आधुनिक भारतीय सिनेमा के निडर फिल्मकार

बॉलीवुड में इस समय एक्शन और प्रोपेगंडा की फिल्मों का दौर चल रहा है, लेकिन ऐसी स्थिति में भी कुछ फिल्मकार हैं, जो निडरता के साथ हमारे राजनीतिक व सामाजिक सच को आइना दिखाने की कोशिश में लगे हुए हैं, वह भी ऐसी प्रभावी कहानी के माध्यम से कि दर्शक बोर नहीं होते बल्कि कुछ सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। आधुनिक भारतीय सिनेमा के ऐसे ही कुछ निडर फिल्मकारों का संक्षेप में जिक्र इस तरह से है- 
रजत कपूर
ये जनाब रिस्क लेने और फिल्म बनाने में नई तकनीक का प्रयोग करने के लिए विख्यात हैं। उनकी फिल्म ‘आंखों देखी’ जहां अंधविश्वास व हालात से समझौता करने को चुनौती देती है, वहीं ‘रघु रोमियो’ सेलेब्रिटी कल्चर की लत और मनोरंजन उद्योग पर तीखा व्यंग्य है।
नंदिता दास
 निडरता के साथ सामाजिक मुद्दों को संबोधित करती हैं और स्टीरियोटाइप्स को चुनौती देती हैं। उनकी फिल्म ‘फिराक’ 2002 के गुजरात दंगों के बाद के हालात की समीक्षा करती है और ‘मंटो’ में निडरता के साथ सादत हसन मंटो के संघर्षों और सत्य व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए उनके समझौता न करने वाले समर्पण को प्रदर्शित करती है। 
हंसल मेहता
 इनकी फिल्मोग्राफी में बोल्ड व सामाजिक दृष्टि से प्रासंगिक फिल्में शामिल हैं। ‘शाहिद’ एक वकील व मानवाधिकार एक्टिविस्ट शाहिद आजमी के जीवन पर आधारित है और ‘अलीगढ़’ सतरंगी समाज के अधिकारों व उनसे होने वाले भेदभाव को संबोधित करती है। हंसल मेहता निडरता के साथ संवेदनशील विषयों को उठाते हैं। 
अनुभव सिन्हा
 ‘आर्टिकल 15’ और ‘थप्पड़’ जैसी फिल्मों के जरिये अनुभव सिन्हा ने निडरता के साथ सामाजिक मुद्दे उठाये हैं जैसे जातिगत भेदभाव और घरेलू हिंसा। कहानी सुनाने के अपने दमदार अंदाज से और सत्य को सत्य के रूप में पेश करके, वह दर्शकों को प्रेरित करते हैं कि वह भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर आत्ममंथन करें। अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘मुल्क’ एक ऐसे परिवार की कहानी है, जिस पर राजनीतिक कारणों से गलत आरोप लगाये गये हैं। यह फिल्म आज के दौर में न केवल धर्मनिरपेक्षता की संभावना को तलाशती है बल्कि उसकी आवश्यकता पर बल देती है। 
अनुराग कश्यप
भारतीय समाज की सच्ची तस्वीर दिखाने के लिए विख्यात हैं। मसलन, उनकी फिल्म ‘ब्लैक फ्राइडे’ 1993 के बॉम्बे ब्लास्ट्स पर आधारित है, जिससे मालूम होता है कि वह विवादित विषयों को निडरता से उठाते हैं और उन्हें पूरी ईमानदारी के साथ प्रस्तुत भी करते हैं।    
