बड़ी अद्भुत प्रेम कहानी

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

‘मुल्ला जी ससुराल गये हैं और अभी दो दिन और नहीं आयेंगे। मुझे ही आना पड़ेगा।’ ‘ओखे।’ कहकर मेरी लापरवाही से पर्स झुलाती गेट के भीतर चली गई। पर रात भर हरि सरन की वे नीली आंखें और गोरा सिंदूरी रंग उसकी आंखों में घूमता रहा। वह बेचैनी से सुबह का इंतजार करती रही। सुबह हरी सरन समय पर बग्घी लेकर आ गया था और मेरी को अस्पताल छोड़ कर वह उसी दिन कहीं चला भी गया। शाम को चपरासी भेजने पर वह खाली ही लौटा था। चपरासी ने आकर बताया था कि सरन काम से पंजा साहब गया है। तीन दिन बाद आएगा। चौथे दिन बग्घी बुलाने पर मुल्ला जी ही लेकर आए थे। अब मेरी ऐसे तो नहीं कह सकती थी कि उसके काम के लिए सरन ही बग्घी लेकर आए। पर वह उसे बुलाने के लिए बहाने खोजने लगी थी। मुल्ला जी ने बताया था कि सरन जानवरों के बारे बहुत जानकारी रखता है तो एक दिन मेरी को बहाना भी मिल ही गया।
हुआ यूँ कि पेशावर से एक सौदागर घोड़े बेचने आया था। मेरी ने चपरासी भेजकर सरन को ही बुलवा लिया। सरन हालांकि अस्पताल के रास्ते से ही बचता रहता था पर यह बुलावा तो सीधा उसी के लिए था, क्या करता।
‘मैन! खोड़ा पसंड खरो। (घोड़ा पसंद खरो) फॉर मी।’ मुझे दादी के नाटक पर फिर हंसी आ गयी, ‘दादी! वो अंग्रेज डॉक्टर ऐसे ही बोलती थी क्या?’
‘और क्या। तो सरन ने एक अच्छा घोड़ा पसंद कर के बता दिया और तुरन्त ही वहां से खिसक लिया। अब मेरी उसे किसी न किसी बहाने से अक्सर ही बुलाने लगी। सरन इतना भी बूढ़ा नहीं था कि कुछ समझता ही न हो, पर वह तो बिल्कुल चिकना घड़ा बना रहता। डॉक्टर उसे अपने पास आदर से बिठाती, चाय पिलाती और देर तक बातें करती रहती। हरि सरन समझ कर भी नासमझ बना अपने काम से काम रखता। इस बीच डॉक्टर मेरी एक बेटे की मां बन गई थी। उसने हरि सरन से कहा कि वह अपनी बेटी को वहां ले आए। दोनों बच्चे साथ रहेंगे पर हरि सरन ने सुना अनसुना कर दिया। इसी तरह छ: महीने बीत गए। हरि सरन यह बात अच्छी तरह से समझ चुका था कि मेरी क्या चाहती है, फिर भी अनजान ही बना रहा। जब मेरी की कोई चाल कामयाब नहीं हुई, तो एक दिन उसने मौका देख कर हरि सरन से साफ शब्दों में कह दिया कि वह सरन से प्रेम करने लगी है। ‘ये क्या कह रही हैं आप डॉक्टर? मेरी एक बेटी है एक बीवी है और आपके भी बेटा है। आपका पति मुझे गोली मार देगा।’ हरि सरन एकदम कुर्सी छोड़ कर खड़ा हो गया।
‘तो? हम रास्ता निकालेगा न।’ ‘क्या रास्ता है?’
‘तुम यहां कम्पाउंडर ज्वाइन कर लो।’
‘ऐसा कैसे हो सकता है?’
