कीड़े खाने वाले पेड़-पौधे

जब हम छोटे थे तो हममें से अधिकतर लोग सोचते होंगे कि सब पौधों को जीवित बताते हैं पर ये खाना तो खाते नहीं हैं लेकिन अब हम सब जानते हैं कि पौधे जड़ों द्वारा भोज्य पदार्थ लेते हैं। इसके बावजूद अब भी बहुत से लोगों को नहीं पता कि कुछ पौधे कीटों को खाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि उनका मुंह होता है और वे उन्हें निगल जाते हैं। वास्तव में वे कीटों को आकर्षित करके उन पर एन्जाइमस की क्रिया करके उनका रस शोषित करते हैं। अब सवाल उठता है कि ये कीटों को क्यों खाते हैं? 
ये पौधे नाइट्रोजन की कमी को पूरा करने के लिए कीटों को खाते हैं क्योंकि ये नाइट्रोजन की कमी वाले स्थानों पर उगते हैं। उन्हें कीट भक्षी कहते हैं लेकिन इन्हें मांसाहारी पौधे कहना अधिक उचित होगा।
कीट भक्षी पौधों की लगभग 400 जातियां पायी जाती हैं। इन सभी में कीटों को पकड़ने के लिए पूरी पत्ती या पत्ती का कुछ भाग कार्य करता है। रूपांतरित पत्तियां गतिशील होने के कारण कीटों को पकड़ती हैं जबकि नेपथीन्ज सारासेनिया आदि में घट चटकीले रंग के होने के कारण कीटों को आकर्षित करते हैं। इसी प्रकार की विधि ड्रासेरा और पिनगुई कुला में होती है।
ड्रासेरा : एक छोटा शाक पौधा है जिसकी पत्तियों पर अनेक चमकदार टेन्टेकल होते हैं। इन टेन्टेकल पर चिपकने वाला पदार्थ स्रावित करने वाली ग्रन्थि होती है जो बहुत चमकदार दिखती है। सूरज की रोशनी में यह ओस की बूंदों के समान चमकती है, इसी कारण इसे अंग्रेजी में ‘सनड्य्यू’ कहते हैं। कीट आकर्षित होकर पत्ती पर बैठता है और चिपक जाता है, इसी के साथ-साथ पत्ती अंदर की ओर बंद हो जाती है और कीट बंद हो जाता है। फिर कीट पर एन्जाइम क्रिया करके उसकी प्रोटीन को सरल नाइट्रोजी पदार्थों में बदल देते हैं जिसे बाद में पौधा शोषित कर लेता है। 
एल्ड्रावैन्डा : यह भी एक प्रकार का कीट भक्षी पौधा है। यह भारत में सुन्दरवन तथा मणिपुर में अनेक तालाबों में बहुतायत में पाया जाता है। इनमें पर्णवन्त कुछ फैला हुआ होता है और इसके शिखाग्र पर लैमिना दो लोब्स में विभाजित होता है और पत्ती पर नुकीले कांटे पाये जाते हैं। इसके अलावा पत्ती पर संवेदनशील सेम व पाचक ग्रन्थियां भी होती हैं। जैसे ही कीट पत्ती के संवदेनशील रोम के संपर्क में आता है तो पत्ती बंद हो जाती है और पाचक ग्रंथियों से स्रावित एन्जाइम कीट को अपघटित कर देते हैं। 
इसी प्रकार का एक पौधा नेपेन्यीज है। इसमें बया के घोंसले जैसी रूपान्तरित पत्तियां होती हैं जो दिखने में बहुत सुन्दर लगती हैं इनको पिचर कहते हैं। इसके ऊपर अचल ढक्कन होता है जो वास्तव में लीफ एपैक्स है। यह पिचर अपने चटकीले रंग के कारण कीटों को आकर्षित करता है। इसके नीचे वाले भाग में पाचक ग्रन्थियां होती हैं जिनसे इतना स्राव होता है कि इसका 1/3 भाग स्रावित पदार्थों से भरा रहता है जो मुख्यत: एंजाइम होते हैं। जब कीट आकर्षित होकर मकरंद के लिए नीचे की ओर बढ़ते हैं तो फिसलन के कारण पिचर की तली में भरे स्रावित पदार्थ में जा गिरते हैं जहां इसका पाचन होता है।
पिनगुईकुला एक छोटा रोजेट पौधा है। इसकी पत्तियां बड़ी-बड़ी व मांसल होती हैं। पत्तियों के किनारे हल्के से ऊपर की ओर मुड़े होते हैं। इसकी पत्ती के ऊपरी भाग पर श्लेषमिक ग्रन्थियां होती हैं जिनसे श्लेष निकलता है। जब कीट पत्ती पर बैठता है तो वो उससे चिपक जाता है और फिर पत्ती ऊपर की तरफ मुड़ जाती है जिससे कीट उसमें बंद हो जाता है।
यूट्रीक्यूलोरिया एक मुक्त रूप से तैरने वाला पौधा है। इसमें जड़ें नहीं होतीं। इसमें भी पिचर के जैसी नाशपाती आकार की थैलियां होती हैं। इसके मुंह पर पिचर द्वार होता है जो बाहर से धकेलने पर अन्दर की ओर खुलता है परन्तु अंदर से धकेलने पर बाहर की ओर नहीं खुलता। इस थैली में नेपन्थीज के पिचर की तरह पाचक एन्जाइम स्रावित करने वाली ग्रन्थियां भी होती हैं। पानी जब पिचर से टकराता है तो यह खुल जाता है। पानी के साथ तैरता हुआ कीट इसमें चला जाता है। पिचर द्वार अन्दर से खुल नहीं पाता, इस कारण कीट उसमें बंद रह जाता है तथा ग्रन्थियों से स्रावित एन्जाइम उसका अपघटन कर देते हैं।
कीट भक्षी पौधे सामान्यत: प्राणियों की तरह लक्षण दिखाते हैं जैसे उद्दीपन व गति इत्यादि परन्तु फिर भी कीट भक्षी पौधे प्राणियों से भिन्न है क्योंकि इनके सिर्फ भाग ही गति कर सकते हैं जबकि जन्तु तो कहीं भी घूम सकते हैं। सबसे बड़ा अंतर तो यह है कि पौधे प्रकाश संश्लेषण की क्रि या करते हैं जो जन्तु नहीं कर सकते। यह सिर्फ नाइट्रोजन की कमी को पूरा करने के लिए कीटों का भक्षण करते हैं जबकि कुछ जन्तु जैसे छिपकली, मेंढक इत्यादि अपनी भूख मिटाने के लिए इन्हें खाते हैं। और तो और, इनकी पोषण विधि जन्तुओं से लेशमात्र भी समान नहीं है।  
(उर्वशी)