नहीं मिले लघु और मध्यम निर्यातकों को अच्छे दिन

डॉलर के मुकाबले रुपये का मूल्य निरन्तर गिरता चला गया है। एक समय तो यह स्थिति भी आ गई थी, कि एक अमरीकी डॉलर 74 रुपए के बराबर विनिमय हो रहा था। अब अंतर्राष्ट्रीय मंडियों में कच्चे तेल और पैट्रोलियम पदार्थों की कीमतें गिरने के बाद भारत का कच्चे तेल का आयात बिल कम हो गया है। इसलिए डॉलर के मुकाबले रुपए का पतन रुका। बल्कि अब उसका विनिमय मूल्य बढ़ कर 70 रुपए तक आ गया। लेकिन कंगाली में आटा गीला की तरह इसका कोई लाभ लघु और मध्यम निर्यातकों को नहीं मिला। उन्होंने डॉलर के मुकाबले रुपए का मूल्य और गिर कर 74-76 रुपए हो जाने की प्रत्याशा में अपने अग्रिम निर्यात सौदे 75 रुपए पर कर लिए थे। अब रुपए का विनिमय मूल्य बढ़कर 70 रुपए प्रति डॉलर हो गया, तो उन्हें प्रति डॉलर चार रुपए का घाटा पड़ने लगा है। डॉलर के मुकाबले रुपए के मूल्य के निरन्तर गिरते चले जाने का सीधा प्रभाव विदेशियों के लिए सस्ते भारतीय निर्यात के रूप में होना चाहिए था। लेकिन भारत की विदेशी मंडियों में भारतीय उत्पादों की मांग बेलोचदार नहीं। हम अभी तक इतनी गुणवत्ता भी प्राप्त नहीं कर पाए कि हमारे उत्पादों की निर्यात की मांग बढ़ जाए। इसका कारण भारत में शोध अनुसंधान की कमी, एवं तकनीकी प्रगति का अभाव है। इसके साथ ही उचित प्रशिक्षण और उद्यम के अभाव में न तो हमारे देश की श्रम उत्पादकता दर और न ही पूंजी उत्पादकता दर बढ़ी है। इसीलिए हमारे देश की निर्यात वस्तुओं की लागत में भी कमी नहीं आई। केवल डॉलर के मुकाबले रुपए का आयात विदेशी आयातकों के लिए उत्साहजनक नहीं बना, और इसलिए भारत के निर्यातकों ने अपनी मांग को बढ़ते हुए नहीं पाया। अब लघु और मध्यम निर्यातकों की मांग है कि उन्हें डॉलर के मुकाबले रुपए के मूल्य की परिवर्तनशीलता के कारण रुपए में ही कारोबार की इजाज़त दे दी जाए। लेकिन क्योंकि सब देशों के साथ ऐसा व्यापार करने की इजाज़त इन्हें नहीं मिल सकती, इसलिए लघु और मध्यम दज़र्े के निर्यातकों के लिए अपना व्यापार बढ़ाना सहज नहीं रहा। दूसरी तरफ जहां तक अपने देश की आयात मांग का संबंध है। ये चाहे पूंजीगत वस्तुएं हों, कच्चा माल हो, या खाद्य पदार्थ, इन सबके लिए भारत की मांग बेलोचदार है। पैट्रोलियम पदार्थ ही नहीं, हमें अन्य सब वस्तुएं भी अनिवार्य रूप से मंगवानी पड़ती हैं। इससे हमारा आयात भुगतान निर्यात प्राप्ति से कहीं बढ़ जाता है। इसके कारण देश का व्यापार शेष ही नहीं, भुगतान शेष भी और प्रतिकूल हो जाता है। इसी कारण विदेशी मुद्रा के मुकाबले भारतीय रुपए का मूल्य और गिरने लगता है। अपनी इस शासन पारी के अंतिम वर्ष मोदी सरकार ने बैंकों को निर्देश दिए हैं कि लघु और मध्यम उद्यमियों को उदारता से ऋण दिए जाएं। इसके लिए बैंकों की तरलता बढ़ाने के लिए सरकार ने और धन आबंटन किया है और अब रिज़र्व बैंक के आरक्षित कोष से भी धन हस्तांतरण का प्रयास हो रहा है, लेकिन लघु और मध्यम निर्यातकों को यह शिकायत है कि चाहे सहकारी बैंक लघु और मध्यम निर्यातकों को उदारता से ऐसा ऋण प्रदान करने का कोलाहल बहुत करते हैं, लेकिन नौकरशाही और लालफीताशाही का मक्कड़जाल कुछ इस तरह ऋण प्रदाता मशीनरी को घेरे रहता है कि निर्यातकों को उन घोषणाओं का बहुत कम लाभ हो रहा है। इस प्रकार उनके लिए कार्य विस्तार की गुंजाइश नहीं बढ़ी। फिर इस वित्त को प्राप्त करने के रास्ते में बैंक लिमिट का नवीनीकरण आ जाता है। यह प्रक्रिया बेहद जटिल हो गई है। निर्यातकों को नई लिमिट की मंजूरी बैंकों से 6-8 महीनों में मिलती है। पांच-सात करोड़ रुपए की लिमिट के लिए उतनी ही ज़मानत देने के बावजूद बैंक आसानी से मंजूरी नहीं देते। छोटे निर्यातकों को बिना पहुंच फाइनांस नहीं मिलता, जबकि बड़े कज़र्दार बिना कठिनाई अपनी साख पर ही हज़ारों करोड़ रुपए का ऋण ले लेते हैं। फिर पैसा हथिया विदेश भाग जाते हैं। छोटे निर्यातकों से कई गुणा तक ज़मानत मांगने के समाचार हैं। उनके निवेदन पत्रों पर मंजूरी समयबद्ध सीमा में होनी चाहिए, परन्तु उसे लापरवाही से लटका दिया जाता है। जो बैंक सहयोग नहीं करते, उनकी शिकायत रिज़र्व बैंक के विशेष काऊंटर पर होनी चाहिए, जहां इनकी शिकायतों का त्वरित निपटारा हो लेकिन इस समय ऐसी कोई उचित शिकायत निवारण व्यवस्था नहीं बन पाई। बल्कि संबंधित उच्च बैंक अधिकारियों से छोटे निवेशकों का मिलना तक बहुत कठिन हो गया है, जबकि बड़े निवेशकों के लिए वे पलक पांवड़े बिछाये रहते हैं।  दुर्भाग्य से बैंकों से इन निर्यातकों को मिलने वाले फाइनांस में एक साल में पचास प्रतिशत की कमी आ गई है। अगर यह न आती तो निर्यात में 18 प्रतिशत तक वृद्धि हो सकती थी। दूसरी बड़ी दिक्कत ई.सी.जी.सी. के कलेमों में है। निर्यातकों को उनका यह क्लेम चुकाने में विलम्ब हो रहा है। चुकाने का फैसला करने वाले भी मात्र अधिकारीगण हैं। बेहतर होता कि इस प्रक्रिया में व्यापार प्रतिनिधि भी रहते, ताकि यह मशीनरी निर्यातकों के प्रति और हमदर्द हो सकती। इन सब विषमताओं को झेल-भोग रहे हैं, लघु और मध्यम निर्यातक। अच्छे दिनों  के तो ख्वाब भी उनके पास नहीं फटकते।