क्रिसमस पर भारतीय संस्कृति की अमिट छाप
भारतीय संस्कृति ने जहां समूचे विश्व में अपनी अनूठी पहचान कायम की है, वहीं यहां की संस्कृति ने विश्व के अधिकतर देशों को कुछ न कुछ अवश्य दिया है। विश्व के अनेक धर्मों में प्राचीन भारतीय संस्कृति के दर्शन किसी न किसी रूप में अवश्य होते हैं, फिर भले ही उसका स्वरूप कैसा भी हो। इसी श्रृंखला में शांत व सौम्य प्रवृत्ति के ईसाई धर्म के लोग भी भारतीय संस्कृति से अछूते नहीं रह पाये हैं। ईसाई धर्म के त्यौहारों व रीति-रिवाजों पर स्पष्ट तौर से भारतीय संस्कृति का प्रभाव दिखाई पड़ता है।
वैसे, ईस्वी सन् 1852 में सेंट थॉमस से लेकर सैंट फ्रांसिस जेवियर तक ईसाई धर्म की नींव रखने हेतु भारत आये थे, किन्तु भारतीय ईसाई धर्म को मूल विचार स्वयं भारत ने ही दिये थे। यही वजह है कि भारत के अधिकांश भागों में रहने वाले ईसाई समुदाय के लोग भारतीयता से जरा भी भिन्न नहीं हैं। भारतीय संस्कृति की इन पर अमिट छाप पड़ने से ही बंगाल व दक्षिण के अनेक चर्चों में क्रिसमस व ईस्टर आदि पर अल्पना की परम्परा रही है, जो हिन्दू धर्म में ही प्रचलित है।
क्रिसमस के रोज ईसाई प्रभु ईसा मसीह की याद में घराें में मोमबत्तियों के स्थान पर तेल के दीपक जलाते हैं। इनके पादरियों के वस्त्रों में भी भारतीय नमूनों की बारीकी देखी जा सकती है। इसी तरह भारत में क्रिसमस के दृश्यों में गाय की उपस्थिति देखने को मिलती है। दक्षिण भारत के केरल राज्य के चालडियन्स ईसाई क्रिसमस को अपनी परम्परा के अनुसार 25 दिसम्बर को न मना कर 7 जनवरी को मनाते हैं।
भारत में जहां हिन्दू विद्वानों ने ईसा के महान संदेशों को अपनाकर जीवन में उतारा, वहीं सम्राट अकबर बादशाह ने भी ईसा की महान् शिक्षाओं व ईसाई धर्म के पालन को अन्य धर्मों के साथ अपनी ओर से प्रचारित किया। अबुल ़फज़ल ने आईने अकबरी में इसकी विस्तार से चर्चा की है, जिसमें कहा गया है कि, अकबर ने मुसलमान होकर भी विदेशों से आने वाले विद्वान साधुओं, जिन्हें पादरी कहा जाता था, को अपने दरबार में सदैव प्रश्रय दिया। सम्राट अकबर ने स्वयं शुरू-शुरू में ईसाई धर्म सीखने के अलावा प्रभु ईसा की शिक्षाएं फैलाने का काम सौंपा था।
मुगल सम्राट ने अपने शासनकाल में ईसाई, हिन्दू, पारसी व मुस्लिम आदि सभी धर्मों को सम्मिलित रूप से मनाने हेतु जो अथक प्रयास किये थे, वे किसी से छुपे हुए नहीं थे। उसने सभी धर्म वालों को अपने महल व हरम में स्थान दिया। अकबर के इस सर्वधर्म समभाव का ईसाई धर्म पर व इसके स्वरूप पर गहरा असर पड़ा। अकबर ने प्रतिदिन धर्म का प्रतीक घंटा बजाकर व क्रास के दर्शन की व्यवस्था आगरा के पुराने नगर में की थी। आज भी आगरा के पुराने कैथोलिक चर्च में संगमरमर की मूर्ति है, जिसे अकबर ने लगवाया था। इस मूर्ति का चेहरा ढका हुआ है व उसकी भुजाएं फैली हुई हैं। यह मूर्ति भारतीय प्रभाव से बनी कुमारी मेरी की मूर्ति है।
बंगाल व दक्षिण के अनेक छोटे राज्यों ने भी ईसाई धर्म को अपने ही ढंग से प्रतिपादित किया। कपूरथला (पंजाब) के राजा सर हरमन सिंह अपने राज्यकाल के दौरान ईसाई बन गये थे। इसके अलावा राजा राम मोहन राय, केश्व चन्द्रसेन, पंडित रमाबाई के ईसाई धर्म के प्रति अनुराग की कहानियां आज भी उल्लेखनीय हैं जिनका उद्देश्य ईसाई धर्म की अच्छी शिक्षाओं का प्रसार करना था।
पंडित रमा बाई 19वीं व 20वीं शताब्दी की महान् व श्रेष्ठ क्रिश्चियन लेडी मानी जाती थीं। जो महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थीं। वह ईसाई फादर बोरे की शिक्षाओं से प्रभावित होकर इंग्लैंड व अमरीका गयीं। सन् 1880 में भारत लौटने पर उन्होंने मुम्बई में शारदा सदन की स्थापना की व भारतीय समाज को गतिशील बनाने हेतु कार्य किया।
सिखमत के सुंदर सिंह का नाम भी उल्लेखनीय है जो सन् 1805 में 16 वर्ष की उम्र में अमरीका व इंग्लैंड भी गये, लेकिन वहां की संस्कृति पसन्द न आने पर पुन: भारत लौट आये व भारत में ‘ब्रदर हुड’ की स्थापना की। इस सर्विस का मुख्य उद्देश्य लोगों को शांत रहकर जीने की प्ररेणा देना था। इस तरह अनेक भारतीयों ने ईसाई धर्म-हित प्राचीन ऋषियों की भांति आश्रमों का निर्माण करवाया। जैसे बंगाल के वी.वी. सरकार ने पुरी क्रिश्चियन योगाश्रम बनवाये। बाद में भारत आने वाले विदेशी ईसाई मिशनरियों ने भी ऐसे आश्रम बनवाये जैसे हिमालय की तलहटी में बना अमरीकी स्टेनला का संथाल आश्रम। लेकिन इन सभी पर भारतीय प्रभाव की गहरी छाप है, जिससे प्रभावित होकर विदेशों में भी अपने धर्म में भारतीय संस्कृति को जीवित बनाये रखा। (सुमन सागर)




