पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के बारे में मतदाता क्या सोचते हैं ?

भारत में चुनावों-नतीजों की विश्वसनीयता को दो नज़रियों से देखा जा सकता है। पहली दृष्टि तो यह है कि चुनावों में वोटरों की भागीदारी लगातार बढ़ती जा रही है। कमज़ोर वर्गों के वोटर भी खूब मतदान करते हैं और स्त्रियों ने मतदाता के रूप में अपनी उपस्थिति लगातार बढ़ाई है। बड़े शहरों के मतदाता ज़रूर पीछे रहते हैं, पर छोटे शहरों, कस्बों और गांवों के मतदाता जमकर निकलते हैं। जिस देश में 70 से 80 प्रतिशत के बीच मतदाता चुनाव में अपनी पसंद नियमित रूप से व्यक्त करते हों, वहां की चुनाव प्रणाली पर सवालिया निशान कैसे लगाया जा सकता है। दूसरी दृष्टि यह है कि चुनाव आयोग अपनी निष्पक्षता लगातार खोता जा रहा है। एक पत्रकार के शब्दों में यह आयोग ‘गंदा, एकतरफा और सरकार का प्यादा’ बन चुका है। चुनाव आयुक्त के चयन की प्रक्रिया पर बना नया कानून दरअसल आयोग की पूरी तरह से सरकारीकरण कर देता है। ऐसे चुनाव आयोग से निष्पक्ष चुनाव कराने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इन दोनों नज़रियों के अलावा एक तीसरा पक्ष भी है जो मानता है कि जब भी सत्ता पक्ष या भारतीय जनता पार्टी जीतती है तो उसकी विजय पर संदेह किया जाना चाहिए। यह पक्ष मान कर चलता है कि ईवीएम के ज़रिये किया जाने वाला मतदान कभी भी हैकिंग के माध्यम से ‘इलेक्टोरल फ्रॉड’ का शिकार हो सकता है।  
इसी तीसरे पक्ष के प्रभाव में पांच विधानसभा चुनावों के बाद एक बार फिर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों से संबंधित प्रचलित बहस की वापसी हो गई है। डिजिटल मीडिया के मंचों पर यह बात तरह-तरह से दोहराई जा रही है कि अगर ईवीएम का खेल न होता तो मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावी नतीजे कुछ और होते। दिलचस्प बात यह है कि हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ने वाले तेलंगाना का कभी ज़िक्र नहीं करते। इसी तरह वे 2018 के इन्हीं राज्यों के उस नतीजे का भी ज़िक्र नहीं करते, जब कांग्रेस ने भाजपा को हरा कर सरकारें बना ली थीं। विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन ने भी एक अधिकारिक प्रस्ताव पारित करके ईवीएम की आग में घी डाल दिया है। हालांकि इस मोर्चे ने ईवीएम हैकिंग को कांग्रेस की पराजय का ज़िम्मेदार नहीं ठहराया, लेकिन उसने शक की सुई को इन मशीनों की ओर घुमाते हुए सुझाव दे डाला है कि वीवीपैट (वोटर वैऱिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल) की पर्चियों को बॉक्स में गिरने देने के बजाय वोटर को थमाया जाना चाहिए ताकि वह अपने वोट की पुष्टि के बाद उसे स्वयं एक मतपेटिका में डाले और फिर उस पेटी में पड़ी हुई सभी पर्चियों की गिनती की जाए। यानी, यह गठबंधन दुहैरी मतदान प्रणाली का आग्रह कर रहा है। ईवीएम में भी वोट पड़ें, और वीवीपैट की पर्चियों के रूप में भी वोटों की गिनती हो। एक तर्क यह भी चल रहा है कि ईवीएम के साथ वीवीपैट जोड़ने से उसकी हैकिंग और आसान हो गई है। ़खास बात यह है कि वोटिंग मशीनों पर सवालिया निशान लगाने वाली ये सभी बातें तकनीकी अंदाज़ में विशेषज्ञों की भांति की जाती हैं। इन्हें पढ़ने पर उन लोगों का शक और गहरा हो जाता है, जो मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान की लोकतांत्रिक निष्ठाओं को संदेह की दृष्टि से देखते हैं। 
