हाल-चाल ठीक-ठाक है
एक पुरानी कहावत फिर गलत हो गई। रोज़ भाषा को मरता हुआ देखते हैं। उसमें लिखी पुस्तकों और ग्रन्थों को किंडल और पी.डी.एफ. तक सिमटता देखते हैं। इसलिए भाषा को भाषा शास्त्रियों ने मार दिया। वे पुरातनता के नियमों से दुरुस्त ऐसी भाषा लिखने की वकालत करने लगे जिसे कोई न समझता है, न पढ़ता है। जन-भाषा और लोक-भाषा की वकालत क्या करें? उनका उपयोग तो वे करेंगे जो अहम शिक्षा प्रणाली की देन हैं, जिन्हें डिग्रीधारियों को भाषा की वर्णमाला भी याद नहीं। ऐसी भाषा लोक-भाषा के नाम पर चल निकली जिसमें शिष्ट व्यक्ति अपने आपको बाज़ार में खड़ा महसूस करते हैं।
पुस्तक संस्कृति के मरने की बात आप करते हैं? क्या यह उस दिन ही समाप्त नहीं हो गई थी, जब प्रकाशकों ने अपने पुस्तक गोदामों को पी.डी.एफ. की सुविधा में समेट कर उन्हें बंद कर दिया था। अब पुस्तक संस्कृति की जगह आर्डर संस्कृति ने ले ली है। जितनी पुस्तकों का आर्डर मिले, उतनी किताबें छाप लो। बाकी पुस्तकों को मसौदा तो कम्प्यूटर में सिमटा ही है।
ग्रन्थ लिख कर, कलाकृतियां रच कर या अमर संगीत की रचना करके आज चिरजीवी होने की चाह किसी को नहीं। क्षणवाद का ज़माना आ गया। बस यही क्षण है, इसे जी लो। इसे पुराने ज़माने में अस्तित्ववाद कहा जाता था, लेकिन किसी क्षण को विस्तार दे मुक्ति की चाह किसी को नहीं।
उत्तर अस्तित्ववाद चला था, लेकिन अब चन्द किताबों में सिमट गया। इसे विस्तार देने की बातें योग और ध्यान के रूप में अवश्त हुईं, लेकिन जब पता चला कि यह भी बिकता है, तो इसकी गहराई में जाने की इच्छा किसी को नहीं। आज हर वस्तु बाज़ार में बिकने लगी है। इसके भी एक से एक गुरु कुकरमुत्तों की तरह उभर आये, जो आजकल इसकी सेल लगा कर दुनिया में बेचते हैं और इसे हर मज़र् की अचूक दवा बता देते हैं। न्यायपालिका अगर इनके थोथे दावों का पर्दाफाश करके सच सामने ला क्षमा मांगने के लिए कहे, तो ऐसी क्षमा मांगते हैं कि वह भी इसका प्रचार बन जाती है। मियां सुना तो है, बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा।
हम कहावतों और भाषा के मरने की बात कह रहे थे। अमर उपन्यासकार यशपाल ने कभी विभाजन की त्रासदी पर एक उपन्यास लिखा था ‘झूठा सच’। आज कदम-कदम पर जाति विभाजन ने ऐसा कट्टर मतभेद पैदा कर दिया कि वह ज़िन्दा होते तो कह देते, नहीं, अब लिखना है, ‘सच्चा झूठ’। हां बन्धु, जो कल सच था, वह अब झूठ हो गया, और कल का झूठ आज सच बन कर तश्तरी भर मैडल या अभिनंदन प्राप्त कर रहा है।
मैडल या अभिनंदन प्राप्त करना ही आज इस नये युग का सच बन गया। अगर और कोई नहीं देता, तो स्वयं अपने आप को पुरस्कृत कर लो। अब तो ऐसे धंधेबाज़ पैदा हो गये, जो डिस्काऊंट लगा रियायती दरों पर मजमा जमा आपका अभिनंदन कर देते हैं। इसके बाद इसकी खबर छपवाने की दौड़ लगती है। ई-अखबारों ने यह समस्या भी सुलझा दी। वहां ़खबर आसानी से लग जाती है, और फेसबुक पर छप कर उतना ही प्रभाव छोड़ती है।
पुरानी कहावत थी, ‘जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ। मैं बऊरी डूबन डरी रही किनारे बैठ।’ अब गहरे पानी कौन डूबने का कष्ट उठाये? छिछले पानी में उथले नारे स्थापना का संक्षिप्त मार्ग बन गए हैं।
मार्ग-दर्शक रूप बदल कर नेता हो गये, और इनके समर्थकों ने माफिया गैंगों को बेरोज़गार कर दिया है। त्याग और बलिदान बीते कल की बाते हैं। आज का युग सत्य है, लोकप्रिय नेता वह जो लोगों का हर गलत काम सही करवाये। देश में संक्षिप्त मार्ग संस्कृति का परिणाम ‘सब चलता है’ के रूप में पैदा हो गया है। अन्तर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण बताते हैं कि हम तो सम्पर्क संस्कृति से ही अपना काम चला रहे हैं, और इसका पालन-पोषण फाइलों के नीचे चांदी का पहिया लगा कर करते हैं। जितना बड़ा पहिया, उतनी तेज़ भागे आपकी फाइल। और यूं दावा करना आसान हो जाता है, कि हमने नौकरशाही और लालफीताशाही की नाक में नकेल डाल दी।
हम नाम बदलने में माहिर हो गये हैं। नकेल का नाम बदल हमने सुविधा केन्द्र रख दिया है। हर शहर में न जाने कितने सुविधा केन्द्र हमने खोल दिये, जो हर स्थान पर असुविधा केन्द्र बन गए हैं, और दलाल संस्कृति की चाबुक से चलते हैं।
वैसे हम से पूछो तो हम यही कहेंगे कि हाल-चाल ठीक ठाक है। देश दुनिया में सबसे तेज़ गति से प्रगति कर रहा है। अभी हम दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति से चौथी बन गए हैं, और जल्द ही तीसरी बड़ी शक्ति बन जाएंगे। हम फुटपाथ पर खड़े रह कर नित्य नई मंज़िल उठाती धनियों की इमारतों को देखते हैं, और सोचते हैं, बात तो ठीक है।