लोकसभा चुनाव 2024 किस पक्ष का हिस्सा बनेगा अकाली दल ?

बहुत मुश्किल चुनें अब 
कौन सी राह-ए-मुस्तकबिल,
दोराहा इस तरह का राह 
में कुछ आन पड़ा है।
(लाल फिरोज़पुरी)
 उपरोक्त शे’अर अकाली दल की इस समय की स्थिति पर लगभग पूरी तरह फिट बैठता है। राजनीतिक गलियारों में खूब चर्चा है कि अकाली दल द्वारा भाजपा के साथ अलग होने के बाद बने हालात को देखते तथा चुनावों में आए परिणामों के मद्देनज़र अकाली दल को यह महसूस होने लग पड़ा है कि भाजपा के साथ समझौते के बिना वह 2024 के लोकसभा चुनावों की वैतरणी नदी पार नहीं कर सकेगा, परन्तु प्रतीत होता है कि भाजपा अभी अकाली दल को गम्भीरता से नहीं ले रही। हालांकि यह स्पष्ट है कि यदि भाजपा-अकाली दल का समझौता होता है तो अधिक लाभ भाजपा को ही होगा, परन्तु इसके बावजूद मौजूदा समय में भाजपा के अकाली दल के साथ समझौते की सम्भावनाएं बहुत कम दिखाई दे रही हैं। पंजाब में आम आदमी पार्टी द्वारा विधानसभा की 92 सीटें जीतने के बाद, संगरूर लोकसभा का उप-चुनाव हारने का चरण पार करते हुए जालन्धर लोकसभा उप-चुनाव में उसकी जीत से चाहे पंजाब के सभी विपक्षी दलों को आघात पहुंचा है परन्तु शायद भाजपा को पंजाब में ‘आप’ की मज़बूती  अनुकूल सिद्ध होती है क्योंकि इससे चाहे भाजपा पंजाब में मज़बूत हो या न हो परन्तु कांग्रेस तो कमज़ोर होती ही है, जबकि अकाली दल का भी अपने पांवों पर खड़ा होना मुश्किल प्रतीत होता है। पंजाब भाजपा के मौजूदा अध्यक्ष सुनील जाखड़ तथा पंजाब के प्रभारी वरिष्ठ भाजपा नेता विजय रूपाणी दोनों ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि भाजपा यह चुनाव अपने दम पर ही लड़ेगी। इस तरह प्रतीत होता है कि पंजाब भाजपा की नज़र 2024 के लोकसभा चुनावों पर कम तथा 2027 के विधानसभा चुनावों पर अधिक है। वैसे भी पंजाब भाजपा में बाहरी पार्टियों से आये नेता ज्यादा प्रभावी हैं, तथा उन्हें अकाली दल के साथ समझौता उचित नहीं होता। 
ऐसी स्थिति में अकाली दल बहुत मुश्किल में दिखाई दे रहा है। बसपा के साथ समझौते के बावजूद उसका लोकसभा 2024 के चुनावों में अच्छा प्रदर्शन कर पाना कठिन प्रतीत होता है। अब भाजपा अकाली दल से समझौता पता नहीं करती है अथवा नहीं परन्तु दूसरी तरफ अकाली दल ने 1975 से लगातार कांग्रेस के विरुद्ध प्रचार करके कांग्रेस को अकाली दल के लिए अछूत बना दिया है। 
परन्तु पाठकों के लिए यह जानकारी आश्चर्यजनक होगी कि ऐसी स्थिति में अकाली दल (बादल) के कुछ नेताओं तथा समर्थकों ने कांग्रेस के साथ समझौते के मार्ग की तलाश करनी शुरू कर दी है। हालांकि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल कांग्रेस के साथ किसी समझौते के पक्ष में नहीं हैं तथा उन्हें प्रतीत होता है कि यह समझौता अप्राकृतिक लगेगा, परन्तु समझौते के पक्ष में दलीलें देने वाले गुरु साहिबान के समय के उदाहरण भी दे रहे हैं। वे साहिब श्री गुरु अर्जुन देव जी की शहीदी के बाद छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब जी की कैद से रिहाई के बाद बादशाह जहांगीर के साथ बने अच्छे संबंधों तथा साहिब श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी द्वारा बादशाह औरंगज़ेब के असहनीय अत्याचारों के बाद गुरु जी द्वारा औरंगज़ेब के पुत्र बादशाह बहादुर शाह के साथ बने अच्छे संबंधों का उदाहरण भी दे रहे हैं। जबकि वे सिख इतिहास में खालसा पंथ की ओर से नवाब कपूर सिंह के लिए स्वीकार की गई नवाबी की बात भी करते हैं।
