क्या है मंत्र साधना ?

साधना से हमारा तात्पर्य अपने भगवान और मन को पूरी तरह एकाग्रचित होकर एक लक्ष्य, एक दिशा और एक इष्ट पर केन्द्रित कर देना है। साधारण रूप से इष्ट वंदना, पूजा व ध्यान को हम साधना नहीं कह सकते हैं। एकाग्रता से लगातार ध्यान करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना ही साधना है।साधना कोई भी हो, कैसी भी हो, कड़ी मेहनत व लगन चाहती है। चाहे वह अभिनेता हो, व्यापारी हो, छात्र हो या कोई हो, सभी को लक्ष्य की प्राप्ति हेतु व उन्नति हेतु कठिन से कठिन परिश्रम करना पड़ता है। तभी लक्ष्य की प्राप्ति संभव है।किसी भी साधना के लिए या इष्ट साधना व ध्यान के लिए साधक में निम्न बातों का होना आवश्यक है-तन-मन से स्वच्छ होना, पथ-प्रदर्शक का निर्देशन होना, संकल्प शक्ति का होना, उद्देश्य का स्पष्ट होना व साधना के प्रति अटूट विश्वास होना।बिना संकल्प, अटूट विश्वास व लगन के साधना करना व्यर्थ है। यदि संकल्प नित्य साधना में करें तो उत्तम है। वैसे संकल्प के सम्पूर्ण साधना काल में मंत्र जपते समय मानसिक रूप से दोहराते रहें। जितना आप संकल्प के प्रति दृढ़ रहेंगे, उतनी ही जल्दी आपकी साधना सफल होगी। जिस प्रकार किसी राग का साधक धीरे-धीरे अपने अभ्यास से अपनी वाक् शक्ति को जगाकर राग की रमणीयता उत्पन्न करता है, उसी प्रकार मंत्र साधक को भी अनवरत प्रयास, अखंडित नियम, मंत्र जाप के लिए निश्चित समय को अपनाते हुए मंत्र को सिद्ध करना चाहिए यानी सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए। सिद्धि कोई चमत्कार नहीं है बल्कि यह साधक और मंत्र का ऐसा मिलन है जिसमें साधक और साध्य एकाकार हो जाते हैं यानी दोनों एक-दूसरे में लीन हो जाते हैं। विज्ञान के अनुसार ध्वनि से ऊर्जा तरंगें उत्पन्न होती हैं। शब्द भी एक ध्वनि है। शब्द अर्थयुक्त होने के बावजूद महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण तो ध्वनि या नाद ही है। नाद एक ऊर्जा है और इसमें फैलने की स्वाभाविक क्षमता है। मंत्र कुछ ऐसे ही नाद या ध्वनियों का समूह है, जिससे एक विशेष प्रकार की ऊर्जा प्रकट होती है। इस ऊर्जा का प्रभाव व्यक्तियों पर नहीं बल्कि वस्तुओं पर भी पड़ता है। यदि किसी कारणवश साधक इस मार्ग पर चलते हुए मंत्र सिद्ध नहीं कर पाता तो मृत्यु के पश्चात अगले जन्म में उसकी साधना यात्रा वहीं से प्रारम्भ होगी जहां उसने पिछले जन्म में छोड़ी थी। जब तक साधना पूर्ण नहीं हो जाती, साधक का यह क्रम जन्म जन्मांतर तक जारी रहता है। मंत्र साधना कोई आसान बात नहीं है। मंत्र की प्रकृति उसकी उपयोगिता और महत्त्व को समझे बिना लाभदायक नहीं होती, इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि मंत्र की दीक्षा किसी गुरु से लेनी चाहिए और उसी के दिर्नेशन में ही मंत्र साधना करनी चाहिए। हर मंत्र का अपना एक अलग वर्ण और विन्यास होता है इसलिए ज़रूरी नहीं कि साधक जिस मंत्र की चाहे साधना कर ले। इसी प्रकार साधक का इष्ट कौन है, मंत्र साधना काफी कुछ इस पर भी निर्भर करती है। यदि साधक कृष्ण भगवान का साधक है तो वह तंत्रशास्त्र के मंत्रों की साधना नहीं कर सकता। माला के बिना मंत्र साधना संभव नहीं है। सिद्ध साधक जो निरंतर जप करते हैं, उनके लिए उनका मन ही माला बन जाता है। उनके भीतर मंत्र जाप आठों पहर होता रहता है। सामान्य रूप से सभी भक्तों एवं साधकों को माला का प्रयोग करना चाहिए। माला का प्रयोग मंत्र साधना के लिए तो होता ही है, साथ ही मंत्र और माला के संयोग से एकाग्रता बनी रहती है और हमें ऊर्जा भी प्राप्त होती है। यदि साधक निश्छल भाव, सच्ची लगन व पूर्ण संयम के साथ अपने इष्ट में पूर्ण विश्वास एवं निष्ठा के साथ मंत्र साधना करता है तो इष्ट की कृपा से उसकी साधना सफल होती है। 

- राजीव अग्रवाल