उम्मीद की किरण

भारत में लोकसभा चुनावों की गतिविधियां शिखर पर हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी अपनी चुनावी रैलियों में बार-बार किसी न किसी ढंग से अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान का ज़िक्र करते आ रहे हैं। पाकिस्तान में भी इन चुनावों को दिलचस्पी एवं गहनता से देखा जा रहा है। अक्सर वहां के अनेक राजनीतिक नेता भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बात करते रहते हैं। जहां अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भी भारत के प्रभाव को स्वीकार किया जाता रहा है, वहीं पाकिस्तान विश्व भर के लोगों को पिछड़ता दिखाई दिया है, क्योंकि वहां अनेक तरह के ़खतरनाक आतंकवादी संगठनों का जमावड़ा हो चुका है।
पाकिस्तान इन संगठनों को किसी न किसी तरह अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करता रहा है। यहां तक कि बड़े देशों से हर तरह की सहायता प्राप्त करने के लिए उन्हें अपनी धरती का उपयोग करने की इजाज़त भी देता रहा है। काफी समय पहले सोवियत यूनियन की ओर से अफगानिस्तान में अपनी सेना भेजने के बाद पाकिस्तान ने अमरीका को अपने पड़ोसी देश अफगानिस्तान में कब्ज़ा करके बैठे सोवियत यूनियन के सैनिकों के विरुद्ध कार्रवाइयां करने के लिए अपनी धरती का इस्तेमाल करने की इजाज़त दी। अ़फगानिस्तान से लाखों की संख्या में पाकिस्तान पहुंचे नागरिकों को शरण देने के साथ-साथ सोवियत यूनियन की सेना के विरुद्ध लड़ने के लिए हथियार चलाने का प्रशिक्षण ही नहीं दिया, अपितु पाकिस्तान के बड़ी संख्या में मुजाहिदों को भी अ़फगानिस्तान में लड़ने के लिए भेजा। लम्बे संघर्ष के बाद चाहे अमरीका की सहायता से पाकिस्तान में  सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त तालिबानों ने सेवियत सैनिकों को निकाल कर अ़फगानिस्तान के ज्यादातर भाग पर कब्ज़ा कर लिया, परन्तु पाकिस्तान में स्थापित अमरीकी अड्डों पर तैयार हुए तालिबानों ने दशक भर रूस को किसी न किसी रूप में परेशान करके रखा। बाद में ओसामा बिन लादेन ने अमरीका के ट्रेड सैंटर पर हमला करवा दिया और अमरीकी सेना अ़फगानिस्तान में आ गई तो पाकिस्तान द्वारा अमरीका को भी अपनी ज़मीन तथा अड्डे अ़फगान तालिबान के विरुद्ध इस्तेमाल करने की स्वीकृति दी गई। इसी समय के दौरान पाकिस्तान तालिबान को अमरीका के विरुद्ध किसी न किसी ढंग से सहयोग देता रहा। अमरीकी सैनिकों के वापिस लौट जाने के बाद अ़फगानिस्तान पर तालिबान का पुन: पूर्ण रूप से कब्ज़ा हो गया, परन्तु उनके संबंध पाकिस्तान के साथ सुखद नहीं रहे। पाकिस्तान सरकार के विरुद्ध अ़फगानी तालिबान, पाकिस्तानी तालिबान की सहायता कर रहे हैं। 
पाकिस्तान के सरकार विरोधी आतंकवादी संगठनों ने अ़फगानिस्तान के सीमांत क्षेत्रों में अपने अड्डे स्थापित कर लिये हैं, जो प्रतिदिन पाकिस्तान के लिए बड़ी चुनौती बने हुये हैं। आज पाकिस्तान आर्थिक पक्ष से भी बेहद बुरे हालात में से गुज़र रहा है। वहां करोड़ों लोग गरीबी में से गुज़र रहे हैं। आतंकवादी संगठनों का जमावड़ा सेना तथा लोगों के लिए सिरदर्द बना हुआ है। चाहे इनमें से कुछ संगठनों ने पाकिस्तानी सेना की शह पर भारत में भी लगातार हथियारबंद लड़ाई का बीड़ा उठाया हुआ है परन्तु लम्बे रक्तिम संघर्ष के बाद उन्हें इस मामले में कोई बड़ी उपलब्धि प्राप्त नहीं हुई। इसीलिए आज पाकिस्तान हर पक्ष से अनिश्चितता के दौर में से