नये शहज़ादों और शहन्शाहों की दुनिया

आज के शहज़ादों और शहन्शाह की परिभाषा बदल गई है। आज शहन्शाह वह जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही कुर्सी पर अधिकार जमा कर बैठा रहे। पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस लिये कहा, क्योंकि चुनावी पारी -दर-पारी तो किसी देश पर शासन करना उसका जन्म सिद्ध अधिकार है। उसका कोई विकल्प नहीं। वह लोगों को बहुत पहले बता चुका है। अब अपनी अगली पीढ़ियों की भी तो उसे खबर लेनी है। शुरू में सत्ता सम्भालते हुए उसने परिवारवाद के विरुद्ध नारे अवश्य लगाये थे, लेकिन सत्ता सम्भालते ही ये नारे ठण्डे बस्ते में चले जाते हैं, और समय की नयी अपेक्षाओं के अनुसार नये नारे गढ़ लिये जाते हैं। अपनी भूख-प्यास मिटाने के लिये उसके नित्य नारों पर जीती है, यह दुनिया। नारों का तेवर बदलता रहना चाहिए। जब कहा जाये कि इस देश में परिवारवाद को नहीं चलने दिया जाएगा, तो मत समझना कि यह केवल उसका नारा है, जिसका कोई परिवार नहीं। यह भी तो हो सकता है उसके नाती-पोते पहले से ही सब मलाईदार आसनों पर बैठे हों। अब जब कोई बचा ही नहीं, तो विरोधियों के परिवारवाद के खात्मे का बिगुल अधिक तेज़ी से बजाया जा सकता है।
वैसे भ्रष्टाचार के खात्मे की कसम तो हर सत्तारूढ़ दल खाता है। यह एक बहुत सुविधाजनक कसम है। इसको खा लेने के बाद उन्हें दूसरों के अतीत में झांकने का लाइसेंस मिल जाता है। बेशक भ्रष्टाचार का अर्थ यहां गुज़रे ज़माने का भ्रष्टाचार होता है। वे जिनसे आपने आज कुर्सी छीन ली है, वही हैं आज तक हुए इस ज़माने के अन्याय के गुनाहगार। इन्होंने ही आज तक किसी के पल्ले कुछ नहीं पड़ने दिया। अब इन्हें सीखचों के अन्दर करो। इस देश का रिवाज़ निराला है? अपराधी को हिरासत में लेने के बाद उसका अपराध साबित करने के लिए जांच-पड़ताल या अपराध साबित करने की प्रक्रिया शुरू होती है। राजशाही के खत्म होने के बाद आज की जांच-पड़ताल के तेवर शुरू करने के अन्दाज़ शाहाना हैं। इसीलिए नयी राज्यशाही के शहन्शाह सब काम खरामा-खरामा करते हैं।
और इस बीच भी नये महलों में बैठ गये लोग अपनी मुफलिसी का रोना रोना नहीं भूलते। अपने आपको निराश्रित बताते हुए उन्हें अजब शान्ति मिलती है। चुनाव आयोग के सामने अपनी सम्पदा का ब्यौरा प्रस्तुत करते हैं तो न जाने क्यों अरबों के इस व्योरे के साथ यह अवश्य लिखा रहता है कि उनके पास तो अपनी कोई निजी गाड़ी भी नहीं है। देश की वाहन क्रांति पर शक होने लगता है, और उन उपभोक्ता रिपोर्टों पर भी कि आजकल तो लोग कज़र्ा लेकर भी बड़ी से बड़ी गाड़ी खरीदना चाहते हैं। और यहां यह एक दूसरे को शहज़ादा या शहन्शाह कहने वाले लोगों के पास अपने चलने के लिए एक गाड़ी भी नहीं। या यूं कह लो कि देश के इन नये राजाओं के समक्ष चाटुकार संस्कृति इतनी प्रबल हो गई है कि उनके एक इशारे पर एक नहीं, दस गाड़ियां हाज़िर हो जाती हैं। फिर भला उन्हें अपना वाहन खरीदने की ज़रूरत ही क्या है? कुछ हद तक यह सही भी लगता है, क्योंकि जब-जब भ्रष्टाचार निरोधी दस्ते काला अथवा रिश्वत का धन निकालने के लिए इनके ठिकानों पर छापे मारते हैं, तो वहां से एक छदाम भी हाथ नहीं आता। भ्रष्टाचार का फर्द जुर्म दायर होने पर उनका बचाव भी इसी तर्क से दिया जाता है, कि जनाब इनके यहां से तो एक नया पैसा भी काले धन का बरामद नहीं हुआ। फिर केवल इनकी मंशा बता कर तो इनका गुनाह साबित नहीं किया जा सकता।
गुनाह साबित नहीं होता, और इनकी तारीख पर तारीख पड़ती चली जाती है। फिर जब इनकी जमानत मंज़ूर हो जाती है, तो वे यूं पुन: जनता की सेवा में हाज़िर हो जाते हैं, कि जैसे जंग जीत कर आये हों। उन पर आरोप का फैसला हुआ नहीं, अभियोग अभी खारिज नहीं हुए, मुकद्दमे की सुनवायी अभी चल रही है, फैसला अभी होना है, लेकिन वे जनता के बीच शहीद की मुद्रा में चले आये। हाथ जोड़ कर फिर अपने आपको जन-सेवा के लिए हाज़िर कर देते हैं। फिर पूरे उत्साह के साथ चुनाव लड़े जाते हैं, जीते या हारे जाते हैं। देश की संसद या विधानसभाएं इन आरोपित और द़ागी प्रतिनिधियों से भरती जा रही हैं। जो जगह बच जाती है, उस पर करोड़पति उम्मीदवारों का कब्ज़ा हो रहा है, जो जल्द से जल्द खरबपति होकर देश की आर्थिक विकास दर को दुनिया में नम्बर वन पर ले आना चाहते हैं।
अरे महामारी आ जाये, भूकम्प से धरती कांप उठे, या दुनिया के किसी कोने में न खत्म होने वाली जंग छिड़ जाये, पिसेगा तो वही जो सदियों से फुटपाथ की विरासत झेल रहा है। वह हमेशा साबित कर रहा है, कि नेता के बेटा नया नवाब, और ़गरीब का फटीचर होता है। 
नये आंकड़े आ गये हैं, कि हर महामारी के बाद अपने देश में खरबपतियों की संख्या बढ़ गई है। आर्थिक तरक्की दर के गले में बांहें डाल कर गरीब पल रहे हैं, जिनकी बढ़ती जनसंख्या धन सम्पदा के स्वामित्व का उपहार सजा कर मुट्ठी भर धनियों को भेंट कर रही है। ये अपने आपको वंचित और आरक्षण के तलबगार और विरोधियों को शहज़ादा या शहन्शाह बताते हैं। लगता है मुफलिसी के ये शहज़ादे सदियों की असमता को गले लगाते हुए अपनी राष्ट्रीयता पर गर्व कर रहे हैं, और उस लोकतंत्र पर भी जिसने यह अवसर तो दिया कि अगर कोई गरीब भी चाहे तो इस देश के शासन की कुर्सी सम्भाल सकता है। गर्व करने में पैसे तो नहीं खर्च होते, बन्धु।