कहानी - दिहाड़ी

कसराहगंज के मजदूर चौक पर धूप अभी इधर-उधर कुछ टुकड़ों में ही बिखरी थी। सर्दी के दिन थे। जैसे-जैसे मज़दूर आते जा रहे थे वैसे-वैसे इन धूप के टुकड़ों में ही सिमटते जा रहे थे। मजदूर बढ़े, तो सूर्य की यात्रा के साथ धूप भी बढ़ी। पर कुछ देर बाद यह धूप के टुकड़े भी कम पड़ने लगी और बाद में आने वाले मज़दूर ठिठुरते हुए छाया में खड़े रहे।
इन सभी दिहाड़ी मजदूरों को इंतजार था कि कोई उन्हें बेलदारी, पुताई आदि किसी रोज़गार के लिए यहां से ले जाए। यदा-कदा दो-चार ठेकेदार या अन्य व्यक्ति आते थे और सौदा तय होने पर मज़दूरों को ले जाते थे।
पहले तो मज़दूर अपना सामान्य रेट मांगते थे, पर यह देखते हुए कि कोई दूसरे मज़दूर कम रेट पर न मान जाएं, वे सामान्य रेट से कम मज़दूरी पर भी काम करने के लिए तैयार हो जाते थे।
यहां एक घंटे से खड़ा मन्नू भी यही सोच रहा था कि उसने ठेकेदार की बात क्यों न मानी। ठेकेदार ने 300 रुपए की दिहाड़ी बताई थी पर मन्नू ने 500 रुपए मांगे। अंत में ठेकेदार किसी दूसरे मजदूर को लेकर चला गया, शायद 350 पर।
मन्नू ने सोचा था कि यही रेट मांगना उचित था। आखिर आजकल 500 रुपए से भी क्या मिलता है? दिन भर मेहनत करो और फिर भी परिवार को ठीक से खिला-पिला नहीं सकते हैं। फिर 300 रुपए तो बहुत ही कम हैं। चौक पर ज्यादा मज़दूर आ गए हैं तो क्या इसका फायदा उठाकर मजदूरी कम कर दोगे? होना तो यह चाहिए कि इस महंगाई के समय में मजदूरी बढ़े पर ये लोग तो मौका देखते ही मजदूरी और कम कर देते हैं। मन्नू को गुस्सा आ गया था और उसने ठेकेदार को मना कर दिया था।
पर अब वह नए सिरे से सोच रहा था कि क्या उसने सही किया? घर में जो अनाज बचा था वह बस आज के लिए मुश्किल से ही चलेगा। सबके लिए एक समय की रोटी ही बन सकेगी और जो थोड़े से आलू बचे हैं उनकी ज्यादा पानी वाली तरकारी ही बन सकेगी। चायपत्ती भी बस खत्म ही समझो।
अचानक मन्नू को नए सिरे से अहसास हो आया कि उसने सुबह से चाय नहीं पी है। यह सोच कर कि जो थोड़ी सी पत्ती बची है उसे बचा कर ही रखा जाए। पर अब चाय की बहुत जबरदस्त तलब होने लगी थी। चौक के पास का चाय वाला चाय अच्छी बनाता है। मात्रा तो बहुत कम होती है, बहुत छोटे कप में, पर जायका बढ़िया होता है। नसों तक कुछ आराम पहुंचता है, ताजगी आ जाती है। पर इस समय जेब में कुल जमा पूंजी 15 रुपए थी और मन्नू उसका दो-तिहाई हिस्सा इस तरह गंवाना नहीं चाहता था।
तभी चौक के एक कोने में चाय वाले के पास ही कुछ हलचल हुई है। ‘चल यार वहां चल कर देखते हैं। क्या हो रहा है? यहां तो खड़े-खड़े परेशान हो गए।’ उसके दोस्त हरीश ने कहा तो वह भी उसके साथ कोने की ओर बढ़ गया। पर साथ ही उसने एक नज़र सड़क की ओर लगा रखी थी कि कहीं कोई ठेकेदार तो नहीं आ रहा है।
कोने में पेड़ के नीचे एक व्यक्ति अपनी नोट बुक खोल कर बैठा हुआ था और कुछ सवाल पूछ रहा था। कितनी मजदूरी मिल जाती है? ठीक से खाने लायक हो जाता है कि नहीं? रहने के हालात कैसे हैं? किराया कितना देना पड़ता है?
मजदूरों को भी कुल मिलाकर अच्छा ही लग रहा था कि चलो और कुछ न सही, कम से कम कोई हाल पूछने तो आया है।
एक मज़दूर बता रहा था- अरे तो आपसे छिपा है कि महंगाई कितनी बढ़ गई है। सब्जी, दाल सभी कुछ तो महंगा है। फिर हमारे तो अभी राशन कार्ड भी नहीं बने हैं।
- अरे राशन कार्ड भी नहीं बना है?
- नहीं वह अभी तो नहीं बने हैं। गांव में ज़रूर बने थे पर उनसे अभी राशन नहीं मिलता है।
- तो फिर तो खान-पान बहुत महंगा हो गया होगा?
- और नहीं तो क्या? अभी इतने मज़दूर आस-पास खड़े हैं, पूछ लो कोई घर से चाय भी पीकर आया हो।
माहौल कुछ भारी सा हो गया। मीडिया वाले व्यक्ति के मन में पता नहीं क्या आया कि उसने कहा - तो भाई और कुछ नहीं तो चाय यहां भी मंगवा सकते हैं।
यह कहकर उसने 200 रुपए का नोट अपने सहयोगी को देते हुए 15-20 कप चाय नज़दीक के चाय वाले से लाने के लिए कहा।   (क्रमश:)