सआदत हसन मंटो के कुछ अनसुने किस्से

सर्दियों के दिन थे। सआदत हसन मंटो और कृष्णचंदर के पास गर्म सूट तो थे, लेकिन फटे हुए। दोनों को सूट की ज़रूरत थी। दोनों ने मिलकर एक फिल्मी कहानी लिखी- ‘बंजारा’, जिसे मंटो ने एक नये निर्माता को मात्र 20 मिनट की गुफ्तगू में बेच दिया, 500 रुपये में। अपने अपने सूट का कपड़ा खरीदने के बाद उसे जल्द सिलाने के लिए अब्दुल गनी टेलर मास्टर को दे दिया गया, जिनकी दुकान पुरानी दिल्ली में थी लेकिन सूट का कपड़ा दज़र्ी को देने और सूट मिलने के बीच की जो अवधि थी, उसमें दोनों ने बाकी रुपया घोलकर पी लिया। अब्दुल गनी से उधार सूट लेकर पहन भी लिया, लेकिन कई माह तक सिलाई का उधार चुकाया न जा सका। इसलिए दोनों अब्दुल गनी की दुकान से बचकर या मुंह छुपाकर निकलते। 
एक दिन दोनों को अब्दुल गनी ने कश्मीरी गेट पर पकड़ लिया और मंटो का गिरेबान पकड़कर सवाल किया, ‘वो ‘हत्तक’ (कहानी) तुमने लिखी है?’ ‘लिखी है तो क्या हुआ? तुमसे सूट उधार सिलवाने का मतलब यह नहीं कि तुम मेरी कहानी के अच्छे नाकिद (आलोचक) भी हो...मेरा गिरेबान छोड़ो,’ मंटो ने जवाब दिया। 
अब्दुल गनी के चेहरे पर अजीब-सी मुस्कान आयी। उसने मंटो का गिरेबान छोड़ते हुए कहा, ‘जा तेरे उधार के पैसे माफ किये,’ और वह वहां से चला गया। मंटो सकते में आ गये। वह इस तारीफ से खुश न थे, ‘साला क्या समझता है? मुझे परेशान करेगा... मैं उसकी पाई-पाई चुका दूंगा ... साला समझता है ‘हतक’ मेरी अच्छी कहानी है। ‘हत्तक’? ‘हत्तक’ तो मेरी सबसे बुरी कहानी है।’ 
हालांकि सआदत हसन मंटो (11 मई 1916-18 जनवरी 1955) की कब्र के शिलालेख पर लिखा है- ‘ये लोह (शिलालेख) सआदत हसन मंटो की कब्र की है जो अब भी समझता है कि उसका नाम लौहे-जहां (संसार के पटल) पे हर्फे-मुकरर (फिर से लिखा हुआ शब्द) नहीं था’; लेकिन इससे अलग मंटो ने अपनी कब्र के लिए एक और कत्बा (शिलालेख) 18 अगस्त 1954 को इस तरह से लिखा था- ‘यहां सआदत हसन मंटो दफन है। उसके सीने में फन्ने-अफसानानिगारी (कहानी लिखने की कला) के सारे असरार-ओ-रमूज़ (रहस्य व चिन्ह) दफन हैं; वह अब भी मनों मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि वह बड़ा अफसानानिगार है या खुदा?’ इसमें शक नहीं है कि मंटो वास्तव में हर्फे-मुकरर नहीं हैं यानी उन जैसा कोई दूसरा कहानीकार नहीं होगा और यह भी सच है कि इतना साहस मंटो ही दिखा सकते थे कि खुदा को ही चुनौती दे दें कि कौन बड़ा अफसानानिगार है? यही वजह है कि मंटो अपनी मौत के 70 बरस बाद आज भी प्रासंगिक हैं, आगे भी रहेंगे; आज भी पढ़े जाते हैं, आगे भी पढ़े जाते रहेंगे। मंटो में यह दिलचस्पी केवल इसलिए नहीं है कि वह कालजयी अफसाने, ड्रामे, खाके, पत्र आदि लिखते थे बल्कि उनके खुद के किस्से उन्हें ही दिलकश अफसाना बना देते हैं। आपने उनके अधिकतर किस्सों को तो सुन ही रखा होगा, यहां हमारी कोशिश मंटो के कुछ अनसुने किस्से सुनाने की है।
एक दिन एक साहब मंटो से मिलने के लिए आये। वह सीआईडी का कर्मचारी था। उन दिनों मंटो पर ‘अश्लील अफसाने’ लिखने के आरोप में मुकद्दमा चल रहा था। इसलिए वह समझे कि लाहौर से गिरफ्तारी का वारंट होगा। उन्होंने उस व्यक्ति से मालूम किया, ‘फरमाइए, अब की बार मेरी किस कहानी पर इताब नाज़िल (संकट का आना) हुआ है?’ वह मंटो की बात समझा नहीं और कहने लगा, ‘इधर हम तपास (पूछताछ) करने आया है ... तुम्हारा नाम उधर कम्युनिस्ट पार्टी के ऑफिस में चोपड़ी में लिखा है ... बोलो, तुम्हारा क्या ताल्लुक (संबंध) है उससे?’ यह सुनकर मंटो को तसल्ली हुई, लेकिन शरारत भी सूझी और इसलिए बोले, ‘ताल्लुक किस से, चोपड़ी से या कम्युनिस्ट पार्टी से?’ जब उसने कम्युनिस्ट पार्टी से कहा तो मंटो ने कहा, ‘ताल्लुक है, मगर नाजायज़ (अवैध) ताल्लुक है।’ ‘क्यों है?’ उसने सवाल किया। ‘इसलिए कि तुम्हारी हुकुमत यही समझती है, वरन तुम यहां तपास करने क्यों आते?’ मंटो ने जवाब दिया। 
अपने काव्य या कहानी संग्रह में परिचय या प्रस्तावना के तौरपर खुद कुछ लिखने या लिखवाने की परम्परा हर भाषा में रही है, लेकिन 12 अप्रैल 1942 को मंटो ने लिखा, ‘लोग मुझे जानते हैं, इसलिए तआऱुफ (परिचय) की ज़रूरत नहीं। पेशलफ्ज़ (प्राक्कथन) मैंने इसलिए नहीं लिखा कि जो कुछ मुझे कहना है, मैंने अपने मज़ामीन (लेखों) में कह दिया है। दीबाचा (भूमिका) या मुकद्दमा (प्रस्तावना) मैंने इसलिए किसी से नहीं लिखवाया कि मेरे नज़दीक यह उस शहबाले की तरह मज़हकाखेज़ (हास्यास्पद) हद तक ़गैर-ज़रूरी और ़गैर-अहम (महत्वहीन) है जो दूल्हा के आगे या पीछे, घोड़े पर सजा-बनाकर बिठा दिया जाता है।’
मंटो अपने दोस्त नसीर अनवर के साथ एक बार ट्रेन में सफर कर रहे थे। जिस डिब्बे में उन्हें जगह मिली, उसमें एक मौलवी साहब भी थे जो तस्बीह (जप करने की माला) के दाने फेर रहे थे। मौलवी साहब से समस्या हो सकती थी, इसलिए मंटो को एक तरकीब सूझी। उन्होंने नसीर से बीयर की बोतल खोलने के लिए कहा। उसने फौरन सीट के नीचे से एक बोतल निकाली और खोलकर मंटो के हवाले कर दी। मौलवी साहब अपनी तस्बीह के दाने फेरते हुए दूसरे स्टेशन पर उतर गये।
एक बार जब मंटो अपने दोस्त अहमद नसीम कासमी (कहानीकार व शायर) के पास पहुंचे तो कासमी उन्हें समझाने लगे। उनके कुछ उन दोस्तों के बारे में बुरा-भला भी कहा जिनके बारे में उनका ख्याल था कि वह मंटो की बर्बादी की रफ्तार तेज़ कर रहे हैं। इस पर मंटो कासमी से बिगड़ गये और बोले, ‘मैंने तुम्हें अपने ज़मीर की मस्जिद का इमाम मुकर्रर (नियुक्त) नहीं किया है, सिर्फ दोस्त बनाया है।’ इस पर कासमी ने मंटो से कतराकर निकलने में ही अपनी भलाई समझी। मंटो के किस्से बहुत हैं, और हर किस्सा किसी अफसाने से कम नहीं होता। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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