शिकागो विजय पताका दिवस पर विशेष सम्भवामि युगे-युगे की परम्परा में स्वामी विवेकानंद 

भगवान श्रीकृष्ण जी ने यह कहा था कि भारत में जब-जब धर्म की हानि होगी, मैं साधुओं के रक्षण, दुष्टों को नष्ट करने और धर्म के उत्थान के लिए हर युग में संभव हूं अर्थात् संसार में अवतार लेकर आता हूं। बंगाल के कोलकाता महानगर में पिता विश्वनाथ और मां भुवनेश्वरी की गोद में एक अद्वितीय बालक ने जन्म लिया, जो भारतीय संस्कृति की पताका फहराने के लिए धर्म संसद में अमरीका पहुंचा। इसके बाद सन् 1881 में दिसंबर का महीना ऐतिहासिक सिद्ध हुआ। जब नरेन्द्र स्वामी रामकृष्ण परमहंस के कक्ष में गए और एक नए युग के सूर्योदय की तैयारी हो गई। इसके पश्चात् 11 सितंबर 1893 विश्व के इतिहास का वह स्वर्णिम पृष्ठ है जो कभी धुंधला नहीं हो सकता। प्राज्य और पाश्चात्य अर्थात् पूरव और पश्चिमी के मिलन का वह शुभ दिवस इतिहास का गौरव है। इसी दिन स्वामी जी द्वारा प्रतिपादित शिकागो की धर्म संसद में वेदांत धर्म में विजयी होकर विश्व को आश्चर्य में डाल दिया गया। प्रसिद्ध विद्वान रोमा रोला ने इस अवसर के लिए लिखा है-यही श्री रामकृष्ण देव का विश्वास था जो समस्त विघ्न बाधाओं को पार कर उनके पावन शिष्य के मुख से निकला। उनके भाषण में शाश्वत प्रेम की वाणी गूंज रही थी। 11 सितंबर से 27 सितंबर तक चली इस धर्म सभा में विवेकानंद जी का प्रवचन कई बार हुआ। उस समय के प्रत्यक्षदर्शी लेखक लिखते हैं कि विवेकानंद की वाणी और ज्ञान के जादू से बंधे सात हज़ार श्रोतागण मंत्रमुग्ध बैठे रहते और उन्हें बांधे रखने के लिए आयोजक बार-बार यह घोषणा करते कि अंत में स्वामी विवेकानंद जी का भाषण होगा। बोस्टन से शिकागो जाने से पहले जिस प्रोफैसर राइट ने विवेकानंद जी को परिचय पत्र दिया उसने लिखा-एक ऐसा आदमी है जो हमारे सारे विद्वान प्रोफैसरों की सामूहिक विद्वता से भी अधिक विद्वान है। शिकागो के लिए चल तो पड़े विवेकानंद, पर वह पत्र और सभा के प्रमुख आयोजक श्री बैरोज का पता भी खो गया, पर संघर्ष करते हुए, भूख-प्यास से लड़ते हुए विवेकानंद जी को मां काली द्वारा प्रेरित श्रीमती हेग और उनका परिवार मिला, जो उन्हें घर ले गया, आतिथ्य किया और फिर श्री बैरोज से मिलवाया। आज हम भारतवासी स्वामी विवेकानंद जी की 125वीं धर्म संसद में दिए भाषण की वर्षगांठ मना रहे हैं। उन्होंने जैसे ही मंच पर खड़े होकर ‘अमरीका के भाईयों और बहनों’ कहा, अचंभे में भरे सारे श्रोतागण कई क्षणों तक तालियां बजाते, आल्हद प्रकट करते खड़े रहे। संभवत: सब में भाई-बहन का भाव रखना उन अमरीका वालों में कोई नई सुखद घटना थी। विवेकानंद जी ने कहा-‘मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा स्वीकृति दोनों की ही शिक्षा दी। हम केवल सहनशीलता ही नहीं, अपितु समस्त धर्म सत्य मानते हैं। मुझे यह कहने में गर्व है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूं जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में एक्सक्लुजन शब्द का अनुवाद ही नहीं। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों एवं शरणार्थियों को शरण दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि जिस वर्ष यहूदियों का मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था, उसी वर्ष विशुद्धतम यहूदियों का एक अंश दक्षिण भारत में शरण लेने आया, जिसे भारत ने अपने हृदय में स्थान दिया। हम भारतीय जिस मंत्र का प्रतिदिन उच्चारण करते हैं वह यह है-जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकल कर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभु! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार अपनाए गए विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते अंत में तुझको ही आकर मिल जाते हैं। स्वामी विवेकानंद जी ने विश्व के सभी धर्मों के लिए सम आदर भाव प्रकट किया। स्वामी विवेकानंद जी का भाषण प्रवाह चलता रहा और उसकी धारा अमरीका, यूरोप और अन्य देशों को पार करके भारत तक प्रभाव छोड़ने लगी। स्वामी विवेकानंद जी स्वदेश प्रेम से ओतप्रोत थे। वह महिलाओं को शिक्षित बनाना चाहते थे और यह चाहते थे कि भारतीय मर्यादा में बंधी रहकर भारत की महिलाएं अमरीका की महिलाओं की तरह आगे बढ़ें। विवेकानंद जी की मान्यता थी कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर यह है कि वह स्त्रियों के साथ कैसा व्यवहार करता है। आज भारत के कर्णधारों को सोचना होगा कि अश्लील विज्ञापन और महिलाओं का शोषण, अपमान आदि क्या विवेकानंद जी को ठेस नहीं पहुंचाते होंगे? नेताओं के लिए वह उच्च चरित्र और पक्षपात रहित व्यवहार आवश्यक मानते थे। अंत में याद यह रखना होगा कि लाहौर में युवकों की एक सभा में उन्होंने कहा कि ‘उठो, जागो और बढ़ते जाओ। जब तक लक्ष्य पर न पहुंच जाओ।’ उनका कहना था कि प्रेम पताका फहराओ और सारे विश्व को प्रेम और सहनशीलता के एक सूत्र में बांधे रखो, पर याद रखो।  स्वामी विवेकानंद जी से प्रभावित होकर बहुत से विदेशी उनके शिष्य बने, पर उल्लेखनीय नाम भगिनी निवेदिता जो पहले मारग्रेट नोबल थी और भगिनी गार्गी जो विख्यात लेखिका और पत्रकार लुई बर्क थीं। उन्होंने जीवन भर स्वामी विवेकानंद जी के जीवन और धर्म दर्शन को संसार में अपनी कलम द्वारा प्रचारित किया। स्वामी विवेकानंद केवल 39 वर्ष पांच मास और 24 दिन इस संसार में सशरीर रहे, पर उनकी दिव्य ज्योति युगों-युगों तक भारत को आलौकित करती रहेगी।