भाजपा को ज़रूरत है एक अंध-राष्ट्रवादी मुद्दे की

गत सप्ताह मैंने एक ़कयास लगाया था कि भारतीय जनता पार्टी 2019 का मोर्चा सर करने के लिए राष्ट्रवादी उ़फान लाने की जुगाड़ में है। साथ ही मैंने यह तर्क भी दिया था कि वह राष्ट्रवाद के साथ विकास को भी जोड़ना चाहेगी। यानी भाजपा की यह योजना एक तरह से अपने को टटोलने के दौर में है। अब मेरा यह ़कयास एक पक्का तर्क बन गया है। दरअसल, भाजपा इस समय एक ऐसे मुद्दे की तलाश में है जिसके ज़रिये वह इस योजना को अंजाम दे सके। इसका एक प्रमाण पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के राम मंदिर संबंधी वक्तव्य पर चलने वाली बहस से मिलता है। अमित शाह ने यह बयान एक अटकल और आकलन के रूप में दिया है कि अगर जैसा चल रहा है वैसा ही चलता रहा तो राम मंदिर 2019 के चुनाव से पहले बनना शुरू हो जाएगा। ज़ाहिर है कि सब कुछ संभावनाओं के घेरे में है। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि अगर मंदिर बनना शुरू भी हो गया तो वह राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़का कर वोट पाने के औज़ार का  काम लाज़िमी तौर पर कर भी पाएगा या नहीं। यह भी तो हो सकता है कि देश भर में मुसलमानों की तऱफ से इसका कोई विरोध न हो (जिसकी सम्भावना बहुत ज़्यादा है)। ऐसी सूरत में राम मंदिर से लोकतंत्र और समाज का बहुसंख्यकवादी आधार तो मज़बूत होगा, पर हिंदुओं की विपरीत प्रतिक्रिया नहीं होगी। भाजपा को निश्चित रूप से इसका लाभ मिलेगा, पर वह एक निर्णायक लाभ नहीं होगा।  
दरअसल, राम मंदिर का प्रश्न अब राजनीति के जज़्बाती दायरों को छोड़ कर विधि के क्षेत्र या कहिये तो ़कानूनी किस्म की राजनीति के दायरे में चला गया है। उसके ज़रिये कानून का सहारा लेकर हिंदू बहुसंख्या को बहुसंख्यकवाद की तऱफ धकेला जा रहा है। अयोध्या प्रकरण से जुड़े मुकद्दमे के लम्बा चलने का भी हिंदुत्ववादी शक्तियों को यह ़फायदा हुआ है। नारीवादी समाज-वैज्ञानिक रत्ना कपूर ने अपनी दो विश्लेषणात्मक रचनाओं में दिखाया है कि भारतीय हाई कोर्टों और सुप्रीम कोर्ट के कई ़फैसले साठ के दशक के बाद से ही दो रास्ते खोलते हुए दिखाई पड़ते हैं : पहला, वे हिंदू धर्म को एक समरूप शास्त्रोक्त संहिता के तहत परिभाषित करने की गुंजाइशें बनाते हैं और अयोध्या प्रकरण आते-आते यह प्रक्रिया अपने चरम पर पहुंच कर हिंदुत्ववादी दावेदारियों को मज़बूत करती हुई दिखती है। दूसरा, हमारी ऊंची अदालतों में धर्म की स्वतंत्रता के प्रश्न पर होने वाली बहस के ज़रिये जाने-अनजाने हिंदुत्ववादी एजेंडे को सुदृढ़ करने का म़ौका खुलता है। रत्ना कपूर ने बहुचर्चित हिंदुत्व मुकद्दमे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदू धर्म’ के बीच अंतर करने से इंकार करने पर ़खास तौर पर ज़ोर दिया है।  उनका कहना है कि आगे चल कर अदालतों ने अयोध्या के मसले पर हिंदुत्ववादी पक्ष की यह दलील मान ली है कि हिंदुओं के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का मतलब उपासना की व्यक्तिगत स्वतंत्रता ही नहीं है, बल्कि एक ़खास जगह पर सामूहिक रूप से पूजा करने का अधिकार भी उनके धर्म का अनिवार्य अंग है। ़खास बात यह है कि अल्पसंख्यक समुदायों के संदर्भ में हिंदुत्व का आग्रह यह होता है कि धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार सामूहिक नहीं, बल्कि व्यक्तिगत होना चाहिए। भाजपा अपने संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता की परिभाषा इसी तरह से करती है, लेकिन अयोध्या मसले पर उसके पक्षकार अपना रवैया बदल कर सामूहिक रूप से पूजा करने के अधिकार की व़कालत करने लगते हैं। लेकिन, रत्ना कपूर के मुताब़िक इस तबदीली पर सवालिया निशान लगाने के बजाय ़कानून हिंदुत्ववादी हाथों में खेलता नज़र आता