गुज़र रहा है, परन्तु इसके साथ-साथ वहां राजनीतिक मंच पर जो घटनाक्रम घटित हो रहा है, वह कुछ उम्मीद पैदा करने वाला भी प्रतीत होता है। खास तौर पर पाकिस्तान की नवाज़ शऱीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) के राजनीति में प्रभाव बनाने के साथ वहां राजनीतिक स्थिरता पैदा होने की उम्मीद बनी है। नवाज़ शऱीफ पहले तीन बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बन चुके हैं। आगामी समय में उनके पुन: देश की राजनीति की बागडोर सम्भालने की सम्भावनाएं बनती दिखाई दे रही हैं। नवाज़ शऱीफ का भारत के प्रति रवैया अक्सर सकारात्मक रहा है। वह और उनकी पार्टी यह विश्वास रखते हैं कि अपने बड़े पड़ोसी देश भारत के साथ संबंध स्थापित करके ही पाकिस्तान के हालात को बेहतर किया जा सकता है।
इस संबंध में वर्ष 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री होते हुये उनका लाहौर तक की बस यात्रा, दोनों देशों के संबंधों के लिए एक ऐतिहासिक कदम था। लाहौर में ही नवाज़ शऱीफ के प्रधानमंत्री होते 21 फरवरी, 1999 को दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने लाहौर घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किये थे, जिसमें दोनों देशों के नेताओं ने न सिर्फ आपसी संबंधों को सुधारने की बात की थी, अपितु ज्यादातर क्षेत्रों में आपसी मेल-मिलाप बढ़ाने को भी अधिमान दिया था, परन्तु पाकिस्तान का दुर्भाग्य यह रहा है कि वहां की सेना का अपना एजेंडा है, जिसके लिए वह निर्वाचित सरकार को भी अक्सर दर-किनार कर देती है। इस समझौते के कुछ मास बाद ही सैनिक जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने भारत में दाखिल होने के यत्न में कारगिल का युद्ध छेड़ दिया था, जिससे दोनों देशों के संबंध पूरी तरह से बिगड़ गये थे। आज भी सेना की ओर से आतंकवादियों को हथियारों से लैस करके भारत भेजा जाता है। चाहे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री बनते ही न सिर्फ उस समय के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शऱीफ को अपने शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का स्निग्ध निमंत्रण ही भेजा था, अपितु इसके बाद स्वयं भी अनिर्धारित यात्रा पर नवाज़ शऱीफ को मिलने के लिए पहुंच गये थे। उस समय भी दोनों देशों के अच्छे संबंध बनने की उम्मीद पैदा हुई थी, परन्तु सेना की नीतियों के सामने पाकिस्तान की निर्वाचित हुई सरकारें घुटने टेकती रही हैं। वर्ष 2019 के पुलवामा हमले में 40 भारतीय सैनिकों के आतंकवादी कार्रवाई में शहीद होने के बाद पुन: दोनों देशों के संबंध बिगड़ गये थे। 
अब एक बार फिर जब नवाज़ शऱीफ और उनकी पार्टी देश की सत्ता पर काबिज़ हो गई है तो ऐसे समय में नवाज़ शऱीफ के उस बयान में उम्मीद की बड़ी किरण दिखाई देती है, जिसमें उन्होंने यह माना है कि 1999 की लाहौर संधि के बाद मुशर्रफ की ओर से कारगिल युद्ध छेड़ना पाकिस्तान की बहुत बड़ी गलती थी, जिसका खमियाज़ा उसे भुगतना पड़ता रहा है। आगामी समय में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई पाकिस्तान की सरकार यदि भारत के प्रति सुखद रवैया अपनाने में सफल होती है, तो इससे दोनों देशों के मध्य संबंधों का एक नया अध्याय शुरू होने की उम्मीद बन सकती है, जो समूचे दक्षिण एशिया के क्षेत्र के लिए एक अच्छा सन्देश साबित हो सकेगी।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द