कहानी - मझधार

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

मुख्य मार्ग पर आते ही अमरेश अतीत में खो गया।
रीता अमरेश के स्वर्गीय मां की सहेली कमला की बेटी थी। कमला अपने मायके से ही बदचलन स्वभाव की थी। परंतु ससुराल में आते ही यहां भी उसका वही रवैया शुरू हो गया था। उसके चाल-चलन में खोट देखकर उसके पति ने उसका परित्याग कर सदा के लिए गुमनामी के अंधेरे में खो गया।
रीता के पापा समता बाबू राज्य सरकार के ऊंचे ओहदे के अधिकारी थे। सिद्धांत और उसूल के पक्के। गलत कार्य या घृणित कार्यों से कोसों दूर रहने वाले।
जिस दफ्तर में उनका तबादला हुआ था वहां घूसखोर और भ्रष्टाचारी दुम दबाकर भाग जाते। इक्के-दुक्के इन कार्यों में संलग्न रहते भी तो उनके सानिध्य में आकर अपना रंग बदल लेते।
दफ्तर में उनके कदमों की आहट सुनकर ही गुफ्तगू बंद हो जाती। पर एक दिन...
उस दिन गजब ही हो गया। कर्मचारी अपनी गुफ्तगू में इतने लीन थे कि बॉस के आने की आहट तक का भी पता नहीं चला। उनके क्वार्टर के बगल में रह रहा लिपिक दबी जुबान में कह रहा था- ‘यार समता बाबू की बीवी के बारे में कुछ सुना तुम लोगों ने? नहीं न! समता बाबू की बीवी सक्सेना से फंसी हुई है।’
‘ये तुमको किसने बताया?’ उसमें से एक ने पूछा।
एक दिन तबीयत खराब होने के कारण ड्यूटी नहीं आ सका। उस दिन उस हरामखोर सक्सेना को उनके घर से निकलते देखा था। ‘तो इसमें कौन-सी बड़ी बात हो गई।’
‘क्यों नहीं।’ समता बाबू को दफ्तर में आने के बाद ही सक्सेना क्यों प्रवेश करता है उनके घर में।’
‘तुम नाहक शक कर रहे हो।’
‘एक दिन की बात हो तो चल जाएगी पर रोज़ाना एक जवान मर्द पति के अनुपस्थिति में किसी के घर जाए इससे क्या अंदाजा लगाया लगता है। मैं अपनी पत्नी से पूछा तो बोली- ‘ये तो रोज़ का विषय है।’
 अभी उनकी गुफ्तगू चरम सीमा पर ही थी तभी उसमें से एक की नज़र छिटककर बरामदे में चली गई। समता बाबू उनकी सारी बातें सुन चुके थे।
उस दिन समता बाबू का दफ्तर में मन नहीं लगा। वह इस घटना के बारे में सही-सही तहकीकात करना चाहते थे। इसलिए अगले दिन जब वह घर से दफ्तर के लिए चले तो वह दफ्तर में न आकर सक्सेना और कमला के नाजायज़ संबंधों के बारे में पता करने हेतु इधर-उधर घूमते रहे।
घंटे भर बाद जब समता बाबू घर आए तो दिखा सक्सेना उनकी बीवी के साथ पलंग पर जोंक की तरह चिपका हुआ है।
समता बाबू की आंखों में खून उतर आया। उन्होंने आगे बढ़कर बरामदे में रखी डंडे को उठाया और अच्छी तरह से साधकर उसके सिर पर दे मारा। सक्सेना आह करके पलंग से नीचे गिर पड़ा समूचा फर्श। खून से रंग गया। कुछ पल बात सक्सेना शांत पड़ गया।
कमला एक कोने में खड़ी थी और थर-थर कांप रही थी। समता बाबू को अपनी ओर आते देख बोली- ‘नहीं।’
पर समता बाबू कब मानने वाले थे। उन पर तो जूनून सवार था। बोले - ‘मैं तुझे मारूंगा नहीं। तुम देवी हो, तुम्हारी पूजा करूंगा। आओ पास आओ।’
कमला उनकी भावनाओं को समझ अपनी एक वर्षीय बेटी रीता को उठाकर पिछवाड़े के रास्ते से बाहर निकल गई।
‘भाग गई साली।’ समता बस दहाड़ रहे थे।
उसी दिन समता बाबू बिना सूचित किए सदा के लिए गुमनामी के अंधेरे में खो गए। कमला का तीन-चार साल तक तो कुछ पता नहीं चला। वह अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए मज़बूर हो गई थी। अंत में वह अपनी एक सहेली का पता मालूम करके अमरेश के घर आई।
अमरेश की मां नमिता देवी ने उसे अपने यहां पनाह दे दी। परंतु कमला ने नमिता से रीता को अपनी बहू बना लेने का वादा लेकर निकल गई थी। सप्ताह भर के बाद एक रात रेलवे स्टेशन पर कटकर अपना प्राण गंवा दी।
इसी तरह बीस साल का वक्त कैसे सरक गया पता ही नहीं चला। नमिता देवी का तबियत अब हमेशा नरम रहने लगा था वह चाह रही थी रीता जल्दी से पढ़ाई पूरी कर लें ताकि दोनों उनके सामने परिणय सूत्र में बंध जाएं।
अमरेश रीता की इच्छा जानना चाहा। वह अभियांत्रिकी की पढ़ाई कर वह अपने अमरेश के कंपनी में कार्य करने की इच्छा जताई तो अमरेश उसके संभावनाओं के विरुद्ध काम नहीं किया बल्कि उसका नामांकन करा दिया।
अभी रीता का नामांकन नहीं हुआ था। सभी एक साथ रात्रि के भोजन से निपटकर अपने-अपने शयनकक्ष में समाए थे कि रामू काका ने आवाज़ लगाई जो घबराहट से भरी हुई थी।
‘क्या हुआ काका। अमरेश ने पूछा।
‘मालकिन की तबीयत अचानक खराब हो गई।’
अमरेश मां के कमरे की तरफ दौड़ा। नब्ज टटोलते हुए कहा- ‘अभी डाक्टर को फोन करता हूं।’
तब तक रीता भी आ गई थी।
अक्सर नमिता देवी के स्वास्थ्य में उतार-चढाव होते रहता। और एक दिन आखिरी बुलावा भी आ गया।
मां के गुजरने के पश्चात सारा भार अमरेश पर आता इसके पहले ही अनुभवी रामू काका ने सारा भार अपने कंधों पर लेकर अमरेश के गमगीन, उदासी व मायूसी को जैसे लपक लिया।
कालेज का पढ़ाई पूरी कर अमरेश कंपनी को संभाल लिया था। रीता का पढ़ाई अभी पूरा नहीं हो पाया था। उसका कालेज अपने शहर जमशेदपुर से तकरीबन दो सौ किलोमीटर मीटर दूर सिंदरी में हुआ था।
अमरेश हकीकत से रू-ब-रू होकर तन्मयता से काम में पूरी तरह से लग गया था। वह अपने फार्म का मैनेजर हो गया था।
जीवन निर्विघ्न खुशियों की पटरी पर सरक ही रहा था तभी रीता के पत्रों के न आने के कारण अमरेश के मन में हलचल पैदा कर दी। और वह अपने मंगेतर से मिलने सिंदरी आ गया था।
अमरेश अभी इन्हीं विचारों में खोया ही था कि विपरीत दिशा से आते वाहन का हार्न सुन वह चौंक पड़ा। यथार्थ के धरातल पर आते ही अमरेश को ऐसा लगा मानो किसी ने उसके पैरों के शिराओं में दौड़ रहे खून को बेदर्दी से निचोड़ लिया हो।
शाम की गाड़ी पकड़कर अमरेश अगली सुबह अपने शहर आ गया था। घर आते ही रामू काका ने अमरेश के चेहरे के उतरे भाव को देखकर पूछ दिया-‘अमरेश बहू ने कुछ कहा क्या?’ 
अमरेश निरूतर हो गया था। वह क्या जबाब दे काका को। (क्रमश:)

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