लोकसभा चुनाव-2019 : कांग्रेस की चुनाव रणनीति क्या होगी ?

इस समय चुनावपूर्व रणनीतिक पेशबंदी पर गौर किया जाए तो क्या दिखाई पड़ता है? शरद पवार और ममता बनर्जी कांग्रेसी नेतृत्व को समझा-बुझा रहे हैं कि वह अपनी राज्य इकाइयों के स्वार्थों को नज़रअंदाज़ करके लोकसभा चुनाव जीतने पर केंद्रित करे। मसलन, दिल्ली की कांग्रेस इकाई को लगता है कि अगर उसने आम आदमी पार्टी के साथ गठजोड़ कर लिया तो विधानसभा चुनाव में उसका दोबारा उभरना और मुश्किल हो जाएगा। लेकिन, दूसरी तऱफ अगर कांग्रेस और आप का गठजोड़ न हुआ तो दिल्ली की सातों सीटें भाजपा को प्लेट पर रखी हुई मिल जाएंगी। इसी तरह उत्तर प्रदेश में गठबंधन से बाहर रह कर कांग्रेस भाजपा विरोधी वोटों के बंटने के अंदेशे को बढ़ावा देगी। पुलवामा के बाद एक बात जो निकल कर आती है, वह यह है कि भाजपा की चुनावी रणनीति अब स्थिरता पर पहुंच गई है। लेकिन, कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष की रणनीति अभी भी बनने के दौर में है। कांग्रेस अपनी चुनावी रणनीति में ऱाफेल विमान खरीद से जुड़े भ्रष्टाचार के इलज़ामों को केंद्रीय महत्त्व देना चाहती है। ठीक उसी तरह जैसे भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति में पुलवामा का बदला लेने के लिए बालाकोट पर किये गए हवाई हमले को महत्व दिया है। एक तरह से यह चुनाव इन दो रणनीतियों की टक्कर में बदल सकता है। अगर पटना के गांधी मैदान वाले नरेंद्र मोदी के भाषण को देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि वे एयर स्ट्राइक का इस्तेमाल कैसे करने वाले हैं। गांधी मैदान में पहले उन्होंने पुलवामा के संदर्भ में राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न को चुनावी पैंतरे की शैली में पेश किया, और फिर उसके बाद पांच साल में शुरू की गई अपनी योजनाओं और उनकी सफलता की दावेदारियों को गिनाने लगे। ज़ाहिर है कि पुलवामा से पहले के उनके भाषणों की सामग्री के शीर्ष पर अब एयर स्ट्राइक आ गई है, और बाकी भाषण वैसा ही है। इससे मतलब निकलता है कि जिस जज़्बाती मुद्दे की तलाश भाजपा को थी, वह मोदी को मिल गया है। राम मंदिर पर कानून बनाने की मांग करके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसा ही एक जज़्बाती मुद्दा को मोदी को थमाना चाहता था, जिसे थामने से उन्होंने इंकार कर दिया था। लेकिन, अब वे वोटरों को राष्ट्रीय सुरक्षा की रूमाली रोटी में लपेट कर विकास का रोल खिलाना चाहते हैं। राहुल गांधी की कोशिश इसी तज़र् पर ऱाफेल ़खरीदे के विवाद को मोदी सरकार के कामकाज की अपनी आलोचना के शीर्ष पर रखने की है। इसके ज़रिये वे दिखाना चाहते हैं कि मोदी कार्यकाल न स़िर्फ झूठे वायदों का रहा है, बल्कि उसके भीतर ऱाफेल के सौदे के ज़रिये तीस हज़ार करोड़ की चोरी भी हुई है। प्रश्न यह है कि जिस तरह से बालाकोट की एयर स्ट्राइक लोकप्रिय ढंग से मोदी की मदद कर रही है, क्या उस तरह से ऱाफेल खरीद का विवाद राहुल गांधी और विपक्ष की मदद करेगा? इस प्रश्न का बहुत स्पष्ट उत्तर तो अभी नहीं दिया जा सकता, लेकिन कुछ अंदाज़े अवश्य लगाए जा सकते हैं। मसलन, जब सुप्रीम कोर्ट में एटॉर्नी जनरल ने कहा कि रक्षा मंत्रालय से ऱाफेल सौदे की कुछ फाइलें लीक हो गई हैं तो ज़बरदस्त विवाद पैदा हुआ। देखते ही देखते चैनलों पर बहस होने लगी कि क्या कोर्ट को राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े इस तरह के मामलों की समीक्षा करने के चक्कर