आज भी साक्षरता से कोसों दूर हैं राष्ट्र के होनहार !
राष्ट्रीय साक्षरता दिवस पर विशेष
आज देश को 21वीं शताब्दी में ले जाने का सपना सभी देख रहे है लेकिन यह देश के उन गरीब बच्चों का दुर्भाग्य ही माना जायेगा आज भी शिक्षा से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। देश में प्रतिवर्ष राष्ट्रीय साक्षरता मिशन का ढिंढोरा तो अवश्य पीटा जाता है, लेकिन राष्ट्रीय साक्षरता दिवस मात्र दिवास्वप्न ही बन कर रह गया है। संविधान के अनुच्छेद 45 के अंतर्गत 14 साल की उम्र के हर बच्चे को मुफ्त शिक्षा (प्राथमिक) मुहैया कराने का प्रावधान है लेकिन आजादी के 76 वर्ष बाद भी हम उस मिशन को पूरा करने में पूरी तरह से विफल हुए है। देश में 6 करोड़ बच्चे ऐसे है, जिन्होंने दो कमाऊ हाथ के रूप में जन्म लिया है और बाल मज़दूर के रूप में कठोर परिश्रम कर स्वयं का व परिवार का पेट भरने को मजबूर हैं। इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि गरीब परिवारों से शिक्षा आज भी उतनी ही दूर है जितनी कि आजादी से पूर्व थी। अगर कोई 2-3 कक्षा पढ़कर अपना नाम लिखने तक सीमित भी हो गया तो सरकारी आंकड़ों में फर्जी तौर पर उसे शिक्षित मान लिया जाता है। मगर इस सच को तो वही जानते हैं जो सही मायने में शिक्षा का अर्थ जानते है। आज देश की जनता के सम्मुख भुखमरी, गरीबी य बीमारियां व गरीब अमीर जैसे भेदभाव मुंहवाये खड़े है। ऐसी स्थिति में हम साक्षरता का लक्ष्य कैसे पूरा कर पायेंगे। ये शिक्षाविदों व केन्द्र राज्य सरकारों के लिए भी चुनौति है।
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि यहां की दोहरी शिक्षा नीति की वजह से सबसे ज्यादा नुकसान शिक्षा जगत को हुआ है, जिसका खामियाजा देश के विद्यार्थी भुगत रहे हैं। मुफ्त प्राथमिक शिक्षा देने का लक्ष्य पूर्व में 1960 तक रखा गया था लेकिन कुछ निहित स्वार्थी के कारण यह देश की गंदी राजनीति के दकियानूसी तौर-तरीके में फंस कर रह गई। मुनिवादी शिक्षा पर विश्व बैंक व केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारें करोड़ो रुपये खर्च करने के बावजूद संवैधानिक मौलिक अधिकार को सफल बनाने के उद्देश्य से बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाती हैं लेकिन प्रशासनिक अव्यवस्था के चलते ये बीच में ही चरमरा कर दम तोड़ जाती है। गरीबों के बच्चे फिर हाशिए पर ही रह जाते है। राष्ट्रीय अध्यापक परिषद् के अनुसार देश में लाखों शिक्षक है उसके बावजूद भी ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों के ताले तक नहीं खुलते है और तो और शिक्षकों की भारी भरकम जमात में से हजारों शिक्षक ऐसे भी हैं जिन्हें क्या पढ़ाएं कैसे पढ़ाएं तक का भी ज्ञान नहीं है। इसके पीछे भी हकीकत तो यह भी सामने है कि अध्यापक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम संरचना के दौरान प्रशिक्षित किये जाने वाले 45 प्रतिशत स्कूली शिक्षकों को अपनी सेवा अवधि के बीच में कोई ठोस प्रशिक्षण तक नहीं दिया जाता है।