रिश्तों की परिभाषा
अनिल बाबू अस्पताल के बेड पर पड़े सुमित को डबडबायी आंखों से देख रहे थे। यदि सुमित नहीं होता तो उनकी मौत निश्चित थी। सुमित उनका अपना खून नहीं था, लेकिन उसका यह त्याग उन्हें नयी जिंदगी दी थी। अपना खून कभी उनका हाल-चाल तक लेने नहीं आया। सुमित को निहारते वे अपने अतीत में खो गये।
अनिल बाबू अधिकारी थे। उनके सरकारी बंगले पर रोज़ न कितने लोग उनसे मिलने आते थे। एक दिन उनके गांव का हरिया उनसे मिलने आया था और कहीं काम दिला देने के लिए आरजू मिन्नत करने लगा। हरिया का गांव था ही क्या? न घर न जमीन। वह दूसरों के खेतों में काम कर अपने बेटे के साथ जीवन यापन करता था। पत्नी बच्चे को जन्म देते समय गुजर गयी थी। अब उसे गांव में काम मिलना बंद हो गया था। अनिल बाबू उसकी बेबसी और लाचारी से परिचित थे। उसके प्रति उनके मन में दया का भाव उमड़ आया। वे एक ईमानदार अधिकारी थे। इसलिए वे हरिया को काम पर रख लेने के लिए किसी के पास सिफारिश नहीं कर सकते थे।
यही सोचकर उन्होंने हरिया से कहा- ‘मैं तुम्हारी गरीबी और लाचारी से परिचित हूं, लेकिन तुम पड़े-लिखे भी नहीं हो कि कहीं काम पर लगा दूं। तुम्हें काम पर रखवाने में असमर्थ हूं। मुझे माफ करना। मैं अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं कर सकता।’
हरिया हाथ जोड़कर बोला- ‘आपके पास बड़ी आशा से आया था। गांव में अब काम नहीं मिलता। इस मासूम का भी पालन-पोषण नहीं कर पा रहा हूं। कम से कम दाल-रोटी की जुगाड़ कर दीजिए। अपने बच्चे को भूखा सोते नहीं देख सकता। आप चाहेंगे तो मेरे बेटे की भूख मिटने के साथ उसका भविष्य भी संवर जाएगा।’
हरिया की बात सुनकर अनिल बाबू का हृदय द्रवित हो उठा। वे सोच में पड़ गये कि इसकी मदद करुं तो कैसे? काफी सोच-विचार के बाद बोले- ‘ठीक है, तुम मेरे घर का काम कर देना। ये मत समझना कि तुम मेरे नौकर हो बल्कि मुझे अपना भाई ही समझना। तुम्हारे बच्चे को स्कूल में नाम लिखवा दूंगा। अब तुम यहीं रहोगे।’
उस दिन से हरिया उनके बंगले में ही रहने लगा। उसका बच्चा स्कूल जाने लगा। अनिल बाबू के इकलौते बेटे प्रभात को स्कूल पहुंचाना? लाना और बाजार से साग-सब्जी लाने के अलावा वह उनके घर का काम भी ईमानदारी पूर्वक करने लगा। कुछ माह बाद अनिल बाबू की पत्नी एक लाइलाज बीमारी की शिकार हो गयी। काफी इलाज कराने के बावजूद भी वे अपनी पत्नी की जान बचाने नहीं पाये। पत्नी के जाने के बाद वे भीतर से टूट गये और उन्हें इस बात की चिंता सताने लगी कि अब प्रभात की परवरिश कैसे होगी? ऐसे कठिन समय में हरिया उन्हें टूटने नहीं दिया। वह उनकी ढाल बनकर खड़ा हो गया और बोला- ‘आप प्रभात बाबू की परवरिश की चिंता क्यों करते हैं? उनकी देखभाल में कोई कमी नहीं होने दूंगा।’
और सचमुच हरिया प्रभात की सेवा में जी-जान से जुट गया। प्रभात बड़ा हो गया और डॉक्टर की पढ़ाई करने के लिए विदेश चला गया। अनिल बाबू फिर अकेले हो गये, लेकिन हरिया और उसका बेटा सुमित उन्हें एकाकीपन का एहसास नहीं होने दिया।
कुछ समय बाद हरिया भी इस दुनिया से विदा हो गया। हरिया के जाते ही सुमित के सामने यह समस्या खड़ी हो गयी कि अब उसका क्या होगा? अब उसकी जिंदगी कैसे कटेगी? कौन उसकी परवरिश करेगा?
अनिल बाबू उसके मन हो रहे उथल-पुथल को भलीभांति समझ रहे थे। वे सुमित को गले लगाते हुए बोले- ‘हरिया नहीं है तो क्या हुआ? मैं हूं न। तुम्हें अपने बेटे की तरह पालूंगा। तू अपने मन से बेकार की बातों को बाहर निकाल दें और मन लगाकर पढ़ाई कर।’
सुमित अनिल बाबू के अपनापन और प्यार पाकर हरिया को भूलता जा रहा था। अनिल बाबू में ही उसे हरिया की छवि दिखाई देती थी। उसे परायेपन का एहसास नहीं होता था मानो वह भी उनका अपना खून हो। उनसे उसका अपनापन का रिश्ता प्रग़ाग होता गया। उन्हें ही वह अपना सबकुछ मान लिया। अनिल बाबू रिटायर हो गये। वे सरकारी बंगला खाली कर अपने घर आ गये। प्रभात भी अपनी पढ़ाई पूरी कर कुछ दिनों के लिए घर आया था। फिर वह विदेश जाने की तैयारी करने लगा।
अनिल बाबू ने प्रभात को समझाते हुए कहा- ‘विदेश में क्या रखा है? अपने देश में रहकर भी तो अपनी जिंदगी की नई शुरुआत कर सकता है। फिर यहां किस चीज की कमी है। तेरे बिना घर सूना-सूना लगता है। तेरी मां के जाने के बाद मैं अकेला हो गया हूं। कम से कम मेरी खातिर तो रुक जा। यही शादी कर अपनी गृहस्थी बसा ले। मेरा भी अकेलापन दूर हो जाएगा।’
(क्रमश:)