बड़ी अद्भुत प्रेम कहानी

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

‘सुनाओ न दादी कहानी। अच्छा अब नहीं टोकती। आप कहानी सुनाओ।’ मैंने चिरौरी की, पर दादी नहीं बोली तो मैंने उनके मुंह पर से कम्बल खींच कर अपने कान पकड़ते हुए कहा, ‘ये लो दादी। दोनों कान पकती हूँ, अब न बोलूं। सुनाओ न दादी। मेरी अच्छी दादी।’
‘चल, बेवकूफ कहीं की। अब मेरा मन नहीं है, कल सुनाती हूँ।’ मैं भी समझ रही थी कि दादी अब कुछ नहीं बतायेगी इसलिए मैं अपने बिस्तर पर आकर सोने की कोशिश करने लगी।
दूसरे दिन फिर मैंने दादी को छेड़ दिया, ‘दादी! वह कल वाली कहानी?’
‘हां! तो कहां तक पहुँचे थे हम?’ दादी फिर शायद पुराने दिनों को याद करने लगी थी। थोड़ी ही देर में दादी ने सिरा पकड़ लिया। आराम से तकिए की टेक लेकर लेट गईं और कुछ याद करते हुए बोली, ‘उसके जानवर और बग्घी जहां रहते थे, वहां से थोड़ी सी ही दूरी पर एक वैटर्नरी अस्पताल था।’ दादी के मुंह से आज पहली बार वैटर्नरी शब्द को बिल्कुल शुद्ध उच्चारण में सुनकर मुझे करंट सा लगा और मैं झटके से उठकर बैठ गई। दादी की साधारण पंजाबी बोल-चाल में और पहनावे आदि से कभी भी हमें उनके पढ़ी-लिखी होने का आभास ही नहीं हुआ। बिल्कुल गांव-देहात की साधारण औरत महसूस होती थी। बस इसीलिए हैरानी हुई थी।
‘क्या हुआ?’ दादी ने पूछा तो मुझे एकदम याद आ गया कि कहीं वह खीझ गयी तो बंटाधार हो जाएगा। मैंने बात बनाई, ‘पानी पीकर आती हूँ।’
‘बस! इस छोकरी में यही नुक्स है कि चैन है ही नहीं। करती रहेगी इधर-उधर।’ पर मैंने वापस लौट कर फिर दादी को टोका, ‘हाँ दादी। तो हम अस्पताल तक आ गये थे।’
‘हां! तो उसी सड़क पर वह शानदार बग्घी रोज़ दौड़ा करती थी। रास्ता वही था, अस्पताल के सामने वाली सड़क। एक दिन उस  अस्पताल से एक अंग्रेज जोड़ा निकला। उन्होंने बग्घी रोक ली। ज़माना अंग्रेजी राज का था, भला बग्घी चलाने वाले नौकर की क्या औकात कि बग्घी न रोके? उस दिन वे दोनों भी सिनेमा देखने ही जा रहे थे। उन्हें सिनेमा पहुंचा कर वह जब वापस लौटकर घोड़ियों को बग्घी से खोल रहा था तो सरन ने पूछ ही लिया,
‘मुल्ला जी, क्या हुआ? आज सवारी नहीं मिली कोई?’
‘सरन कौन दादी?’ मैंने डरते डरते पूछा, कहीं दादी फिर न भड़क जाए, पर कुछ नहीं हुआ। वे हंसते हुए बोलीं, ‘वही खूबसूरत नीली आँखों वाला। उसका नाम हरी सरन था, पर सब उसे सरन ही कहते थे।’
‘फिर?’
‘फिर मुल्ला जी ने बताया कि वैटर्नरी अस्पताल की डाक्टर और उसके आदमी को सिनेमा छोड़कर आया है और तीन घंटे बाद लेने भी जाएगा। अब अंग्रेजी राज था तो इतना तो झेलना ही पड़ेगा। अब यह अक्सर होता कि डॉक्टर किसी को भी भेजकर बग्घी मंगवा लेती और जहां जाना होता ले जाती। बग्घी देना सरन की मजबूरी थी, पर अभी तक उसका बग्घी के मालिक से सामना नहीं हुआ था। हां उसके बारे में जानकारी उसे मुल्ला जी से मिलती रहती थी। मुल्ला जी ने ही उसे बताया था कि वह बड़ा अकड़खान है। यह भी बताया था कि वह एक अच्छा पशु पालक है। भैंस गाय पालकर दूध का कारोबार करता है और जानवरों की बीमारियों और देसी दवाइयों की बहुत जानकारी रखता है और बहुत खूबसूरत है, व़गैरह व़गैरह।
डॉक्टर के पति की दूर के दूसरे शहर में नौकरी थी। वह कभी-कभी आता था इसलिए डॉक्टर को अकेले ही अपने काम करने की आदत थी। वह अंग्रेज होते हुए भी ठीक सी पंजाबी बोल लेती थी। मुल्ला जी के साथ अक्सर ही आना जाना होने से बातें भी होती तो बातूनी मुल्ला जी अपने मालिक की तारीफों के पुल बांध देते।’
मैं बड़े ध्यान से दादी की कहानी सुन रही थी पर अभी तक दादी ने उस डाक्टर का नाम नहीं बताया था और मुझे डर था कि कहीं नाम पूछने पर दादी फिर न उखड़ जाए। पर शायद दादी का बोलते बोलते गला सूखने लगा था। मैंने पानी दिया तो दादी खुश हो गयी।
‘हां, तो।’ पानी पीकर दादी ने फिर से सिरा पकड़ लिया, ‘एक दिन फिर मेरी को किसी रिश्तेदार के घर काम से जाना था,’
‘मेरी कौन दादी?’
‘मेरी, वही डाक्टर। हाँ, मैंने नाम तो बताया ही नहीं।’ दादी शान्त थीं। लगता था आज वे कहानी सुना ही देंगी।
‘डॉक्टर मेरी ने अस्पताल से चपरासी को सरन की डेरी भेजा। उसे शाम को बग्घी चाहिए। सरन के पास कोई चारा नहीं था। मना कैसे कर सकता था। अंग्रेजी राज था।
मुल्ला जी को ससुराल गये दो दिन हो गये थे। उन की साली की शादी थी। दूसरा कोई नौकर इक्का चलाना जानता नहीं था और डॉक्टर की ड्यूटी करना उनकी मज़बूरी थी।मैं फिर चौंक गई, दादी का उच्चारण इतना साफ था कि हैरानी होती थी, पर मैं चुप ही रही। दरअसल अपनी सतरह साल की उम्र में मैंने कभी उनसे अंग्रेजी का कोई शब्द नहीं सुना था इसलिए आज बड़ा अजीब लग रहा था। ‘ठीक वकत पर बग्घी आकर अस्पताल के सामने खड़ी हुई तो मेरी अपना खूबसूरत गाउन सम्भालती आकर ठसके से उसमें पिछली सीट पर बैठ गयी। हल्का अंधेरा होने लग था। बग्घी सरपट दौड़ रही थी। चपरासी दिन में बता आया था कि कहां जाना है इसलिए रास्ता आराम से कटता रहा। मेरी भी किसी सोच विचार में थी, इसलिए बस एक बार उसने ठीक से पता बता दिया। मंज़िल पर पहुंचने तक बत्तियां जलनी शुरू हो चुकी थीं। एक कोठी के गेट पर पहुंच कर मेरी ने बग्घी रुकवाई और नीचे उतरकर बोली, ‘मुल्ला! आज तुम चुप ही रहा, बोला नहीं। मार्निंग नौ बजे आना।’
कोचवान ने घोड़ियों की लगाम खींची पर बोला फिर भी नहीं तो मेरी को शक हुआ कि यह मुल्ला नहीं है। वह झपट कर सामने आ गई तो कोचवान ने झटके से लगाम खींच ली वरना कुछ भी हो सकता था।
‘कौन है तुम?’ मेरी की आंखें फटी की फटी रह गईं। उसे सरन को पहचानने में जरा सी भी देर नहीं लगी। मुल्ला जी से उसकी खूबसूरती के इतने कसीदे सुन चुकी थी कि अब कुछ बाकी नहीं बचा था, ‘तुम?’
 

(क्रमश:)