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् की रिपोर्ट के अनुसार प्राथमिक विद्यालयों में 50 प्रतिशत विद्यार्थी अपनी पढ़ाई पूरी इसलिए नहीं कर पाते है क्योंकि विद्यार्थियों को पढाने के लिए शिक्षक नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो सबसे बुरा हाल शिक्षा-व्यवस्था का ही है जहां प्राथमिक विद्यालयों को मिलने वाला अनुदान इतना कम मिलता है कि उसमें से अधिकांश धनराशि शिक्षकों को वेतन देने व अन्य प्रशासनिक कार्यों में ही खप जाती है। विद्यालय आवश्यक सुविधाओं बिजली, पानी, ब्लैक बोर्ड, कम्प्यूटर शौचालयों से वंचित रह जाते है। हालांकि अब व्यवस्था में थोड़ा सुधार ज़रुर देखा जा सकता है क्योंकि बालिका शिक्षा को प्रोत्साहन देने हेतु गांवो के स्कूलों में शौचालय बनाये जा रहे हैं लेकिन पानी के अभाव में इनको कोई वजूद नज़र नहीं आता है। देश की वर्तमान शिक्षा नीति में अनेक त्रुटियां है। यहां अध्यापकों को अध्यापन के अलावा मतगणना, टीकाकरण, पशुगणना व मिड डे मिल जैसी अनेकों सरकारी कार्यों के लिए धकेल दिया जाता है। ऐसी स्थिति में विद्यालय के विद्यार्थियों को कौन पढ़ायेगा व किस तरह पाठ्यक्रम पूरा होगा यानि कि सबकुछ भाग्य भरोसे। आज सरकारी स्कूल का स्तर काफी नीचे आ गया है। वही आज की शिक्षा नीति के चलते शिक्षकों का अपने विद्यार्थियों के प्रति उदासीन व लापरवाही बरतना भी एक कारण बन गया जिसके चलते शिक्षकों के प्रति विद्यार्थियों में सम्मान की भावना भी कम हुई है। बच्चों में शिक्षा के प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए बस्ते का बोझ घटाने और शिक्षा और शिक्षा में गुणात्मक सुधार के उद्देश्य से कदम उठाये जा रहे है लेकिन इसकी सार्थकता तभी है जब बच्चे प्राथमिक कक्षाओं में सीखें, इससे बच्चों का मानसिक व शारीरिक विकास भी होगा। यह कहने में कोई संकोच नहीं होता है कि जहां केन्द्र व राज्य सरकारें अपने लोक लुभावन कार्यक्रमों के माध्यम से शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाने के लिए प्रयासरत है, वहीं शिक्षा व्यवस्था में असमानता व गरीबी तथा पिछड़े वर्ग के बच्चों से भेदभाव करके उनमें हीन भावना पैदा करने की घटनाएं भी सामने आती है व बच्चे बीच में ही पढाई छोड़ देते है व देश के अल्पसंख्यक मुस्लिम वर्ग की आबादी की आधे से ज्यादा महिलाएं शिक्षित नहीं है यानि कि वे ‘अंगूठा छाप’ है। सरकारों को इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए। शहरी क्षेत्रों में जिस तरह से नई-नई शिक्षण संस्थाएं खुल रही है।
केन्द्र सरकार की पिछली रिपोर्टों में 5वीं कक्षाओं के बच्चों द्वारा बीच में ही स्कूल छोड़ने की दर 46 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत व माध्यमिक कक्षाओं की दर 60 प्रतिशत के घटकर 25 प्रतिशत होने की बात कही गई है लेकिन इस दिशा में सुधार के प्रयास अब भी काफी दूर नज़र आते है। यह तभी संभव है जब इस दिशा में प्रशासन के अलावा शिक्षक, शिक्षा अधिकारी, शिक्षाविद तथा राजनेताओं व आमजन भी ध्यान दें। केवल सरकारी नीतियों व घोषणाओं के जरिये सबको शिक्षा का सपना तो अभी भी कोसों दूर है। बालिका शिक्षा को ज़रुर बढ़ावा मिला है फिर भी देश की साक्षरता दर को शत-प्रतिशत अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के अवसर देने हेतु मौलिक अधिकारों में शामिल करने संबंधी विधेयक भी लाया जाये तभी राष्ट्रीय साक्षरता मिशन का सपना पूरा हो सकेगा।
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