है। राम मंदिर संबंधी मुकद्दमे की यह प्रक्रिया कोई एक दिन में नहीं हो गई है। यह प्रक्रिया अस्सी के दशक से चल रही है। यानी तब से जब देश पर राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का शासन था और भारतीय जनता पार्टी संसद में स़िर्फ दो सांसद लेकर कृष्ण लाल शर्मा कमेटी बना कर अपनी चुनावी दुर्गति के कारणों की तलाश कर रही थी। इसी समय राजनीति में एक ऐसी प्रवृत्ति पैदा हुई जो उस समय जनगोलबंदी की निगाह से देखने पर एक चुनावी रणनीति भर लगती थी, जो दरअसल हमारे लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करती चली गई। रजनी कोठारी ने इसे ‘नृवंशीय गणनशास्त्र के आधार पर की जाने वाली राजनीति’ की संज्ञा दी है। यानी लोकतंत्र में सत्ता हासिल करने वाली रणनीति का महज़ जातियों के जोड़-तोड़ में घटते चले जाना। इस नृवंशीय गणनशास्त्र का इस्तेमाल पहले हिंदुत्ववादी राजनीति को रोकने में किया गया। इसके बाद स्वयं हिंदुत्ववादियों द्वारा इसका इस्तेमाल करके अपने विरोधियों को पराजित करने का सिलसिला शुरू हुआ। यह आज तक जारी है। एक तरह से इसकी शुरुआत 1969 में ही हो गई थी। कोठारी ने गणनशास्त्र की व्याख्या करने के लिए जिन सामाजिक-धार्मिक प्रक्रियाओं का वर्णन किया है, उनके बारे में माना जा सकता है कि वे कम से कम दस साल पहले शुरू हुई होंगी। यानी साठ के दशक के आखिर और सत्तर के दशक की शुरुआत या मध्य से ही चुनाव संख्या के खेल में बदलने लगता है, और हिंदुओं की बहुप्रशंसित विविधता एक राष्ट्रीय समरूपीकरण के दौर से गुज़रती हुई दिखाई देती है। कोठारी ने सवाल पूछा है कि ‘क्या चुनाव आधारित जनतंत्र उग्रराष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काता है और साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देता है? हम बुद्धिजीवी अक्सर इस मुद्दे से कतराने की कोशिश करते रहे हैं। ... निश्चय ही यह एक आधुनिक परिघटना है और इसका सबसे घातक पहलू है भारत की विविधता, यानी अल्पसंख्यक बहुल समाज की अवधारणा का परित्याग और बहुसंख्यकवादी एकरूपीकरण व सामान्यीकरण की अवधारणा का थोपा जाना।’ बिना किसी शक के कोठारी 1985 में इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि न तो चुनाव आधारित उदारतावादी लोकतंत्र और न ही भारत का सामाजिक बहुलतावाद बहुसंख्यकवादी परिघटना को रोक पाने में समर्थ हैं। एक तरह से वे उसे बढ़ावा देने की ज़मीन मुहैया करा रहे हैं। हालांकि अस्सी के दशक में कोठारी को स़ाफ दिख रहा था कि कांग्रेस चुनावी ़फायदे के लिए बहुसंख्यकवादी आवेग को हवा दे रही है, लेकिन वे उस समय कमज़ोर लग रहे हिंदुत्ववादी संगठनों को नज़रंदाज़ करने के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा था, ‘ढेर सारे उग्र मसीही किस्म के हिंदूवादी संगठन पैदा हो गए हैं जिनका उद्देश्य हिंदुओं के बीच इस भावना को पनपाना है कि वे एक एकताबद्ध, एकरूप, केद्रीकृत अस्मिता के अंग हैं। ऐसे ही संगठन हैं- विश्व हिंदू परिषद्, बजरंग दल, हिंदू एकता मंच, हिंदू रक्षा समिति, पतित पावन संगठन और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सरीखे पुराने संगठन, जो कुछ समय के लिए राजनीतिक रूप से सुस्त पड़े थे, लेकिन आज क़ाफी सक्रिय हो गए हैं।’   राम मंदिर का मुद्दा पुराना है। वह केवल उग्र-राष्ट्रवाद के लिए ज़मीन मुहैया करा सकता है, जो वह निश्चित रूप से करायेगा ही। लेकिन इस ज़मीन पर भाजपा को एक नये मुद्दे के ज़रिये नई इमारत खड़ी करनी पड़ेगी। यह नया मुद्दा कहीं से भी आ सकता है, और ऐसा नहीं भी हो सकता है। कुल मिला कर भाजपा को केवल राम मंदिर की नहीं, बल्कि राम मंदिर (प्लस) की रणनीति की आवश्यकता है। यह अलग बात है कि फिलहाल ऐसी रणनीति के उभरने में कई तरह के किंतु-परंतु दिखाई पड़ रहे हैं।