क्या ‘मी टू’ मुहिम से कार्य-स्थलों पर महिला की सुरक्षा हो सकेगी ?

भारत में चल रही ‘मी टू मुहिम’ ने इस समय हमारे समाज के पितृसत्तात्मक अदारों को हिलाया हुआ है। कोई दस साल पहले एक अश्वेत महिला टैराना बुर्के ने इस मुहिम की शुरुआत की थी। उनका म़कसद निम्न तबके की अश्वेत महिलाओं को यौन-शोषण से बचाने का था। 2017 में जब हॉलीवुड के बड़े फिल्म-निर्माता हार्वी वाइंस्टाइन के ऊपर यौन-शोषण के एक से ज़्यादा मामले प्रकाश में आए तो अभिनेत्री एलिसा मिलानो ने एक ट्वीट किया जिसमें लिखा था कि अगर आपको यौनिक रूप से तंग किया गया है या आपका यौन-शोषण किया गया है तो मेरे इस ट्वीट के जवाब में ‘मी टू’ लिखिए। उसी के बाद से दुनिया के पैमाने पर हज़ारों-हज़ार स्त्रियाँ ‘मी टू’ कहते हुए सामने आ चुकी हैं। अब यह सिलसिला भारत में भी चालू हो गया है। दरअसल, यह पूरा संघर्ष कार्यस्थल पर लैंगिक समानता का संघर्ष है। फिलहाल यह सोशल मीडिया पर केंद्रित है, पर इसे एक ़कानूनी संघर्ष में बदलने के लिए एक बड़ा कोष जमा करने हेतु हॉलीवुड में ‘टाइम्सअप’ की स्थापना की गई है ताकि यौन-शोषण की शिकार रही स्त्रियों को अपना मुकद्दमा लड़ने में किसी तरह की दिक्कत न हो। ‘मी टू मुहिम’ का एक परिणाम यह हुआ है कि स्त्री के आचरण और उसके देह के प्रश्न पर एक नये सिरे से बहस शुरू हो गई है। दुख की बात यह है कि यह बहस उसी पुराने तरीके से हो रही है जैसी उस समय होती थी जब नारीवाद की दूसरी और तीसरी लहर के दौरान ये सवाल उठाये गए थे। आज भी ऐसा लग रहा है कि परनाला वहीं गिर रहा है जहाँ पहले गिरा करता था। स्त्री को उसकी देह पर सम्पूर्ण और अक्षुण्ण अधिकार देने के लिए यह समाज अभी तक तैयार नहीं हो पाया है। ‘मी टू मुहिम’ माँग कर रही है कि ग्लोबल स्तर पर नारीवादी आंदोलन की चौथी लहर की आवश्यकता है। अगर एक सर्वेक्षण के ज़रिये लोगों से सवाल पूछा जाए कि क्या आप चाहते हैं कि स्त्रियों का कार्यस्थल पर यौन-शोषण रोका जाना चाहिए- तो मेरे ़ख्याल से त़करीबन सभी लोग हाँ में जवाब देंगे। सर्वेक्षण का दूसरा सवाल यह हो सकता है कि ऐसा यौन-शोषण रोकने के लिए कौन-सा तऱीका अपनाया जाना चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में तरह-तरह की राय सामने आएंगी। ऐसे ज़्यादातर सुझाव यौन-शोषण की घटना घटित हो जाने के बाद की जाने वाली शिकायत, उसकी जाँच और उस शिकायत के सही पाये जाने की सूरत में शोषणकारी पुरुष को सज़ा देने के संस्थागत बंदोबस्त की तऱफ इशारा करते हुए मिलेंगे। कार्यस्थल पर लैंगिक लोकतंत्र की स्थापना यह एक मानक विधि है जो कम या ज़्यादा सारी दुनिया में अपनायी जाती है। हर जगह कमेटियाँ हैं जो यह शिकायत सुनती हैं, दोनों पक्षों से सुनवाई करती हैं और फैसला देती हैं। जहाँ कमेटियाँ नहीं हैं वहाँ उन्हें गठित करने का दबाव हमेशा बना रहता है। अमरीका के बाद अब भारत के सोशल मीडिया पर चली ‘मी टू मुहिम’ ने बताया है कि यौन-शोषण रोकने का यह संस्थागत मैकेनिज़्म कितना अपर्याप्त है। वे तमाम स्त्रियाँ जो भारत की ‘मी टू कैम्पेन’ में सामने आ रही हैं, सामाजिक, सांस्कृतिक,-आर्थिक दबावों के कारण इस बंदोबस्त का इस्तेमाल करने से ़खुद को रोकती रही हैं। अर्थात् यह बंदोबस्त कार्यस्थल पर पुरुष की सत्ता के सामने असहाय खड़ी स्त्री के सशक्तिकरण का औज़ार नहीं बन पाया है। चूँकि ‘मी टू मुहिम’ का स्वरूप औचक (रेंडम) है, और इसके बाद होने वाली सामाजिक और पेशेवर लानत-मलामत का विन्यास क़ाफी-कुछ ‘मीडिया ट्रायल’ से मिलता-जुलता है, इसलिए इस मुहिम की आलोचनाएँ भी हो रही हैं। इन आलोचनाओं में आम तौर से दो आपत्तियां केंद्रीय हैं। पहली, इन औरतों ने उस समय शिकायत क्यों नहीं की, जब उनके साथ यौन-शोषण की घटना हुई थी? दूसरी, पहले तो स्त्रियाँ व्यावसायिक लाभ उठाने के लिए समझौते करती हैं, और फिर बाद में जब उस व्यावसायिक लाभ की उन्हें कोई ज़रूरत नहीं रह जाती या वह लाभ उन्हें मिलता नहीं दिखाई देता तो वे शिकायत करती हैं। ऐसी स्त्रियाँ मुख्य तौर पर म़ौकापरस्त हैं और उनकी इस शिकायतबाज़ी को मिलने वाली मीडिया-सुर्खियों से वास्तव में यौन-शोषित स्त्रियों पर से निगाह हट रही है। ज़ाहिर है कि नेक इरादे से की गई ये दोनों आपत्तियां आपस में जुड़ी हुई हैं। एक दूसरे को पुष्ट करती हैं। लेकिन मेरे विचार से इनमें एक बुनियादी भ्रांति अंतर्निहित है जिसे सामने लाया जाना ज़रूरी है। 
इस भ्रांति के केंद्र में है स्त्री का अपनी देह पर अधिकार का प्रश्न। इस सवाल पर ़कानूनी स्थिति और सामाजिक आग्रहों के बीच खाई है। ़कानून कहता है कि अगर स्त्री अपनी रोज़ी-रोटी चलाने के लिए अपनी देह का नियोजित इस्तेमाल भी करती है, तो वह  कानूनन कोई अपराध नहीं करती। उसका पूरा हक अपनी देह पर है। बस, यह करते समय सार्वजनिक स्थल पर किसी भी तरह की अश्लीलता नहीं फैलनी चाहिए। इस विधिसम्मत स्थिति को समाज चरित्रहीनता की श्रेणी में डालता है, और पारम्परिक संहिताओं के अनुसार स्त्री की देह और उसके इस्तेमाल की नैतिकताओं को विनियमित करना चाहता है। समाज कानून सम्मत तरीके से चलना चाहिए, स्त्री-देह पर सामाजिक नियंत्रण के पुराने विचारों के आधार पर नहीं। मेरा तर्क यह है कि जो स्त्रियाँ अपनी मज़र्ी से संबंध बनाती हैं (भले ही उसके पीछे प्रेम की भावना हो, या करियर आगे बढ़ाने की योजना) वह न तो यौन-शोषण की स्थिति में आता है और न ही वैसे प्रकरणों की कोई शिकायत की गई है। शिकायतों के पैटर्न पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है। प्रेम-संबंध के विफल होने या पुरुष द्वारा वायदे के मुताब़िक शादी न करने पर दर्ज की जाने वाली दुष्कर्म की शिकायत एक अलग श्रेणी का प्रकरण है, जो कार्यस्थल पर होने वाले यौन-शोषण के दायरे में नहीं आता। ‘मी टू मुहिम’ पर ़गौर करते समय हमें इन दोनों श्रेणियों का घालमेल नहीं करना चाहिए। कार्यस्थल एक सार्वजनिक और सामाजिक जगह है जहाँ आर्थिक उत्पादन होता है। वहाँ इंचार्ज या बॉस की स्थिति में होने वाले पुरुष के पास जीवन बनाने-बिगाड़ने का अधिकार होता है। पितृसत्ता जब इस अधिकार में जुड़ जाती है तो इससे एक राक्षसी शक्ति का निर्माण होता है जिसके म़ुकाबले स्त्री स्वयं को भयभीत और असहाय पाती है। कई मामलों में तुरंत शिकायत करना संभव नहीं होता।  प्रश्न यह है कि क्या ‘मी टू मुहिम’ से कार्यस्थल पर लैंगिक लोकतंत्र की स्थापना हो सकती है? इस प्रश्न का मेरा उत्तर है- नहीं। ऐसा लोकतंत्र केवल संस्थागत प्रयासों को अधिक कारगर और प्रभावी बना कर ही कायम किया जा सकता है। हाँ, ‘मी टू मुहिम’ ऐसा करने की ज़रूरत पर एक बेरहम प्रकाश ज़रूर डालती है। एक ऐसा प्रकाश जिससे आँखें चुराना अब इस पुरुष प्रधान समाज के लिए नामुमकिन होगा। 

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