मन की अपवित्रता

कबीरदास जाति-पाति, छुआछूत और समाज की दूसरी कुरीतियों के खिलाफ थे। उन्होंने अपने दोहों में हिन्दू-मुसलमान दोनों पर कटाक्ष करते हुए उन्हें आड़े हाथों लिया है। रोज की तरह एक दिन कबीरदास सुबह सवेरे गंगा के किनारे स्नान कर रहे थे। उसी समय तीन ब्राह्मण जो तीर्थयात्रा पर आये थे, गंगा में स्नान करने के लिये आये। वे कबीरदास से थोड़ी दूरी पर आकर खड़े हो गये। गंगा का पानी गहरा था, प्रवाह भी तेज था, इसलिये गंगा में घुसकर स्नान करने का साहस किसी को नहीं हुआ। ब्राह्मण यात्रियों के पास नहाने के लिये कोई पात्र भी नहीं था। वे तीनों खड़े होकर आपस में बातें करने लगे कि नहाने के लिये लोटे का प्रबंध कहां से किया जाये। जब उनकी बात कबीरदास के कान में पड़ी तो उन्होंने अपना लोटा गंगा के रेत से मांज धोकर अपने शिष्य को देते हुए कहा - जाओ यह लोटा जाकर उन यात्रियों को दे आओ। शायद उनके पास स्नान करने के लिये कोई पात्र नहीं है। शिष्य लोटा लेकर ब्राह्मण यात्रियों के पास आया और लोटा उनकी ओर बढ़ाते हुए बोला, लीजिये, आप इस लोटे से स्नान कर लीजिये। ब्राह्मण यात्री शिष्य को निहारने लगे। उनमें से एक बोला-पहले यह बताइये कि यह लोटा किसका है? शिष्य बोला यह लोटा हमारे गुरु कबीरदास का हैं।  उन्होंने ही यह आपको स्नान करने के लिये दिया है। यह बताओ कि तुम्हारे गुरु किस जाति के हैं? उनमें से एक ने पूछा।शिष्य ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह चुपचाप खड़ा रहा। कबीर दूर शांत खड़े ब्राह्मण यात्रियों की बातें सुन रहे थे। वह ब्राह्मण यात्रियों के पास आये और बोले-यह लोटा मेरा है। मेरी जाति जुलाहा है। कबीर के मुंह से उनकी जाति का नाम सुनकर तीनों ब्राह्मण एक स्वर में चिल्ला उठे-जुलाहा, हरे राम  हरे राम, दूर हटाओ इस लोटे को। इस लोटे से स्नान करके क्या हम अपवित्र नहीं हो जायेंगे? हमारा तो धर्म ही नष्ट हो जायेगा। सुनकर कबीर गंभीर हो गये। बोले, आप तो ज्ञानी ब्राह्मण हैं। तनिक मुझे भी तो बताइये कि मेरे इस लोटे से स्नान करने पर आप अपवित्र कैसे हो जायेंगे? एक शूद्र के लोटे को प्रयोग में लाने से अपवित्रता नहीं तो क्या पवित्रता आयेगी? एक ब्राह्मण बोला।
कबीर ने पूछा-आपके कहने का अर्थ यह हुआ कि लोटा अपवित्र नहीं बल्कि लोटे का मालिक जुलाहा अपवित्र है।
हां, बिलकुल। जब जुलाहा अपवित्र है तो लोटा भी अपवित्र हुआ क्योंकि वह नित्य जुलाहे का स्पर्श पाता है। ब्राह्मण ने तर्क दिया।
कबीरदास ब्राह्मण यात्रियों की बात सुनकर मुस्कुराये और बोले-हे ब्राह्मण देवताओ, मैं वर्षों से रोज इस लोटे से गंगा के पवित्र जल से स्नान करता हूं। इस लोटे को गंगा की शुद्ध मिट्टी से मांजता हूं और गंगा के जल से धोता हूं। इतने पर भी यह लोटा अपवित्र है? सच्चाई तो यह है कि तुम्हारे भीतर जो दुर्भावना, भेदभाव और संकीर्णता का मैल सदियों से जमा हुआ है, वह हजार बार गंगा में स्नान करने पर भी नहीं धुल सकता। अपवित्रता तुम्हारे भीतर समाई हुई है। ब्राह्मण खिसियाने से निरुत्तर खड़े थे। कबीर अपना लोटा हाथ में लिये शिष्य के साथ घर की ओर चल दिये। 

-परशुराम संबल