इस पूरी चर्चा में से एक बात त़करीबन ़गायब रहती है। कोई विशेषज्ञ और कोई पार्टी हमें यह नहीं बताती कि पार्टी निष्ठाओं की गिरफ्त से आज़ाद हमारे मतदादा-मंडल का 90 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा इस बारे में क्या सोचता है। क्या वास्तव में उसे ईवीएम वाली चुनाव-प्रणाली पर संदेह है? देश में इतनी सर्वे-एजेंसियां हैं, इतनी रेटिंग-एजेंसियां हैं। ये साल भर सक्रिय रहती हैं। लेकिन किसी ने आज तक इन्हें ईवीएम पर सर्वे करने का प्रोजेक्ट नहीं थमाया है। चुनाव आयोग भी यह काम कर सकता है। एक बड़े और प्रातिनिधिक सैम्पल के साथ जब कोई भरोसे वाली एजेंसी सुपरिभाषित और पूर्वघोषित सर्वे पद्धति का इस्तेमाल करेगी, तो उसके नतीजों से कमोबेश पता लग जाएगा कि वोटिंग प्रतशित बढ़ाते रहने वाला हमारा मतदाता-समाज इस विवाद के बारे में क्या सोचता है। ज़रूरी नहीं कि इससे शंका की सुई हिलनी बंद हो जाए, पर वह कुछ देर के लिए थमेगी ज़रूर। 
यहां मैं ईवीएम पर पानी-पानी करने वाले एक और नज़रिये को पेश करना चाहता हूँ। मुख्य तौर पर विश्लेषणात्मक होने के साथ-साथ इसका आधार मतदाताओं की न्याय-बुद्धि पर भरोसे में निहित है। सोचने की बात है कि अगर मध्य प्रदेश के वोटरों ने भाजपा की बजाय कांग्रेस को 8 प्रतिशत वोट ज्यादा दिये होते और ईवीएम से वोट भाजपा के निकलते तो मतदाताओं पर क्या प्रतिक्रिया होती? ऐसा तभी हो सकता था मध्य प्रदेश की ऊंची और ओबीसी जातियां भाजपा की बजाय कांग्रेस को पसंद करतीं। साथ ही मध्य प्रदेश की स्त्री-मतदाताओं की प्राथमिकता भी भाजपा की बजाय कांग्रेस ही होती। क्या अपने वोट को सीधे-सीधे लुटते देख कर इतने बड़े-बड़े मतदाता-मंडल चुपचाप बैठे रहते। उनमें आपसी चर्चा भी नहीं होती। अगर इतनी बड़ी संख्या में मतदाताओं के बीच इस तरह की शंका का आदान-प्रदान होता, तो क्या उनकी आवाज़ राजनीतिक समाज तक नहीं पहुंचती? सामान्य मतदाता भले ही पार्टी-कार्यकर्ताओं की तरह सोच-बोल न पाते हों, क्या हमें उन्हें राजनीतिक रूप से एकदम निष्क्रिय मान लेना चाहिए? 
इसी तरह हमें राजस्थान और छत्तीसगढ़ पर भी ़गौर करना चाहिए। अगर राजस्थान में राजपूतों, गूजरों, ब्राह्मणों और ओबीसी जातियों ने भाजपा को पसंद करने के बजाय कांग्रेस को पसंद किया होता और वोट भाजपा के निकलते तो क्या इन मतदाताओं में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती? मेरा मानना है कि ये मतदाता समुदाय गुस्से में भर कर सड़कों पर निकल पड़ते और इन्हें संभालना नामुमकिन हो जाता। समझा जाता है कि जाट-प्रधान निर्वाचन क्षेत्रों में इस बार कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया। अगर वहां वोट भाजपा के निकलते तो क्या राजस्थान के जाट ऊँची आवाज़ में अपना विरोध व्यक्त नहीं करते? इस तरह का चुनावी फज़र्ीवाड़ा देश में एक राजनीतिक ब़गावत की स्थिति पैदा कर सकता है। इस ब़गावती त़ूफान के सामने कोई सरकार या प्रशासन नहीं टिक पाएगा। 
हर चुनाव में मुहिम के आखिरी दौर में यह पता लगना शुरू हो जाता है कि कौन जीतने वाला है। यह आवाज़ ज़मीन से आने लगती है। लेकिन उसे सुनने के लिए आपका ज़मीन पर खड़ा रहना ज़रूरी है। दूसरे, हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत समुदायों का लोकतंत्र है। यानी, हमारे देश में वोट सामुदायिक हिसाब से पड़ते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ कर किसी समुदाय के 60-70 प्रतिशत मतदाता एक साथ सोच कर संगठित रूप से किसी पार्टी के पक्ष या विपक्ष में वोट करते हैं। भले ही उनकी पसंदीदा पार्टी या उम्मीदवार हार जाए, पर उन्हें पता रहता है कि उनके वोटों के दम पर वह चुनावी लड़ाई में कितनी दूर तक टिका रहा। चाहे जिताने वाला वोट हो, या न जिता सकने वाला वोट हो— दोनों ही सूरतों में वोटरों को पता होता है कि उनकी प्राथमिकताओं का परिणाम क्या निकला। वोट मुहर ठोक कर दिया जाए या बटन दबा कर— वह ज़माना गुज़र चुका है जब ‘बूथकैप्चरिंग’ के ज़रिये वोट लूटे जाते थे।

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।