चुनाव प्रचार में तेज़ हुआ विदेश नीति का शोर

देश के चुनाव में परदेश आ ही जाता है। विधानसभा के चुनाव हों या आम चुनाव, पकिस्तान भारतीय चुनावों का स्थायी मुद्दा है। इस बार भी परमाणु बम और गुलाम कश्मीर या पीओके के रूप में उसने प्रवेश कर लिया है। पर बड़ी बात यह कि अब की बार इन पडोसी देशों के अलावा चुनाव में समग्र विदेश नीति भी एक मुद्दा है। प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि 140 करोड़ की आबादी वाले देश को वैश्तिक नीति-निर्णयों से कैसे अलग रखा जा सकता है? भाजपा द्वारा यह बात तो पूरी ताकत के साथ प्रचारित की जा रही है कि संसार भर में भारत का जो डंका बज रहा है, वह प्रधानमंत्री के प्रताप और सरकार की विदेश नीति के प्रभाव का परिणाम है। बेशक बहुत से मतदाता इस बात से प्रभावित हुये हैं। अपने देश में जहां बेरोज़गारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार जैसे तमाम ज्वलंत मुद्दे बहुत प्रभावी नहीं है, वहां विदेश नीति की क्या बिसात। चुनावी विशेषज्ञों का मत है कि यह मुद्दा मतदाताओं को प्रभावित कर पक्ष-विपक्ष के मत प्रतिशत को कुछ प्रभावित करेगा ऐसी संभावना न के बराबर होती है।  विदेश नीति के मसले पर वोट करेंगे, संभावना कम है।
सच है, चुनाव की जीत या हार के प्रमुख कारकों में विदेश नीति कभी भी निर्णायक भूमिका नहीं निभाती लेकिन यह भी मिथ्या धारणा है कि चुनाव जीतने या हारने में विदेश नीति बिल्कुल ही अप्रासंगिक होती है। यदि प्रभावी मीडिया प्रबंधन मौजूद हो तो किसी छोटे अंतर्राष्ट्रीय विवाद या संघर्षों को बहुत बड़े संकट के रूप में पेश किया जा सकता और ज़ाहिर है उससे बहुसंख्य मतदाता प्रभावित होंगे। सूक्ष्मता से विचार करें तो भाजपा ने पिछला आम चुनाव विदेश नीति के बल पर ही जीता। पुलवामा और उसके इर्दगिर्द के क्रियाकलाप को आप क्या कहेंगे? पाकिस्तान के विरुद्ध सरकार की नीति ने ही उसे दोबारा सत्ता दिलाने में बहुत मदद की। भाजपा ने पिछली बार अपने संकल्प पत्र में इसे प्रमुखता दिया था और मौजूदा चुनावों में वह इस बात का ज़िक्र भी कर रही है कि उसने इस क्षेत्र में किये अपने पुराने वादे पूरे किये हैं। चुनाव में यदि एक पार्टी किसी मुद्दे को उठाए तो दूसरी पार्टी का यह चुनावी दायित्व बन जाता है कि वह भी उसे सामने लाने में पीछे न दिखे। सो प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने भी अपने घोषणा पत्र में विदेश नीति को प्रमुखता से जगह दी है। चुनावी प्रक्रिया प्रारंभ होने के साथ कुछ ऐसी वैश्विक घटनाएं सामने आयीं कि पक्ष और विपक्ष दोनों को इस चुनाव में विदेश नीति को चुनावी प्रचार का एक मुद्दा बनाना पड़ा है। वह पीओके में संयुक्त अवामी एक्शन कमेटी का लांग मार्च हो अथवा मालदीव के चुनावी नतीजे, नेपाल का अपने नोट पर भारतीय क्षेत्र को दर्शाना अथवा कनाडा से तनातनी।   
भारत समेत विश्व के लगभग 57 देशों में चुनाव होने हैं। सभी देशों में सत्ता और नेता का बदलाव देखने को मिलेगा और तदनुरूप उनकी विदेश नीतियों में भी। संसार के कतिपय हिस्से में टकराव और तनाव वाले मौजूदा दौर में भारत की विश्व राजनीति में बढ़ती भूमिका और आकांक्षा को देखते हुए हालिया चुनाव में अपनी विदेश नीति की चर्चा पहले से ज्यादा होना स्वभाविक है। भारत के आम चुनावों के बाद जो भी सरकार आये, उसे इन नयी भू-राजनीतिक स्थितियों और विश्व राजनीति के बरक्स अपनी विदेश नीति को निर्मित व लागू करना होगा। उथल-पुथल से गुजर रही दुनिया में भारत वैकल्पिक नेतृत्व के लिए प्रयास में लगा है, जहां इस संदर्भ में विदेश नीति की समीक्षा अवश्यक हो जाती है, वहीं चुनावी परिदृश्य के मद्देनज़र भी इसकी ज़रूरत है क्योंकि विदेश नीति चीन, पाकिस्तान, राष्ट्रनीति, राष्ट्रवाद का रूप धारणम कर चुनावों में महत्वपूर्ण और गेमचेंजर की भूमिका निभाने लगी है। घोषणाओं के मामले में भाजपा का पलड़ा भारी है, राष्ट्रवादी विचारधारा और इस दिशा में कुछ ठोस काम उसे बढ़त दिलाती है। 
जहां भाजपा भरोसेमंद पड़ोसी की भूमिका में ‘नेबरहुड फर्स्ट’ की नीति पर कायम रहने की बात कहती है, वहीं कांग्रेस भी भूटान से लेकर बांग्लादेश और श्रीलंका के साथ संबंधों में नई ताज़गी लाने का वादा कर रही है। उसने वैश्विक सक्रियता को लेकर विभिन्न देशों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और रणनीतिक स्वायत्तता को सम्मान देने तथा द्विपक्षीय साझेदारी को बढ़ाने की बात कही है। चीन और पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्ते कैसे होंगे, इस बारे में भाजपा के संकल्प-पत्र में भले ही कोई साफ  रूप रेखा नहीं दी गई हो, परन्तु वह ऐसी भूमिका बनाने में सफल रही है कि वह दोनों देशों से निपट सकती है। दोनों दलों की भाषा में अंतर है, परन्तु बातें एक ही हैं। हां, वैचारिकता में किंचित भेद है। पाकिस्तान के साथ कांग्रेस संवाद आधारित नरम दृष्टिकोण की बात करती है, तो भाजपा आक्रामक रुख दिखाती है। उसकी यह आक्रामकता आम मतदाता को अधिक प्रभावित करती है। आम मतदाता के मन में सफल विदेश नीति का मतलब विदेशों में देश का इकबाल बुलंद होना, रसूख बढ़ना, पड़ोसी देश चीन और पाकिस्तान पर दबदबा बनाये रखने तक सीमित है। 
 फिलवक्त गुलाम कश्मीर के मुद्दे ने आम चुनाव में जगह बना ली है। मतदान के अगले तीन चरणों में यह मुद्दा बहुत अहम रहने वाला है और बेशक भाजपा के पक्ष में प्रभाव डालने वाला भी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ-साथ गृहमंत्री अमित शाह, विदेश मंत्री एस जयशंकर, हिमंता बिश्व सरमा जैसे कई स्टार प्रचारकों अपने भाषणों में अब दमदार तरीके से इस मुद्दे का ज़िक्र छेड़ दिया है ताकि यह जनमानस में चर्चा का केंद्र बने।
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