तरक्की की बूढ़ी करवट

जब से इस देश के लोगों की औसत उम्र में वृद्धि हो गई है, उनके नाते-रिश्तेदारों, शुभचिंतकों और अपनों द्वारा उनकी मौत का इंतज़ार बढ़ गया है। एक ओर राजनीति और समाज से मान-प्रतिष्ठा और धन की सीढ़ियां चढ़ने के लिए वंशवाद को एक अपरिहार्य कर्म माना जाने लगा है, और दूसरी ओर अपनी वंशावलि भुनाने के बाद उनका वंश, या पोता, भाई या शिष्य जब सफलता की सीढ़ी चढ़ जाता है, तो जिसके कंधों का सहारा लेकर वह ऊपर चढ़ा, उसी को फालतू सामान समझ कर किसी वृद्धाश्रम या बनवास पर भेजने के लिए उतारू हो जाता है। जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं समातीं, उसी तरह बाप के जूतों में तो बेटा आराम से पांव धर कर चल देता है, लेकिन वह दिन गये, जब पुत्र छोड़ो, छोटा भाई भरत राम की चरण-पादुकाएं उठा कर अयोध्या ले आया था, और चौदह बरस उन्हें सिंहासन पर रख कर शासन किया था। 
आजकल तो नीयतें बदल गई हैं। बाप बेटे को कुर्सी दिला कर परलोक का राह पकड़े तो बेटा उसे किंवदंति बना देगा। उनको मूर्ति बना उनके वोटरों को उनकी आराधना के लिए व्याकुल कर राजनीति या समाज में अपनी ज़मीन पक्की करेगा, लेकिन अगर कहीं बाबा जान से उम्र विदा नहीं लेती, और वह मूर्ति तो क्या, बेटे की राजनीति की कठपुतली बनने से भी इन्कार कर देते हैं तो बस यह उनके लिए अपने भाग्य में कील ठोंकने जैसी बात होगी। 
बूढ़ा भी अभी बनी नई अवसरवादिता की परम्परा के अनुसार वंशज को रास्ता देकर अपनी कुर्सी को सुरक्षित रखने का उपाय करता है, तो समझ लीजिये मतिभ्रम से लेकर दंगा फसाद तक का वातावरण पैदा हो गया। वंशज पहले तो बड़े बूढ़े को ‘दिमाग चल जाने’ से लेकर ‘दिमाग हिल जाने’ के आरोपों से आभूषित करेगा। अगर तब भी बात न बने तो उनका ठिकाना किसी मनो चिकित्सालय में बना देगा। ये सब दांव न चले तो उनके ‘चूक जाने’, उनके ‘पुराने युग के बीत जाने,’ और अपने साथ नये युग के अवतरित होने का तर्क तो उसके पास है ही। हां, इस चिकित्सा विकास की प्रगति को भी बददुआएं साथ-साथ चलती रहेंगी, कि जिसने बूढ़ों की औसत उम्र में वृद्धि कर दी और अब वह अपनी कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार नहीं। हां, उनके साथ वंशज की छोटी कुर्सियां लग जाएं तो उन्हें एतराज़ नहीं, परन्तु एक ही दल में पूरे वंश के घुस आने का भेड़िया धसान क्यों? राजनीति के चतुर सुजान उन्हें सुझाते हैं, कि भई लोकतंत्र का ज़माना है। बूढ़ा अगर अभी तक अपनी कुर्सी पर जमे रहना चाहता है, तो वंशज अलग-अलग दलों में चले जायें। 
लोकतंत्र का युग है और वोटर ही प्रशासन का मालिक है, इसलिए अगर उसने एक दल के शासन के निकम्मेपन से व्यथित हो सरकार बदल भी दी, तो उसके वंशज तो अब विरोधी पार्टी भी संभाल रहे हैं। लीजिये शासन बदलेगा नई पार्टी चली आएगी, लेकिन बन्धु रामनाथ गया तो शामनाथ चला आएगा। आया राम गया तो गया राम सत्ता संभाल लेगा। वहां भी तो अपने ही आदमी वही तासीर लिए बैठे हैं। जनता को वही अच्छे दिन लाने का वचन देकर तोड़ने की तासीर, वही अकर्मण्यता का रिवाज़, वही भ्रष्टाचार और नौकरशाही का तिलिस्म जिसमेें भटकते हुए आम आदमी ने अपनी भटकन का अमृत महोत्सव मना लिया।
अरे, औसत उम्र क्या बढ़ी, बूढ़े और जवान एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो गये। राजनीति में नया खून या उद्दाम उत्साह लाने का वचन दे कर अपने युवा वंशज आगे किये थे। हमेशा उनका गये बीते युग की विभूतियों से निकट का रिश्ता ही हो, आवश्यक नहीं है। लेकिन फिर भी उनके दावों, घोषणाओं और खोखले विजयनाद के पीछे जानी-पहचानी राजनीतिक शतरंज क्यों नज़र आती है? टोपियां बदल गयीं, चेहरे बदल गये, लेकिन आवाज़ एक जैसी क्यों है? वही अपने आपको नये युग का मसीहा घोषित करते हुए पुराने बोसीदा युग को ठुकरा देने की आवाज़। अब ज़िन्दा रहने की तमन्ना रखने वाले बड़े बूढ़े नैतिकता और मर्यादा की बात करते हैं। घोर कलियुग में सतयुग उतार लाने की बात करते हैं।  लगता है यह रस्साकशी पुरानी है, अब फिर से जी उठी, क्योंकि राजनीति के बड़े बूढ़ों की उम्र बढ़ गई और वे बनवास लेने के लिए तैयार नहीं। तो फिर बनवास लेने में इतने बरसों से कौन बैठे हैं, वही भूख और प्यास में मारी हुई जनता जिनकी संख्या इधर और बढ़ गई, और उनके परिवार नियोजन की नई योजनाएं भी धराशायी हो गईं।