा जहां पर धूमधाम से समारोह मनाया जा रहा था। वहां के राजा शीलनिधि ने अपनी पुत्री विश्वमोहिनी का स्वयंवर रचाया था। सारा हाल जानकर देवर्षि नारद भी स्वयंवर में पहुंचे। वहां उनका आदर-सत्कार हुआ। राजा ने उनकी आवभगत के बाद अपनी पुत्री विश्वमोहिनी का भविष्य पूछा। देवर्षि ने उन्हें आश्वासन दिलाया कि विश्वमोहिनी का पति काफी भाग्यशाली और त्रिलोकों का स्वामी होगा। इसके बाद उस विश्वमोहिनी के रूप गुण से मोहित होकर नारद जी भगवान विष्णु जी के पास पहुंचे और भगवान से प्रार्थना की कि उन्हें ऐसा सुन्दर रूप प्रदान करें कि विश्वमोहिनी स्वयंवर में उनका वरण कर ले। भगवान विष्णु जी ने देवर्षि का मुख तो बंदर का बना दिया और बाकी शरीर मनुष्य का बना रहने दिया लेकिन नारद जी को इसका आभास नहीं हुआ। वह राजा शीलनिधि के दरबार में पहुंचे और दौड़ कर विश्वमोहिनी के सम्मुख जा खड़े हुए ताकि वह उनके गले में वरमाला डाल दे। भगवान शिवजी के दो गण भी वहां मौजूद थे। जब उन्होंने बंदर रूप वाले नारद जी को विश्वमोहिनी पर मोहित होकर आगे-पीछे दौड़ते देखा तो वे उनका उपहास करने लगे। कुछ समय पश्चात् भगवान विष्णु जी स्वयंवर में प्रकट हुए और विश्वमोहिनी ने वरमाला उनके गले में डाल दी। विश्वमोहिनी को लेकर भगवान विष्यणु वहां से चले गए। इस पर आश्चर्यचकित होकर नारद जी ने दरबार में उपस्थित जनों को निहारा तो शिवगणों ने उनको अपना मुख दर्पण में देखने को कहा। जब उन्होंने दर्पण में देखा तो अपना मुख बन्दर का पाया।  इस पर उनका गर्व चूर-चूर हो गया और क्रोध में भरकर उन्होंने विष्णु भगवान से कहा कि आपने मेरे साथ छल किया है। मैंने आप से सुन्दर रूप मांगा था और आपने मुझे बन्दर का मुख दे दिया। मैं आपको श्राप देता हूं कि आप भी पत्नी वियोग में इधर-उधर भटकोगा और तब यही बन्दर आपकी सहायता करेंगे। विष्णु जी ने उनका श्राप स्वीकार करके अपनी माया हटा ली। माया के हटते ही नारद जी चैतन्य हो गए। उन्हें अपने पर पश्चाताप होने लगा और अपने श्राप पर शर्मिन्दा हुए। तब भगवान हरि ने उनका श्राप सत्य होने का वचन दिया। इस प्रकार भगवान ने अपने भक्त का गर्व हर लिया।

(उर्वशी)
—मनोज वर्मा