कहानी-कठपुतली

दो महीने भी नहीं बीते थे उसकी शादी को। उसे यह कहकर ब्याह कर लाया गया था कि ‘उसे खूब पढ़ाएंगे, लिखाएंगे और एक अफसर बनाएंगे।’ संध्या ने भी यह प्रस्ताव मान कर सास-ससुर और अपने होने वाले पति रमेश के सामने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। पर उसे कहां पता था कि वो जिस जगह जा रही है वहां उसकी स्वतंत्रता नहीं, बल्कि उसे एक कठपुतली मात्र की हैसियत से ले जाया जा रहा है। 
ना उसे आगे पढ़ाया गया और ना ही उसे आगे बढ़ने दिया गया। बल्कि हर कार्यों में पारंगत होते हुए भी संध्या अपने वजूद की तलाश करती रह गई। ससुराल में रमेश और माता-पिता अक्सर संध्या को यही कहते, ‘पढ़ाई लिखाई में क्या रखा है घर के कामकाज करने में ही भलाई है। सेवा करने से स्वर्ग नसीब होता है वही किया करो, बाहर घूमना और खुद को ज्यादा स्वतंत्र रखना अच्छी बहू की निशानी नहीं होती!’
संध्या चुपचाप सबकी बातें सुनती। उसके खाने-पीने उसके पहनने ओढ़ने पर भी सभी प्रकार का बंधन लगा दिया गया था। वो सास ससुर की सेवा में धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को भूलती चली गई और वो एक कठपुतली मात्र बन के रह गई।
रमेश बोला, ‘चलो मैं तुम्हें चटपटे गोलगप्पे खिलाता हूं।’ संध्या अचानक बेहद खुश हुई कि रमेश ने उसे बाहर ले जाने का फैसला किया था। वह बोली, ‘चलिए मैं तो कब से इंतजार कर रही हूं।’ दोनों कार से गए, चाट का ठेला देख संध्या कार से उतरकर वहां पहुंच गई। वो अपना दोना लेकर आगे बढ़ी और जल्दी-जल्दी गोलगप्पे खाने लगी। ‘रमेश आप भी आओ! ओ भैया थोड़ा पानी डालना!’
रमेश मानो नींद से जागा उसे तो ख्याल ही नहीं रहा कि उसकी नई नवेली दुल्हन कब कार से उतरकर चाट वाले ठेले की ओर बढ़ गई थी। संध्या को चटकारे ले लेकर गोलगप्पे का पानी पीते देख रमेश का सिर सनक गया। ये उसकी अभिजात्य जीवन शैली पर करारा तमाचा था।
‘संध्या घर चलो’ ना चाहते हुए भी रमेश की आवाज में तल्खी उभर आई थी। आसपास खड़े लोग घूर कर देखने लगे तो संध्या फटाफट दोना फेंककर कार में बैठ गई। रमेश ने चाट वाले को पचास का नोट पकड़ाया और कार में बैठ गया और वह बेचारा चाट वाला लौटाने के लिए खुले पैसे गिनता ही रह गया।
‘उससे वापस पैसे क्यों नहीं लिए!’ संध्या ने भोलेपन से पूछा। जवाब में रमेश क्रोधित हो गया और कहा, ‘संध्या तुम बड़े परिवार में शादी करके लाई गई हो। बड़े शहर में रहने का तरीका सीखो! तुम जाने माने डा. रमेश कुमार की पत्नी हो इस तरह सड़क पर गोलगप्पे खाते अच्छी नहीं लगती!’
संध्या एक मध्यमवर्गीय परिवार से थी। लेकिन रमेश का परिवार उच्च कुलीन था। संध्या के मध्यमवर्गीय परिवार से वह कई पायदान ऊपर था। जब रमेश शादी के लिए संध्या को देखने आए थे उसकी सादगी और भोलेपन को देखकर उसकी तरफ आकर्षित हो गए थे। मां ने भी थोड़ी ना-नूकुर के बाद ‘ठीक है घरेलू सी लड़की है दबकर रहेगी’ सोच कर उसकी पसंद पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी।
 ‘हम तो अपनी बहू को रानी की तरह रखते हैं।’ लोगों से कहती, लेकिन सच्चाई तो कुछ और ही थी। 
उन्हीं दिनों रमेश को हिमाचल जाना पड़ा। वो अपने साथ संध्या को भी संग ले लिया। रास्ते में गिरते बर्फ का सुंदर दृश्य देख संध्या का बच्चा मन खिल उठा। वह बार-बार रमेश से बस रुकवाने का आग्रह करती। वह बर्फ की वादियों में सैर करना चाह रही थी। देश विदेश में घूम चुके रमेश को संध्या का ये बचपना करना अच्छा नहीं लगा। वो संध्या को चुप रहने को बोला और उसे काफी डांट फटकार लगाई फिर बस की आखिरी सीट पर उसे बैठा दिया। दहशत और अपमान के कारण संध्या की आंखें डबडबा गई। वह बस में उपस्थित लोगों की सहानुभूति और उपहास का पात्र बन गई। फिर पूरे रास्ते में नज़रे झुकाए संध्या चुपचाप बैठी रही। वो खोई-खोई सी रहने लगी थी। हंसना, रूठना, चहकना तो दूर उसके चेहरे पर मुस्कान भी गायब रहने लगी।
इसी दौरान पता चला कि संध्या गर्भवती है। पारिवारिक तकलीफ के तले दबी संध्या के गर्भ में पल रहे भ्रुण का विकास रुक गया था। इस तरह दिन भर संध्या गर्भावस्था की स्थिति में भी जी तोड़ काम करती थी। 
एक दिन अचानक से संध्या के पेट में दर्द उठता है। फिर अफरा-तफरी में उसे अस्पताल ले जाया जाता है, जहां उसका बच्चा गर्भ में ही दम तोड़ देता है। (क्रमश)