गांव की यादें

सुकान्त के पिताजी नये शिक्षा सत्र आरम्भ होने पर मन में यह सोचकर कि मुझे अकेले में कई दिक्कतें होती हैं, घर सूना-सूना लगता है, सुबह झाड़ू-पोछा, नाश्ता-पानी की व्यवस्था फिर ड्यूटी और सायं को थके मांदे घर आकर भोजन... क्यों न परिवार सहित यहां रहूं, बेटा भी अब बड़ी कक्षा में।
छुट्टी लेकर घर आये, अपना विचार जब घरवालों से व्यक्त किया तो माता-पिता ने उसकी बात पर सहमति नहीं जताई। जब वे अपनी बात पर अड़े रहे तो उन्होंने भी खुद के आने में असमर्थता व्यक्त कर पल्ला झाड़ा। विद्यालय से टी.सी. निकाल कर लाये, हप्ते भर की छुट्टियां बिताकर पत्नी और इकलौते पुत्र को साथ लेकर शहर आ गये। दूसरे ही दिन कक्षा आठ में बेटे का प्रवेश करवाकर तुरन्त गणवेश, कॉपी-किताबें अन्य सभी ज़रूरी वस्तुएं खरीदकर चैन की सांस ली। सुकान्त स्कूल जाने लगा। भले ही स्कूल नज़दीक था पर ग्रामीण परिवेश में पला-बढ़ा बच्चे के लिये पहले-पहले अकेले जाना सम्भव न था। दुनिया भर का ट्रैफिक, चौराहे....उसके लिये कठिन ही नहीं असम्भव भी था। पिता जी छोड़ने और लेने स्वयं जाया करते थे। सबकुछ नया-नया वातावरण में घुल-मिल जाना कठिन लग रहा था। कुछ दिनों तक तो वही क्रम चलता रहा लेकिन बाद में वह अकेले ही आने-जाने लगा और धीरे-धीरे सभी बातें सामान्य सी होने लगी थी, लेकिन दिल बुझा-बुझा सा ही रहता। मन हर पल वहीं लगा रहता जिस माटी में पैदा हुआ, पला-बढ़ा। वे साथी जिनके साथ बचपन कटा, हर समय हंसते-खेलते, रूठते-मनाते बीता था, अकेले कहीं भी...। वह अपने को पिंजरे में बंद चिड़िया की तरह समझ रहा था। भीड़ में होते हुये भी अकेला और सबकुछ उपलब्ध होने पर खाली समझ रहा था। और तो और देर से नींद आने पर सपने भी गांव के ही दिखते थे। दादा-दादी का प्यार-दुलार, रूठकर अपनी जिद पूरी करवाना, जब छोटी कक्षा में था तब दादाजी कैसे बस्ता अपने कन्धे पर लादकर ले जाते, मेरा हाथ अपने हाथ से पकड़कर स्कूल तक छोड़ने जाते और छुट्टी होने पर पुन: लेने आते, जिस वस्तु को खरीदने के लिये कहता मेरी इच्छा और शौक पूरा करते, दादीजी सुबह-सायं अपनी पालतू गाय का दूध पिलाती। जिस चीज को खाने की इच्छा होती उसे खुश होकर बनाती। रात में सुंदर मनमोहक कहानियां और पहेलियों को सुनाती। यह सब बातें मुझे कितना आनन्दित करती थीं और साथ ही ज्ञान में...। मेरे लिये तो अब यह सब सुखद बातें मानों...! सुकान्त कोई दुधमुंहा बच्चा तो था नहीं उसका बाल मन इस बात को अच्छी प्रकार से समझ चुका था कि शहरी परिवेश में सारी सुख-सुविधाएं तो होती हैं मगर सुकून भरा जीवन नहीं, वह तो गांव में ही भरपूर मात्रा में मिलता है। प्रकृति के नि:शुल्क खजाने से लेकर सामाजिक रहन-सहन, स्वच्छन्दता भरा जीवन...क्या कुछ नहीं है वहां? हां सुविधाएं बेशक पर सुकून के आगे ये सुविधायें मुझे बौंनी। एकान्त में यह सब सोचते हुए कई बार भौउक भी हो जाता था। रह-रह कर वह गांव की सुखद स्मृतियों में खो जाता।  
