चरण स्पर्श है मंगलकारी

नित्य वृद्धों की सेवा करने वालों तथा उनका अभिवादन करने वालों की आयु, विद्या, यश और बल ये चार चीजें सदैव बढ़ती हैं और जिस व्यक्ति में इन चार चीजों की वृद्धि होगी, उसके स्वस्थ रहने में कोई संदेह नहीं। चरण वंदना, प्रणाम, नमन हमारी संस्कृति का संस्कार हैं। हमारे धर्म ग्र्रंथों के अनुसार  देवता, गुरु, माता-पिता एवं बुजुर्गों की चरण वंदना (स्पर्श) को श्रेष्ठ माना जाता है। भारतीय वैदिक संस्कृति में इसको सबसे ज्यादा मान्यता भी प्राप्त है। चरण स्पर्श के लिए सम्मानीय श्रद्धेय व्यक्ति के समक्ष झुकना होता है जो हमारे अंदर विनम्रता के भावों को जगाता है और जब हम विनम्र होकर वरिष्ठजनों के चरण छूते हैं तो वैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार यह एक टच थैरेपी है जो ऊर्जा को गतिमान बनाती है। मनु स्मृति में भी चरण स्पर्श के संबंध में उल्लेख है कि वेद के स्वाध्याय के आरंभ और अंत में सदैव गुरु के दोनों चरणों का स्पर्श करना चाहिए। बाएं हाथ से दाएं पैर तथा दाएं हाथ से बाएं पैर का स्पर्श करना चाहिए। जब हम अपने से श्रेष्ठ और योग्य व्यक्ति के चरणों को अपने हाथों से स्पर्श करते हैं, तो उस सामने वाले व्यक्ति में प्रतिष्ठित ज्ञान और गुणों की तरंगों को अपने शरीर में प्रविष्ट होते हुए महसूस कर सकते हैं। वे तरंगें हमारे शरीर में प्रविष्ट होने लगती हैं। आधुनिक विज्ञान भी यह मानता है कि व्यक्ति के चारों ओर उपस्थित ऊर्जा क्षेत्र (प्रभामंडल) जितना प्रबल होगा, उतना ही वह दूसरों को प्रभावित करने में सक्षम और श्रेष्ठ होगा। चरण स्पर्श या अभिवादन की वैदिक परम्परा का वैज्ञानिक पहलू यह है कि मानव के शरीर का बायां भाग ऋणात्मक एवं दाहिना भाग घनात्मक होता है। जब दो व्यक्ति आमने सामने खड़े हैं तो स्वाभाविक रूप से शरीर का घनात्मक ऊर्जा वाला भाग ऋणात्मक भाग के सामने और ऋणात्मक ऊर्जा वाला भाग घनातमक ऊर्जा वाले भाग के सामने आ जाता है। जब सामने वाला व्यक्ति अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति का चरण स्पर्श करता है और दूसरा व्यक्ति चरण स्पर्श करने वाले व्यक्ति के सिर पर हाथ रखकर उसे आशीर्वाद देता है तो दोनों की समान ऊर्जाएं आपस में टकराती हैं। इससे दोनों की ऊर्जाओं का मिलन होता है। इसमें से श्रेष्ठ व्यक्ति की ऊर्जा दूसरे व्यक्ति की शक्ति में प्रवाहित होने लगती है। चरण स्पर्श विश्व की सबसे ज्यादा श्रेष्ठ वैज्ञानिक परम्परा भी है। पुराणों में महर्षि मार्कण्डेय की एक कथा मिलती है कि कैसे अभिवादनशीलता के बल पर वह चिरजीवी हो गए। महर्षि मार्कण्डेय मृकण्डु के पुत्र थे। महर्षि मार्कण्डेय जब मात्र पांच वर्ष के थे, तभी उनके पिता मृकण्डु को पता चला कि उनके पुत्र की आयु तो केवल छ: महीने की ही बची है। उन्हें बहुत निराशा हुई। मृकण्डु ने अपने पुत्र का यज्ञोपवीत संस्कार करवाया और उसे उपदेश दिया:
पुत्र, तुम जब भी किसी द्विजोत्तम को देखो तो विनयपूर्वक उसका अभिवादन अवश्य करना। उसे प्रणाम करना। मृकण्डु का पुत्र बहुत ही आज्ञाकारी बालक था अत: उसने पिता द्वारा प्रदत्त व्रत को दृढ़तापूर्वक धारण किया। अभिवादन उसके जीवन का अभिन्न अंग बन गया। जो भी बालक के समक्ष आता, बालक उसे आदरपूर्वक प्रणाम करना न भूलता। एक बार सप्तऋषि भी उसी  मार्ग से जा रहे थे। बालक मार्कण्डेय ने संस्कार-वश अत्यंत आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। सप्तऋषियों ने बालक को दीर्घायु होने का आशीर्वाद दे दिया। सप्तऋषियों के आशीर्वाद से अल्पायु बालक मार्कण्डेय को कल्प कल्पांत की आयु प्राप्त हो गई। अपनी अभिवादनशीलता के गुण के कारण वह चिरजीवी हो गया। दीर्घायु और स्वस्थ बने रहने के लिए अभिवादनशीलता व शिष्टाचार का पालन करना हर तरह से श्रेष्ठ होता है। राम के चरित्र का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी ने कई जगह पर नमन व चरणस्पर्श की महिमा और उसके प्रतिफल का उल्लेख रामचरित मानस में किया है। राम प्रतिदिन माता-पिता एवं गुरुजनों को प्रणाम करके ही अपनी जीवनचर्या प्रारंभ करते थे। महर्षि विश्वामित्र के साथ वन गमन के दौरान प्रत्येक कार्य हेतु गुरु आशीर्वाद लेते थे और उनके चरण स्पर्श करते थे। महाभारत युद्ध में पांडवों ने अपने शत्रु पक्ष में युद्ध कर रहे गुरुजनों पितामह भीष्म आदि की चरण वंदना करके अपने लिए विजय-श्री का आशीर्वाद प्राप्त किया। दोनों हाथ जोड़कर नमन करने की हमारी परम्परा विश्व में अनूठी व अनुपम है।

-अभय कुमार जैन
तृप्ति, बंदा रोड, भवानीमंडी (राजस्थान)