वैसे 1984 के सिख नरसंहार तथा आप्रेशन ब्लू स्टार (श्री हरिमंदिर साहिब) के बाद जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहड़ा के अति खास रहे परमजीत सिंह सरना वाले अकाली दल की दिल्ली में कांग्रेस के साथ हुई निकटता को भी एक उदाहरण के रूप में पेश किया जा रहा है। वर्ष 1999 तक सरना भाई कांग्रेस के विरुद्ध भाजपा के साथ खड़े रहे, परन्तु जब भाजपा ने दिल्ली विधानसभा तथा नगर निगम चुनावों में अकालियों को टिकट देने से इन्कार कर दिया तो सरना गुट कांग्रेस नेता शीला दीक्षित के नज़दीक चला गया। परिणामस्वरूप वह लम्बी अवधि तक दिल्ली गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी पर काबिज़ रहे। कोई माने या न माने परन्तु सच्चाई यही है कि इसमें सरना भाइयों को जत्थेदार टोहड़ा का समर्थन हासिल था। कांग्रेस के साथ समझौता करने की सलाह देने वाले यह उदाहरण भी देते हैं कि इस समय अल्प-संख्यकों के लिए भाजपा कांग्रेस से कहीं अधिक ़खतरनाक है, क्योंकि भाजपा का लक्ष्य ‘हिन्दू राष्ट्र’ है, जिसका कांग्रेस किसी सीमा तक विरोध करती है। 
परन्तु इन दलीलों के बावजूद अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल कांग्रेस के साथ जाने के लिए तैयार दिखाई नहीं दे रहे, परन्तु यदि भाजपा अकाली दल के साथ समझौता करने से बिल्कुल पीछे हट गई तो क्या हालात बदलेंगे, अभी इस संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता। हालांकि भाजपा के कुछ गलियारे यह समझते हैं कि भाजपा 2023 के अंत में पांच राज्यों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिज़ोरम, राजस्थान तथा तेलंगाना के अतिरिक्त संभावित रूप में जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों के परिणामों के बाद ही अकाली दल के साथ किसी समझौते के बारे में कुछ सोचेगी। ऐसे हालात में अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल को 2024 के लोकसभा चुनाव में अकाली दल को जीवित रखने के लिए प्रसिद्ध शायर जोश मलसियानी का यह शे’अर अवश्य याद रखना चाहिए :
ज़रूरत हो तो मर मिटने की 
हिम्मत हम भी रखते हैं,
ये जुर्रअत, ये शुजाअत, 
ये बसालत हम भी रखते हैं।
ढींडसा का महत्व बढ़ने लगा
इस दौरान जब भाजपा अकाली दल बादल के साथ समझौते की सम्भावना के इन्कार कर रही है, तो दूसरी ओर उसने लम्बा समय अकाली दल के विरोधी नेता रहे सुखदेव सिंह ढींडसा को दृष्टिविगत करने के बाद अब उन्हें महत्त्व देने का फैसला कर लिया प्रतीत होता है। हमारी जानकारी के अनुसार 18 जुलाई को होने वाली राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) की बैठक में शामिल होने के लिए सुखदेव सिंह ढींडसा को बार-बार कहा जा रहा है। उन्हें इस बैठक में शामिल होने के लिए सिर्फ औपचारिक पत्र ही नहीं भेजा गया, अपितु केन्द्रीय मंत्री भूपेन्द्र यादव तथा अन्य केन्द्रीय मंत्रियों द्वारा निजी फोन भी किये गये हैं। हमें यह जानकारी भी मिली है कि भाजपा नेतृत्व ढींडसा को यह आश्वासन दिला रहा है कि यदि आगे चल कर भाजपा ने अकाली दल (बादल) के साथ कोई समझौता किया तो भी सुखदेव सिंह ढींडसा के अकाली दल के लिए लोकसभा की एक या दो सीटें रखी जाएंगी। 
‘आप’ द्वारा लोकसभा उम्मीदवारों की तलाश
चाहे पंजाब की अन्य पार्टियां अभी इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहीं, परन्तु हमारी जानकारी के अनुसार आम आदमी पार्टी ने पंजाब में लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी के सम्भावित उम्मीदवारों की तलाश शुरू कर दी है। ‘आप’ को जालन्धर उप-चुनाव में मिली जीत ने उत्साहित किया है। पता चला है कि ‘आप’ 2024 के लिए सबसे पहले नज़र अपने मंत्रियों तथा विधायकों पर डाल रही है कि इनमें से कौन-कौन लोकसभा सीट जीतने के समर्थ हो सकता है। जानकारी मिली है कि फरीदकोट, अमृतसर तथा फतेहगढ़ साहिब सीटों के लिए उम्मीदवार ‘आप’ विधायकों या मंत्रियों में से चुनने संबंधी विचार किया जा रहा है, जबकि कुछ सीटों के लिए कांग्रेस व अकाली विधायकों तथा अन्य नेताओं को ‘आप’ में शामिल करने के बारे में भी विचार किये जाने की चर्चा सुनाई दे रही है। इसके अतिरिक्त राज्यसभा सीटें गैर-पंजाबियों या पंजाब के बाहरी लोगों को देने के कारण उत्पन्न हुए माहौल के प्रभाव को समाप्त करने के लिए भी एक या दो ऐसे गैर-राजनीतिक लेखकों या बुद्धिजीवियों को लोकसभा चुनाव में खड़े करने की चर्चा भी सुनी जा रही है, जिनका पंजाब, पंजाबी व पंजाबियत के प्रति समर्पण प्रश्न-चिन्हों के घेरे में न हो।
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