‘तुम को करने का है।’
‘कभी भी नहीं।’ कह कर वह अस्पताल से बाहर निकल गया। फिर कभी मेरी के बुलाने पर भी नहीं आया। इससे मेरी के मन में कई कई भाव आने जाने लगे। उसे अपने मन से लड़ना भारी पड़ रहा था। उस दिन सिनेमा का आखिरी शो खत्म होकर थोड़ी देर हो चुकी थी, मेरी अपने क्वार्टर की छत पर टहल रही थी। तभी उसको दूर से सरन की बग्घी आती दिखाई दे गई। पता नहीं क्या हुआ कि मेरी झपटकर अन्दर गई। जब लौटकर बाहर आई तब तक बग्घी पास आ चुकी थी। मेरी का हाथ उठा और एक गोली में एक घोड़ी सड़क पर थी। बग्घी आगे कैसे जाती।तीसरे दिन एक और घोड़ी, फिर एक और। शिकायत किसके पास करे। अंग्रेजी राज था, फिर भी हरि सरन शिकायत लेकर मेरी के पास आया। ‘क्यों मार रही हैं आप बेजुबान जानवरों को?’ ‘जब तुम इन्सान की जुबान नहीं समझते तो मैं क्या करूं? तुम्हारी घोड़ी को लाग लगी है। उसकी गर्दन पर घाव है, फिर भी तुम उसको बग्घी में जोत रहे हो।’
हरि सरन समझ गया था कि कुछ होने वाला नहीं है। चार घोड़ियों की बलि देकर उसने बग्घी खड़ी कर दी। फिर उसे भय लगा कि वह जानवरों की डॉक्टर है तो डेरी में भी उत्पात मचा सकती है। शायद ऐसा होता भी पर तभी मेरी को अचानक अपने पति के पास लाहौर जाना पड़ गया। उसके पति तक बात पहुंच गई थी। मेरी ने बात झुठलाने की बड़ी कोशिश की पर झगड़ा इतना बढ़ गया कि वह वापस लाहौर न जाने की कसम खाकर लौटी।’ दादी किसी रिकार्ड की तरह बोल रही थीं और मेरे दिमाग में एक सन्नाटा पसर रहा था, आखिर दादी मेरी की भावनाओं तक कैसे पहुँचीं। शायद ये भी कहीं मेरी के साथ तो नहीं रहती थीं। मेरे मन में उथल-पुथल हो रही थी। दादी फिर कहने लगीं,
‘इस सारी कहानी के बीच दो महीने तक मेरी लाहौर ही रही थी। वापस लौट कर उसे पता चला कि हरि सरन सारे कारोबार को समेट कर पता नहीं कहां चला गया था। मुल्ला जी भी अपने गांव चले गये थे। मेरी चारों तरफ से लुट गयी थी। डेढ़ साल का बेटा लेकर वह अपनी मां के पास हरिपुर हज़ारा चली गयी।
इधर आज़ादी की लड़ाई ने जोर पकड़ लिया था और फिर भारत आजाद भी हो गया। मेरी के माता-पिता इंग्लैंड वापस चले गये थे। वे लोग मेरी को साथ ले जाना चाहते थे पर मेरी ने इंग्लैंड जाने से इन्कार कर दिया। अब बेटा फिर मेरी के पास आ गया था। मेरी ने नौकरी भी छोड़ दी थी। कुछ पैसा इकट्ठा करके वह कहीं सुरक्षित जगह तलाश रही थी। कुछ सलवार सूट खरीदे और बच्चे को गोद में लिए एक काफिले के साथ अम्बाला आ गई। अंग्रेजों की जान खतरे में थी। ऐसे में उसे इस पंजाबी भेस ने बड़ी मदद की। बाल बिखरा कर हल्का घूंघट उसे पंजाबी ही सिद्ध करता। जतन करके उसने पंजाबी बोलने का अभ्यास किया। बस वक्त कैसे कट गया पता ही नहीं चला। फिर एक छोटे-से शहर में छोटा सा स्कूल खोला पर मन नहीं लगा। वह भी बंद कर दिया। जो पैसा था उससे थोड़ी सी जमीन खरीद ली। बेटे को पढ़ाती रही, पर एक दिन बेटा भी दूर चला गया। उसे अपना बाप मिल गया था। मेरी अम्बाला आकर भी मां-बाप से सम्पर्क बनाने में सफल हो गई थी, यही उसकी सबसे बड़ी गलती थी। उन्होंने ही मेरी के पति को उसका पता दे दिया था। उन लोगों ने पढ़ने के बहाने लड़के को इंग्लैंड बुला लिया, फिर वह अकेले ही दिन गुजारने लगी।’ ‘दादी! वह डॉक्टर कौन-से शहर में चली गई और तुम्हें कैसे पता कि वह कहां गई थी? क्या तुम उसे जानती हो?’ दादी अचानक बोलते-बोलते चुप हो गई। मैंने देखा, दादी की आंखें छत पर टंगी हुई थीं। दोनों आंखों से बहती धाराएं उसके गोरे मुखड़े को धो रही थीं। मैं सोच रही थी कि यह अचानक दादी क्यों रोने लगी? हमने आज तक कभी दादी को रोते नहीं देखा था।
‘फिर क्या हुआ दादी?’ पर दादी चुप थीं। रात का अंधेरा छंटने लगा था। दादी की आंखें अब भी छत पर टंगी हुई थीं। मैंने उनके हाथ को पकड़ कर सीधा करना चाहा तो वह लटक गया था। दादी के सभी किरियाकर्म पापा ने ही किये। फिर सारे मुहल्ले और पुलिस की मौजूदगी में उनके सामान को इस उद्देश्य से खंगाला गया कि हो सकता है इससे उनके किसी संबंधी का पता मिल जाए। सामान में और तो कुछ खास नहीं मिला पर उनकी अल्मारी में एक लिफाफा पापा के नाम का मिला, जिसे पुलिस इंस्पेक्टर को दे दिया गया। यह अंग्रेजी में लिखी एक वसीयत थी। जिसमें लिखा था, ‘हरि शंकर के परिवार ने मेरी बहुत सेवा की है, इसलिए मैं अपनी हर चीज़ पर हरि शंकर के परिवार का अधिकार मानती हूँ।’ अंत में हस्ताक्षर के स्थान पर लिखा था ‘डा. मेरी जोज़फ’। (समाप्त)