अहा! क्या दिन थे वह भी, जब छुट्टी के बाद सभी साथी किसी मैदान या खेत-खलिहान में इकट्ठे होकर खेलते, उछल कूद करते नहीं अघाते थे। जब मर्जी आये किसी के भी घर में चले जाते। खेतों में हल लगाना, गाय-बैलों को चुंगाते हुए जंगली फलों को खाने और प्राकृतिक जलश्रोतों का स्वच्छ निर्मल शीतल और स्वादिष्ट जल पीने, आनन्द के साथ गीत गुनगुनाते। हर एक का स्वभाव ऐसा कि स्नेह से गले लगाते, अपने बच्चों की तरह औरों के बच्चों को भी। यहां तो कोई और तो और ढंग से बात करने को भी राजी। 
मौसम भी कैसा? मत पूछो यहां तो उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहां मई-जून में गर्मी ऐसी कि पंखे-कूलर भी उसके आगे असफल, पसीना, मच्छर...और वहां तो जहां थोड़ी बूंदा-बांदी हुई नहीं कि स्वाइटर और जैकिट पहने बिना रहा नहीं जाता, रजाई-कम्बल ओढ़ने पड़ते हैं। सच कहूं तो हवा-पानी वहां औषधि का काम करते हैं।
इधर सुकान्त मन ही मन यह सोच-सोचकर अपने दिन व्यतीत कर रहा था तो उधर दादा-दादी का हाल भी अच्छा नहीं था। अपने गले की घंटी जिसे बुढ़ापे की लाठी समझ बैठे थे, पोते की याद में दिन-रात तड़पते रहते। घर के भीतर ऐसा लगता मानों खाने के लिये दौड़ रहा हो। पर कर भी क्या सकते थे।
फोन पर बात करके ही अपने मन को बुझाते, लेकिन उस समय की स्थिति भी अजीब सी हो जाती थी, बातें कम और दोनों ओर से सिसकियां अधिक सुनाई देती थी। सुकान्त को किसी बात की कमी नहीं थी। माता-पिता हर प्रकार से उसका ख्याल रखते थे और ऐसा होना स्वाभाविक भी था, पर फिर भी उसे कमजोर और हरदिन उदास देखकर एक दिन पिताजी ने पूछ ही डाला-‘सुकान्त बेटा तेरे शरीर पर तो कुछ खाया-पिया दिख ही नहीं रहा! बोलता भी कम है और... बोल क्या कमी है तुझे जब बोलेगा तभी तो हम समझ पायेंगे वरना...?’
रोते-सिसकते हुए कहने लगा-कमी किसी बात की नहीं लेकिन...! उसने अपनी बात पूरी भी नहीं कही थी कि पिता कौतूहल वश बीच में ही पूछने लगे-लेकिन क्या?  
तुझे अपनी बात साफ-साफ बतानी...लोग भी क्या बोलते होंगे कि क्या इसे खाने को नहीं...! गुस्से में आगबबूला होकर बोल उठे।
‘मेरा मन यहां बिल्कुल नहीं लग...मैं गांव जाना चाहता हूं।’ डरते-डरते सुकान्त ने दिल की भावना व्यक्त की।
‘तू गांव जाना चाहता है! मुझ पर हजारों का चूना लगाकर! ...तुझे जाना ही था तो उस दिन आया ही क्यों? कर देता मना अपने दादा-दादी की तरह। मुझे क्या पता था....!’ पिता बड़बड़ाते हुए वहां से दूर चले गये।
रात में पत्नी ने खाने के लिए बुलाया तो कह दिया-‘मन नहीं कर रहा है।’ बिस्तर पर करवटे बदलते रहे पर नींद नहीं आई। पिता की कही बातें दिमाग पर हथोड़े की सी चोट कर रही थीं, जब उन्होंने समझाते हुए कहा था-‘बेटा बच्चों को पढ़ाना कोई आसान हंसी-मजाक का काम नहीं...उन्हें समझना होता है, पढ़ाने से पहले उनके मन को पढ़ना पड़ता है। जबरन अपनी बात थोपना, उनकी रुचि के विपरीत किसी बात को लादना कदापि बुद्धिमानी नहीं, ऐसे बच्चे सही मार्ग से....।’
सही तो कहा था पिताजी ने आज समझ पा रहा हूं कि...। यह बात अब पहेली सी बन चुकी थी। क्या करूं क्या न करूं इसी उधेड़ बुन में रात्रि के चौथे पहर में कहीं जाकर आंख लगी और स्वप्न लोक में विचरण करने लगे। (सुमन सागर)