कहानी-कठपुतली

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

बच्चे को खोने के बाद संध्या जिंदा लाश मात्र बनकर रह गई। संध्या को भी उसके सास-ससुर ताने देते रहते कि, ‘हमारे वंश की रक्षा नहीं कर पाई इतना ख्याल रखते थे तेरा! तू अपना ख्याल रख नहीं पाई। हमारा वंश कैसे चलेगा?’ संध्या चुपचाप सी खड़ी सब सुनती रही। अब वो अंदर से पूर्ण रूप से टूट चुकी थी। ना कोई तरंग, ना उमंग! बस वो मर्यादाओं के बंधन में बंधी अपने सपनों के टूटने के बाद, फिर अपने बच्चे को खोने के बाद एक हंसती खेलती लहरों के समान बहते रहने वाली संध्या अपने स्वाभाविक सौंदर्य को, बस एक ठहरे हुए पानी के कुंड के समान बना ली, जिसमें जीने की आशा लगभग उसके भीतर खत्म हो चुकी थी। अत्याचार को सहन करते करते वो भूल चुकी थी अपना अस्तित्व।
अब रमेश भी संध्या ऐसी हालत देखकर चिंतित रहने लगा। उसे लगा की उसने संध्या के साथ बहुत गलत बर्ताव किया है। उसे एहसास हुआ कि मर्यादाओं की एक दीवार खड़ी करके उसने संध्या के साथ अन्याय किया है। 
केवल प्रेम भरा हृदय ही उस सैलाब को थाम सकता है। संध्या को अवसाद से उबारने का एक ही रास्ता है कि उसे पूर्ण स्वतंत्रता दी जाए। जीने का अधिकार दिया जाए। उसे बंधन में बांध कर उसके सपने को नहीं छीनना चाहिए। ऐसा करने से शायद एक दिन उनके चेहरे की खिलखिलाहट और मासूमियत लौट आएगी। रमेश को एहसास हुआ।
मगर अब यह कैसे होगा? संध्या मुझसे दूर-दूर रहने लगी है। मेरे छूने से वह सिहर उठती है। हिरनी जैसी भयभीत नज़रों से मुझे देखने लगती है। मानो मैं उसका शिकार करने वाला हूं।
दूसरे दिन रमेश का अस्पताल में मन नहीं लगा तो वह जल्दी घर लौट आया। सामने रमेश की मां अपनी बहू संध्या पर क्रोधित हो रही थी, ‘हमारा खानदान उच्च कुल का है। ये छोटी-छोटी हरकतें बहू तुम्हें शोभा नहीं देती। कायदे कानून में रहो तुम!’
संध्या दुबक कर दीवार के एक कोने पर निढाल होकर बैठ गई और उसकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली। तभी रमेश ने अपनी मां से कहा, ‘उस पर गुस्सा क्यों कर रही हो मां! जाने दीजिए सब सीख जाएगी संध्या।’
मां ने रमेश का यह बदला हुआ रूप देखकर उससे कहीं, ‘क्यों रमेश आज कैसे तू अपनी बीवी का हिमायती बन रहा है, एक तो हमारे वंश का नाश हो गया है और इसकी जिम्मेदार संध्या है।’ यह सुनकर रमेश इस बार चुप नहीं रहा और अपनी मां से कहा, ‘मां शांत हो जाओ! तुम भी किसी के घर की बहू हो। जब तुम नई-नई आई थी तो तुम्हारे आगे भी जिम्मेदारियों की परीक्षाएं थी। क्या तुमने संघर्ष नहीं किया! आज तुम एक समाज की प्रतिष्ठित महिला में गिनी जाती हो। एक महिला होकर तुम एक महिला का दर्द नहीं समझोगी तो आगे का जीवन बहुत कठिन हो जाएगा। मां उसे जीने दो अपनी जिंदगी। उसे हर छोटी से छोटी चीजों में खुश रहने दो। वह जो करना चाहती है उसे करने दो। उसे उड़ने दो पंख फैलाकर ताकि वह अपना सपना पूरा कर सकें।’ रमेश की बात सुनकर मां चुपचाप सोफे पर बैठ गई। जैसे रमेश ने उसकी आंखें खोल दी हो।
‘संध्या उठो तैयार हो जाओ। आज हमें कहीं जाना है।’ रमेश ने पुकारा। संध्या चुपचाप उठकर तैयार हो गई। फिर दोनों अपनी कार से घूमने निकल गए। रास्ते में चाट वाले का ठेला देखकर रमेश ने गाड़ी रोक दी और संध्या से कहा, ‘यह शहर का सबसे प्रसिद्ध चाट वाला है, तुम्हें जितने गोलगप्पे चाट खाना हैं जाकर खा लो।’ संध्या के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। 
अब रमेश रोज अस्पताल से जल्दी घर आ जाता था और संध्या के साथ काफी समय बिताया करता था। धीरे-धीरे संध्या भी अपनी सामान्य स्थिति में आने लगी। अब खाने की टेबल पर संध्या को रमेश का इंतजार करना नहीं पड़ता था। दोनों साथ बैठकर एक ही थाली पर खाना खाते थे। 
रमेश ने संध्या से कहा, ‘संध्या तुम अपनी पढ़ाई अगर जारी रखना चाहती हो तो आगे पढ़ो लिखो और तुम्हारें सपनों को पूरा करो मैं तुम्हारे साथ खड़ा हूं हर परिस्थिति में। पर तुम मुझसे वादा करो तुम मेरी हंसती खिलखिलाती हुई संध्या बनकर दिखाओगी। मैं तुम्हें इस तरह उदास नहीं देख सकता। मैं तुम्हें बेहद प्यार करता हूं।’
संध्या भी मानो एकदम विस्मय होकर रमेश की बातों को सुनती जा रही थी। रमेश का इस प्रकार बदला व्यवहार देख कर संध्या फूले नहीं समा रही थी जैसे उसके चेहरे पर दोबारा बहार आ गई हो। रमेश ने झट से संध्या को सीने से लगा लिया। आखिर संध्या भी बेवजह दबावों से छूट जो गई थी और अपने सपनों की उड़ान भरने के लिए वो स्वतंत्र हो गई थी। (समाप्त) 

(सुमन सागर)