में फंसना चाहिए। जैसा कि होता है कि एक फटाफट सर्वेक्षण भी किया गया। दिलचस्प बात यह है कि बहस की शुरुआत में कोर्ट द्वारा समीक्षा का समर्थन करने का समर्थन करने वालों की संख्या केवल बीस ़फीसदी के आसपास ही थी। लेकिन जैसे-जैसे बहस आगे बढ़ी, उनकी संख्या बढ़ने लगी और आखिर में 38 फीसदी लोग इसका समर्थन करते पाये गए। इसमें कोई शक नहीं कि 62 ़फीसदी लोग फिर भी ऱाफेल के मुद्दे में ऐसी कोई बात देखने के लिये तैयार नहीं थे जिस पर उनकी निगाह में अदालत को ध्यान देना चाहिए। ज़ाहिर है कि 62 और 38 में क़ाफी अंतर है, लेकिन क्या 38 का यह अंक भाजपा और मोदी के प्रशंसकों के लिए चिंताजनक नहीं प्रतीत होता। ़खास तौर से तब जब यह आंकड़ा अभी स्थिर न हुआ हो, और इसमें मसले के तूल पकड़ने के साथ-साथ धीरे-धीरे ही सही, लेकिन वृद्धि हो रही हो। अगर यह आंकड़ा अगले एक महीने में सात-आठ ़फीसदी और बढ़ा, तो निश्चित रूप से यह भाजपा के खाते से एक से दो फीसदी वोट छीन सकता है। इसी मुकाम पर यह भी समझने की ज़रूरत है कि पुलवामा और बालाकोट की चुनावी दृष्टि से लाभदायक प्रतीत हो रही घटनाओं ने ठोस रूप से भाजपा को क्या दिया है? कोई भी रणनीति दो स्तरों पर काम करती है। पहली देखने की बात तो यह होती है कि क्या किसी रणनीति से पार्टी के पास पहले से मौजूद समर्थन और सुदृढ़ हो रहा है या नहीं। यानी वह रणनीति वोट छिनने के अंदेशों को निष्प्रभावी कर रही या नहीं। दूसरी देखने की बात यह होती है कि क्या किसी रणनीति में किसी नये समर्थन आधार को पार्टी के खाते में जोड़ने की क्षमता है या नहीं। यानी क्या वह रणनीति कुछ नये वोट ला सकता है या नहीं। पुलवामा से पहले भाजपा की सारी कोशिश यह थी कि जो समर्थन उसके पास 2014 में था, उसे कायम कैसे रखा जाए। चाहे ऊंची जातियों को दस फीसदी आरक्षण देने का फैसला हो, या किसानों को हर तीन महीने में पांच सौ रूपये देने का वायदा हो, या पांच लाख की आमदनी तक के मध्यवर्गीय करदाताओं को टैक्स राहत देने की बात हो- ये सभी कदम पहले से मौजूद समर्थन आधार को आश्वस्त करने के लिए उठाए गए थे। लेकिन, पुलवामा के बाद भाजपा को उम्मीद है कि इससे कुछ नया समर्थन भी उसकी तऱफ आकर्षित होगा। जैसा कि हम जानते हैं कि सारे देश में भाजपा को 31 फीसदी और अपने प्रभाव-क्षेत्र में कोई 38 फीसदी वोट मिले थे। अगर भाजपा अपने प्रभाव-क्षेत्र में बिना पिछले वोटों को खोये कुछ और वोट जोड़ सकती है, तो उसे राज्यों के स्तर पर विपक्षी एकता का सामना करने में आसानी होगी। पुलवामा से भाजपा को यही उम्मीद है। पुलवामा दो से तीन फीसदी क्रलोटिंग वोटों को भाजपा के खाते में जोड़ने की भूमिका अदा कर सकता है। मोदी के कामकाज की आलोचना और ऱाफेल को मिलाने के बाद कांग्रेस उसके साथ और क्या जोड़ने की स्थिति में है? इस लिहाज़ से देखें तो कांग्रेस के पास पहले से ही गठजोड़ राजनीति का शक्तिशाली फार्मूला है। पुलवामा के बाद उसे चेतना आई है कि उसे गठजोड़ों का और विस्तार करना चाहिए। इस मामले में वह चाहे तो भाजपा से कुछ सबक भी सीख सकती है। भाजपा ने बिहार और महाराष्ट्र में जिस तरह झुक कर और थोड़ा घाटा उठा कर गठजोड़ किये हैं, वे उसकी कमज़ोरी न हो कर उसकी रणनीतिक कुशलता के द्योतक हैं। अगर कांग्रेस दिल्ली और उत्तर प्रदेश में इसी तरह का रवैया अपना ले, और क्रमश: आम आदमी पार्टी व सपा-बसपा-रालोद गठजोड़ के साथ मिल जाए तो वह भाजपा विरोधी वोटों की गोलबंदी को कहीं ज़्यादा खूबी से अंजाम दे सकती है।