हाल-चाल ठीक-ठाक है

आजकल ऐसे फोन आने लगे हैं कि आप ठीक-ठाक हैं न, तन्दुरुस्त। रात को नींद सही आ जाती है। चिन्ता के मारे भूख तो नहीं मरी। अब ऐसी बातों का क्या जवाब दें? पूछने वाले ने जो पूछा, उसका निहित अर्थ तो यही था कि बरखुरदार महामारी के इस झांझावात में तुम्हारी जान सही सलामत है न। बेवजह नज़ला, खांसी, जुकाम तो नहीं। ऐसा बुखार तो नहीं हो गया, जो तुम्हारे इस घिसे-पिटे शरीर में घर बना कर बैठा है और अब जाने का नाम ही नहीं लेता। अब क्या जवाब दें? उनके पूछे गये किसी लक्षण पर हां से सिर हिला दें, तो जानते हैं उन्हें अपनी विज्ञता के प्रति आत्मतोष होगा। फिर उनकी बात इसी जाने-पहचाने रास्ते पर चल निकलेगी।
पहले हमारे शरीर की हालत पर हमदर्दी प्रकट करते हुए उसके कुछ और लक्षण बता साबित किया जाएगा कि वाकयी हम महामारी का शिकार  हो गए। यह हमारा सौभाग्य है कि हमें उनके जैसा इस विषय का पारंगत जानकार मिल गया। अब इससे बच निकलने का मौलिक  रास्ता बताने से पहले यह अपनी पीठ थपथपा लेना चाहते हैं, कि उन्हें तो पहले ही शक था कि हम इस रोग की पकड़ में एक न एक दिन ज़रूर आ जाएंगे।  हमारी बेपरवाही और अलमस्ती उन्हें हमेशा चुभती थी। समय-कुसमय ठहाका मार कर हंस देना, और अपने लिखने की गति को कम न करना उन्हें तनिक भी रुचता न था।  ‘जानते नहीं को यह उदास और अकेले रहने के दिन हैं। विषाणुओं से डरने के दिन हैं। एक अन्तहीन चिन्ता के दिन हैं, कि इस रोग की अभी तक कोई सटीक दवाई नहीं है। तुम्हें हो गया तो इससे बचोगे कैसे?’ अब ऐसे चिन्तातुर प्रश्नों का क्या जवाब दें? जो होगा देखा जाएगा। इसी कारण अपने लबों से हंसी को उखाड़ कर कैसे फेंक दें? 
हमारे हंसते रहने की हठधर्मी से उन्हें बहुत गुस्सा आ गया। बरखुरदार, तुम डरते ही नहीं। जानते हो आजकल इन उदास मौत की नगरियों में ज़ोर से हंसना मना है। हंसने से वायु कण विस्तृत हो निकलते है। इसके साथ रोग विषाणु, तुम्हारे करीब आ हाथ मिलाने लगते हैं। संक्रमितों का आंकड़ा बढ़ता है, मौतें रिकार्ड बनाने लगती हैं। श्मशानगृहों में लाशों को दाहक्रिया के लिए जगह नहीं मिलती। कब्रिस्तान उन्हें दफन के लिए प्रवेश नहीं देते।  हम क्या जवाब दें। ये साहब तो हमारे हंसने के पीछे ही पड़ गये। लगता है, इस रोग के संदेश पहले से अलग हैं। आज तक कठिन समय में, किसी बीमारी काल में यही सुनते आए थे कि विकट समय में आदमी का आदमी दवा दारू होता है। उसकी मरहम और संवेदना के संदेश रोगी में ज़िन्दा रहने का नया बल भरते हैं। आंखे बंद करके सबसे विदा लेने लगो, तो नज़र आ जाता है कि ऐसे समय में कम से कम मेरे सब अपने तो विदा देने के लिए करीब हैं।  लेकिन यह कैसे दिन आये कि यह महामारी आई तो आपको अपने सब लोगों से अलग हो जाना है। किसी को अपना चेहरा नहीं दिखाना ताकि अपने विषाणुओं की सौगात दूसरों को न दे जाओ। रोग क्या अब तो रोग का शुबहा होते ही अपने-आप को दूसरों से अलग कर लो। पूरे चौदह दिन कोई किसी की शक्ल न देखे।  भाई जान, गलत क्या है इसमें। हमारे पास विरासत में किसी को देने के लिए एक फटी रजाई भी नहीं, हां आलिंगनबद्ध होकर अपने रोगाणुओं का उपहार अवश्य दूसरों को दे सकते हैं। इसलिए नहीं किसी के करीब नहीं जाना है। अपने-आप में सिमट जाना है और ‘जैसा जो-जो होना है, वैसा सो-सो होता है’ का मंत्र जाप बार-बार करना है।  लीजिये यह है वह पृष्ठ भूमि जिससे तैयार होकर सामना करना है इस बीमारी का। परन्तु कैसे सामना होगा? इस प्राण वायु के साथ जिसकी आपूर्ति अचानक कम हो गई, उन प्रण रक्षक टीकों के साथ, जो मांग के बढ़ते ही मंडियों से तिरोहित हो गए। बीमारी गंभीर हो जाए तो वैंटीलेटर पर लेटने का सहारा भी लेना पड़ता है, लेकिम इन्हें चलाने वाले कहां से आएंगे? इसके शिक्षार्थियों की तो अभी शिक्षा भी पूरी नहीं हुई।
उधर महामारी की दूसरी लहर विदा लेने के मूड में नहीं लगती। वह तो तीसरी लहर के रूप में बदल जाने का इरादा रखती है। पहली ने बूढ़ों को, दूसरी ने युवकों को पकड़ा और अब तीसरी क्या बच्चों को घेरेगी? नहीं, इन सब प्रश्नों के कटघरे में कैद न होइए, कि जिनका जल्दी उत्तर नहीं मिलता। क्यों न बचाव के सब साधन अपना लें, परन्तु नीम हकीम दवाओं की जमाखोरी के बिना, सही टीके का दामन पकड़ें। हां, प्यारे हंसना मना नहीं है यहां। वही तो ज़िन्दा रहने का बल देता है। उसे ही फिलहाल टीका मान लो।