समाज की सच्ची तस्वीर दिखाने के लिए इन निडर फिल्मकारों को लम्बे-लम्बे डिस्क्लेमर भी देने पड़ते हैं। मसलन, बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश पर अनुराग कश्यप को ‘उड़ता पंजाब’ का डिस्क्लेमर बदलकर यह करना पड़ा ‘... पंजाब ड्रग्स का हाईवे रहा है न कि एंड यूजर’। क्या इससे पंजाब की स्थिति बदल गई? नहीं। हां, फिल्मकार को अवश्य परेशानी हुई। गौरतलब है कि एक दौर था जब फिल्मों में संक्षिप्त स्टैंडर्ड डिस्क्लेमर होता था कि ‘फिल्म के सभी पात्र व घटनाएं काल्पनिक हैं, किसी भी मृत या जीवित व्यक्ति से समरूपता मात्र संयोग है’। लेकिन अब लम्बे-लम्बे व एक ही फिल्म में अनेक डिस्क्लेमर के अतिरिक्त किसी बिंदु को स्पष्ट करने वाले डिस्क्लेमर भी दिए जाने लगे हैं, जैसे ‘इस फिल्म में कुछ अभिव्यक्तियों का प्रयोग केवल परफॉरमेंस को नाटकीय बनाने के लिए किया गया है’ या ‘यह फिल्म गालियों के प्रयोग का समर्थन नहीं करती है’ या ‘हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत भारत में बहुपत्नी विवाह अवैध है’। फिल्म ‘बटला हाउस’ के शुरू में दिए गये डिस्क्लेमर में कहा गया है- ‘यह फिल्म केवल पब्लिक डोमेन में उपलब्ध घटनाओं व सूचना पर आधारित है... यह फिल्म डाक्यूमेंट्री नहीं है और न ही इसका उद्देश्य घटनाओं को सही से प्रतिविम्बित करने का है’। पब्लिक डोमेन में घटनाओं की सूचना होती है या घटनाएं होती हैं? फिर अगर ‘घटनाओं को सही से प्रतिविम्बित’ करने का उद्देश्य ही नहीं है तो वास्तविक घटना पर फिल्म ही क्यों बनायी जाये? 
नागराज मंजुले
 बिना किसी लाग लपेट के ग्रामीण भारत के जीवन को पर्दे पर उकेरते हैं। उनकी फिल्में जैसे ‘फंड्री’, ‘साइरात’ और ‘झुंड’ निडरता के साथ जाति आधारित भेदभाव व सामाजिक असमता को संबोधित करती हैं। साथ ही हाशिये पर पड़े समुदायों के कड़वे सच को उजागर करती हैं। 
दिबाकर बनर्जी
 अपनी सत्य के करीब फिल्मों के लिए विख्यात हैं, जो दर्शकों को सोचने के लिए भी मज़बूर करती हैं। ‘खोसला का घोंसला’ में उन्होंने दिखाया कि भूमि पर अवैध कब्ज़ा करने वाले भ्रष्ट व्यक्ति के विरुद्ध एक मध्यवर्ग के परिवार को संघर्ष के कैसे कैसे पापड़ बेलने पड़ते हैं। ‘शंघाई’ में उन्होंने निडरता के साथ राजनीतिक भ्रष्टाचार को एक्स्पोज किया और यह भी दिखाया कि समाज इस संदर्भ में कितना बेबस है।
फिल्म में तो डिस्क्लेमर, लेकिन फिल्म के प्रमोशन में फिल्म के ‘सत्य’ होने का दावा, यह दोमुही बात किसलिए, सिर्फ पैसा कमाने के लिए? ध्यान रहे कि लगभग सभी डिस्क्लेमर अंग्रेजी भाषा में होते हैं। 
इसके अतिरिक्त अगर फिल्म सेंसर बोर्ड से पास भी हो जाती है, तो कभी-कभी जन विरोध का सामना भी करना पड़ता है, जिससे फिल्म पर प्रतिबंध भी लग जाता है या उसमें काट-छांट करनी पड़ती है। इस स्थिति में भी अगर कुछ फिल्मकार निडरता के साथ अपनी फिल्मों में समाज व राजनीति के ज्वलंत प्रश्न उठाने का साहस दिखा रहे हैं और वास्तविक घटनाओं पर भी फिल्म बना रहे हैं और अपना पैसा निवेश करने का खतरा भी उठा रहे हैं, तो यह वास्तव में बहुत बड़ी बात है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर