कहानी - मझधार

अमरेश का एक-एक क्षण बड़ी विकलता से व्यतीत हो रहा था। कमरे में लगे एयरकंडीशन के घुर्र-घुर्र की आवाज हथौड़े के मानिंद उसके मस्तिष्क पर चोट कर रही थी मानो एयरकंडीशन सुकून के बजाय उसे काफी तकलीफ पहुंचा रहा है। बाहर कड़ाके की गर्मी है।
उसका मन होता कि बाहर बरामदे में जाकर चुपचाप बैठ जाए। परंतु बाहर उमस काफी थी। सो उसने ऐसा करना उचित नहीं समझा। बेचैनी की छाया तो उसके अंतर में कई दिनों से मड़रा रही है। पर वह हमेशा यह कहकर अपने मन को ढांढस बंधाता कि शायद जाने के बाद रीता की तबीयत खराब हो गई हो। परंतु शीघ्र ही यह विचार बदल जाता है उस शाम को तो पहुंच ही गई होगी फिर रात भर का समय सुस्ताने के लिए काफी है। यदि तबीयत खराब भी हो तो क्या दो मिनट भी अपने को काबू में रहकर पत्र नहीं लिख सकती थी। वह इस पर जितना सोचता उसकी बेचैनी और बढ़ती जाती। रीता को गए आज छ: दिन से ऊपर हो गए थे। पिछले बार जब रीता गई थी तो दो-तीन दिन के अंतराल में पत्र आ गया था। परंतु इस बार वह इस पर जितना सोचता उसमें और उलझते जाता।
वह रीता में इस बार काफी बदलाव महसूस कर रहा था। रीता आई भी तो न उसकी बातों में मिठास थी और ना ही अपनापन। इसका एहसास तो रीता को भी हो गया था। इस विषय में ऐसा कुछ-कुछ कहती इसके पहले ही अमरेश उस पर पैनी दृष्टि टिकाए बोला था- ‘खोयी-खोयी सी हो रीता? ऐसा लग रहा है जैसे तुम्हारा कुछ भूल गया हो।’
‘ऐसी बात नहीं है अमरेश। श्रीता अमरेश को आश्वस्त करते हुए बोली। अमरेश हल्के से मुस्कुरा कर रह गया। बातचीत के दौरान अमरेश रीता के चेहरे को गौर से पढ़ने की कोशिश करता रहा।
तभी कहीं दूर मिल के सायरन ने चौका दिया। उसने दीवार घड़ी पर नज़र दौड़ाई तो शाम के चार बज रहे थे।
आज का दिन भी उसने रीता के पत्र के इंतजार में ही काट दिया। ऐसा तो वह तीन दिनों से लगातार करता आ रहा है। इन तीन दिनों में उसके पास ढ़ेरों सारे कार्य बढ़ गए थे। दफ्तर में अनेक फाइलें उसके इंतजार में अपनी बदकिस्मती पर आंसू बहा रही थी।
 शाम का धुंधलका सर्वत्र बिखरने लगा था। लॉन में लगे वृक्ष के पत्ते अब शांत मुद्रा में स्थिर थे। मानों दिन भर हवा के थपेड़ो से जुझने के पश्चात अब आराम फरमा रहे हों।
वैसे गर्मी के मौसम में दिन में हवा की रफ्तार अपने चरम वेग पर रहती है। पर दिन ढलते ही रफ्तार धीरे-धीरे शून्यता की ओर बढ़ने लगती है।
सबकुछ शांत था। दिन भर का थका-मांदा सूरज भी अपने अंको में लालिमा बटोरकर आराम के उद्देश्य से जा चुका था। उमस काफी कम हो गई थी। उसने आगे बढ़कर एयरकंडीशन को बंद कर दिया पर उसे अभी भी राहत महसूस नहीं हुई।
क्षण-प्रतिक्षण घड़ी की सुई का घिसकना जारी था। आठ बजे का घंटा जब उसके कानों से टकराया तो रामू काका ने भोजन तैयार हो जाने की सूचना दी। पर आज उसने ‘नहीं खाऊंगा’ में अपनी इच्छा जाहिर की। रामू काका चले गए थे।
नौ बजे का घंटा लगने तक अमरेश अपने बिस्तर पर आ गया था। थोड़ी बहुत गर्मी जो कैमरे के माहौल में तैर रही थी उसे चीरने के लिए पंखे का स्विच ऑन कर दिया था। विचारों के तंतु एक-दूसरे से लिपट-लिपट उसके मन को और उदद्बेलित करते जा रहे थे। इन्हीं उलझनों के बीच फंसा अमरेश न जाने कब नींद के आगोश में चला गया।
सुबह उठा तो उसके समूचे बदन में दर्द समाया हुआ था। अभी वह अपने आलस्य को तोड़ने की कोशिश कर ही रहा था कि कमरे में रामू काका प्रविष्ट हुए।
‘अमरेश नाश्ता करेगा न। कल रात तुम कुछ खाया।’
‘हां काका। नाश्ता तैयार कीजिए। तब तक मैं नित्य क्रिया से निबट लेता हूं।’
अभी आकर नाश्ते के लिए कुर्सी पर पसरा ही था कि काका टेबल पर नाश्ता रख गए।
‘रात का खाना आपने भी नहीं खाया काका।’
‘मैंने खाया तो था।’
‘काका सोच रहा हूं रीता के पास हो आऊं। कहीं उसकी तबीयत खराब तो नहीं।’
‘पत्र न आने का कारण यही है बेटा।’
अमरेश नाश्ता करके दफ्तर चला गया था। चलते-चलते रुककर बोला-‘काका दोपहर में नहीं आऊंगा।’
‘अच्छा बेटा।’ इतना कह काका अमरेश को जाते हुए देखते रहे।
 शाम को वापस आते ही अमरेश रामू काका से बोला- ‘काका कल सुबह में रीता के पास जाऊंगा। नींद तो खुल जाएगी न।’
‘हां बेटा।’ इसकी चिंता क्यों करते हो जा आराम से सो जा।
अगले दिन सुबह के गाड़ी से निकल गया था।
हॉस्टल में प्रवेश करने के लिए लंबी प्रक्रिया से गुजरकर अमरेश जब रीता के कमरे में प्रवेश किया तो अंदर से हंसी-ठिठोली की आवाज सुनकर उसका रोम-रोम कांप गया- ‘कमरे से पुरुष गंध उसके नथुनों से टकराया। उसने अपने को किवाड़ में की ओट में छिपा लिया।’
‘देखो रमेश मुझे कोई आपत्ति नहीं तुम्हारे स्पर्श से मैं अपना अतीत को भूल गई हूं। तुम्हारे प्यार ने मुझको इस कदर मदहोश कर दिया है कि मैं यहां तक भूल गई हूं कि मैं किसी के कृपा दान पर होस्टल में रहकर अपने भविष्य को सुनहरे रंगों से सवार रही हूं।’
यह सुन अमरेश के पांवों तले की जमीन खिंच गई। उसने स्वयं से सवाल किया- ‘तो क्या आज तक रीता उसकी भावनाओं से खिलवाड़ करती रही। अब तक उसने मुझे धोखे में रखा। अमरेश वही जड़वत खड़ा हो सुनता रहा।

(क्रमश:)
 

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