भारतीय वन संपदा का गुमनाम हीरा चिलबिल का पेड़

भारत में खानपान, पोशाक और बोली भाषाओं में ही बहुलता नहीं है, वनस्पतियों के मामले में भी भारत बेहद बहुलतावादी है। भारत में कई ऐसे पेड़ हैं, जो आज भी शासकीय डाक्यूमेंटेंस या वनस्पतिशास्त्रियों की नज़र में अनदेखे रह जाने के कारण बिना किसी महत्व के भारत की विविधतापूर्ण वनसंपदा में गुम पड़े हैं, जबकि ये हैं बहुत महत्व के। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण लेकिन ज्यादातर लोगों की नज़रों से ओझल चिलबिल या चिरबिलवा का पेड़ भी है, जिसके अलग-अलग भारतीय भाषाओं में अनेक स्थानीय नाम है। हिंदी में ही इसे कहीं पपरी, कहीं कंजु तो कहीं बंदर की रोटी कहा जाता है। पश्चिम बंगाल में इसे नाटा करंज, राजस्थान में बंदर बाटी, गुजरात में चरेल, महाराष्ट्र में वावला, कनार्टक में तपासी, केरल में आवल, तमिलनाडु में आया और आंध्र प्रदेश में माली कहते हैं। उत्तर प्रदेश में कुछ जगहों में इसे जंगली चिरौंजी भी कहते हैं। इसका वैज्ञानिक नाम भारतीय एल्म ट्री (होलोप्टेलिया, इंटीग्रिफोलिया) कहते हैं। मूलरूप से यह भारतीय उपमहाद्वीप, चीन और म्यांमार में पाया जाता है। यह भारतीय मूल का पेड़ है, इसीलिए इसका संस्कृत में नाम और इसके गुणों का विस्तृत वर्णन मौजूद है।
वैसे शायद आपने भी यह पेड़ देखा होगा, लेकिन कम प्रसिद्ध होने के कारण ज्यादातर लोग इसे नोटिस नहीं लेते। अमूमन 15 से 20 फीट ऊंचे इस पेड़ की छाल चिकनी, भूरी और कुछ-कुछ सफेद रंग लिए होती है। इसके पत्ते 8 से 13 सेंटीमीटर लम्बे और 3 से 6 सेंटीमीटर चौड़े होते हैं, इन्हें मसलें तो इनसे तीखी गंध आती है। यह एक औषधीय पेड़ जिसके विभिन्न हिस्सों का पारंपरिक भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में कई तरह से उपयोग किया जाता है। इसकी छाल, इसके पेड़ की पत्तियां, बीज सबकुछ औषधीय प्रॉपर्टी से परिपूर्ण होते हैं। डायबिटीज, दाद खाज खुजली, गठिया रोग और पीलिया में इस पेड़ के अलग-अलग हिस्से औषधीय रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं। इस पेड़ की जो एक खासियत है, जिसकी वजह से इसे कई तरह के नाम मिले हैं, वह खासियत इसके बीज में छिपी है। इसकी चौड़ी पत्तियों में छोटा सा किसी बटन की तरह बंद चिरौंजी का अभास देता बीज होता है, जो बेहद पोषक तत्वों और फैट से भरा होता है। ग्रामीण इलाकों में मई और जून के दिनों में जब काफी तेज़ शुष्क हवाएं चला करती हैं, तब इस पेड़ में गुच्छों के रूप में लगे इसके बीज धरती में गिरकर बिछ जाते हैं। उन दिनों ग्रामीण इलाकों में बच्चे इन बीजों को इकट्ठा करके मेवों की तरह खाते हैं।
इसे देसी चिरौंजी या जंगली चिरौंजी भी कहते हैं। लेकिन इसमें जो महत्वपूर्ण पोषक तत्व पाये जाते हैं, वे चिरौंजी से किसी भी रूप में कम नहीं बल्कि ज्यादा होते हैं। इसका यह बीज शरीर को भरपूर पोषक तत्व और ऊर्जा प्रदान करता है। इसलिए बंदर भी अपनी भूख मिटाने के लिए इसे खूब खाते हैं। इसके छोटे से चिलगोजे माफिक फल में प्रोटीन, मैगनीशियम और फास्फोरस का भंडार होता है, जो हड्डियों के लिए फायदेमंद होता है। इसके चिलगोजे को खाने से भूख तो मिटती ही है, इसके पौष्टिक तत्वों से हम कई तरह की बीमारियों से भी दूर रखते हैं। इसमें खास तौर पर गठिया, डायबिटीज और पीलिया जैसे रोग होते हैं। इसकी स्वादिष्ट खीर भी बनती है, जो पारंपरिक खीर के मुकाबले कहीं ज्यादा पौष्टिक होती है।
इसकी पत्तियों से चिरूबिलवाड़ी कषायम तैयार किया जाता है, जो पेट की बीमारियों को दूर करने में मददगार होता है और हल्के रेचक के रूप में काम करता है। इसके बीजों में जबरदस्त तेल होता है, 50 प्रतिशत से भी ज्यादा। हालांकि इसका तेल अभी तक खाया नहीं जा रहा, लेकिन जिस तरह इसमें भरपूर पोषक तत्वों की मौजूदगी है, जैसे लोहा, जस्ता, तांबा, सल्फर, पोटेशियम, कैल्शियम और फास्फोरस आदि उसके कारण इस तेल का बहुत औषधीय उपयोग है। इसके बीज की सब्जी भी बनती है और लोग यूं भी उठाकर इन्हें खाते हैं। जहां तक इस पेड़ को लगाने से किसानों को फायदे की बात है तो वह फायदा इसलिए होता है, क्योंकि चिलबिल की लकड़ी से बिल्डिंग निर्माण के लिए सटरिंग तैयार की जाती है, इसके लिए ये लकड़ी बहुत महत्वपूर्ण होती है।
यही वजह है कि एक जमाने में जिस चिलबिल को कोई पूछता तक नहीं था, उस चिलबिल की लकड़ी आज बाजार में साखू और सागौन की तरह कीमती और उपयोगी है। इसलिए किसान इस पेड़ को लगाकर अच्छी खासी कमाई कर सकते हैं। दस साल पुराना स्वस्थ और विकसित चिलबिल का कोई भी पेड़ एक से डेढ़ लाख रुपये में आसानी से बिक जाता है। इसलिए एक एकड़ में चिलबिल के पेड़ लगाये जाने पर 10 से 15 सालों में एक करोड़ रुपये तक की आमदनी हो सकती है। चिलबिल का यही आर्थिक महत्व देखते हुए आजकल किसान इसे कॉमर्शियली लगा रहे हैं। विशेषकर उत्तर प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर