क्या केन्द्र विपक्ष को नज़र-अंदाज़ कर रहा है ?
पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के बाद से लेकर पाकिस्तान के साथ जारी सैन्य टकराव तक कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष सरकार के हर फैसले में उसके साथ खड़ा था। ऐसा लम्बे समय बाद हो रहा था जब सरकार की किसी भी कार्रवाई पर, यहां तक कि सरकार की चूक पर भी किसी विपक्षी पार्टी ने कोई सवाल नहीं किया। सरकार के साथ विपक्ष की ऐसी एकजुटता उस समय भी कभी नहीं देखी गई जब भाजपा विपक्ष में थी। इसके बावजूद सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा का रवैया विपक्ष को लेकर ज़रा भी सद्भाव वाला नहीं रहा। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी विपक्ष के सहयोगात्मक रवैये के प्रति गंभीरता और सकारात्मकता नहीं दिखाते हुए उसके प्रति हिकारत और अहंकार भरा व्यवहार करते रहे। पहलगाम हमले के बाद सरकार की ओर से दो बार सर्वदलीय बैठक बुलाई गई लेकिन प्रधानमंत्री मोदी दोनों बैठकों में शामिल नहीं हुए। पहली बैठक पहलगाम हमले के बाद बुलाई गई थी, लेकिन मोदी उस बैठक में शामिल न होते हुए बिहार में रैली संबोधित करने चले गए थे। दूसरी सर्वदलीय बैठक आतंकवादियों के ठिकानों पर सेना की कार्रवाई के बाद हुई, लेकिन मोदी उसमें भी शामिल नहीं हुए और दिल्ली में ही एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में शामिल होने चले गए। इसके अलावा टीवी चैनलों की बहस में तो भाजपा के प्रवक्ता विपक्ष के नेताओं को गद्दार, देशद्रोही, पाकिस्तान और आतंकवादियों का हमदर्द बताते रहे। यही नहीं, एक सरकारी चैनल पर तो बाकायदा विपक्षी नेताओं के फोटो के साथ लिखा गया कि ‘भारत तैयार लेकिन घर में कितने गद्दार’।
एक साथ तनाव ही तनाव
केंद्र सरकार ने कई बड़ी घोषणाएं और कई बड़े वादे कर दिए हैं। अगर सब पर एक साथ क्रियान्वयन शुरू होता है तो देश कई बरसों तक राजनीतिक और सामाजिक घटनाक्रमों में उलझा रहेगा। कहा जा रहा है कि सरकार अगले साल जनगणना कराएगी, जिसमें जातिवार भी लोगों की गिनती होगी। इसके लिए संविधान संशोधन का बिल इस साल मानसून सत्र में पेश किया जाएगा। उसके बाद राज्यों और ज़िलों की भौगोलिक सीमा में बदलाव को रोकने का निर्देश जारी होगा और फिर जनगणना की अधिसूचना जारी होगी। इस बार जनगणना में जातियों की गिनती होगी। पूरा देश जाति को लेकर बहुत संवेदनशील और भावुक है। सभी जातियां अपनी गिनती कराने और संख्या बल बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के प्रयास करेंगी। अत: जनगणना और जातियों की गिनती का काम हो सकता है कि लोगों को उलझाए रखे। उसके बाद परिसीमन की प्रक्रिया शुरू होगी। माना जा रहा है कि जनगणना में एक साल से ज्यादा का समय लगेगा और उसके आंकड़े आने के बाद सरकार परिसीमन की प्रक्रिया शुरू करेगी। इस बीच एक दर्जन राज्यों में विधानसभा चुनाव हो चुके होंगे, लेकिन जाति गणना से ज्यादा परिसीमन की प्रक्रिया टकराव का कारण बनेगी। केंद्र सरकार क्या पैमाना तय करती है और किस तरह सीटों की संख्या में बढ़ोतरी होती है, वह देखने वाली बात होगी। जनगणना के बाद उसे लेकर टकराव बना रहेगा। सरकार ने ऐसे संकेत दिए थे कि 2029 के लोकसभा चुनाव में महिला आरक्षण लागू हो जाएगा। अगर ऐसा होता है तो आरक्षित सीटों को लेकर भी विवाद होगा ही।
यह तो बस नमूना है
दिल्ली के मशहूर अपोलो अस्पताल ने सरकार से ज़मीन लेते वक्त जो शर्त मानी थी, उसे उसने पूरा नहीं किया है, यह बात कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दौरान सामने आई थी। तब कोर्ट ने चेतावनी दी थी कि लीज शर्त का पालन नहीं हुआ, तो वह अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) को इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल का प्रबंधन संभाल लेने का निर्देश देगा। अब एक अंग्रेज़ी अखबार की रिपोर्ट से सामने आया है कि आखिर न्यायालय ने इतना सख्त रुख क्यों अपनाया। रिपोर्ट के मुताबिक राजधानी के महंगे इलाके में एक रुपया महीने के प्रतीकात्मक किराये के आधार पर 15 एकज़ ज़मीन इस अस्पताल को दिल्ली सरकार ने इस शर्त पर दी थी कि अस्पताल अपने एक तिहाई बिस्तर गरीब मरीज़ों के लिए आरक्षित रखेगा और उनका मुफ्त इलाज करेगा। मगर अखबारी रिपोर्ट में बताया गया है कि जितने बिस्तरों का वादा था, उसका सिर्फ17 प्रतिशत गरीब मरीज़ों को मिला। गरीबों के इलाज के आंकड़ों की कुछ खानापूर्ति ओपीडी इलाज के जरिए की गई, जहां मोटे तौर पर मरीज़ों को सिर्फ इलाज संबंधी सलाह दी जाती है। जाहिर है यह कहानी चौंका देने वाली है। मगर हकीकत यही है कि यह अस्पताल जिस मॉडल का हिस्सा है, उसमें ऐसी कहानियां भरी पड़ी है। यह मॉडल सिर्फ स्वास्थ्य क्षेत्र का नहीं है, बल्कि शिक्षा, परिवहन, संचार आदि क्षेत्रों में भी खासकर नव-उदारवादी दौर में यही मॉडल अपनाया गया है। मुनाफा प्रेरित निजी क्षेत्र की कंपनियों को सार्वजनिक संसाधन ट्रांसफर करने के लिए हर जगह गरीबों के कल्याण या देश की विकास ज़रूरतों का तर्क दिया गया है।
बंगाल के राज्यपाल की रिपोर्ट
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार के खिलाफ अपनी मुहिम जारी रखते हुए वहां के राज्यपाल ने केंद्र सरकार को जैसी रिपोर्ट भेजी है, वैसी रिपोर्ट हाल के दिनों में किसी अन्य राज्य को लेकर राज्यपाल की ओर से नहीं भेजी गई है। यहां तक कि दो साल पहले मणिपुर में जातीय हिंसा शुरू होने और सैकड़ों लोगों के मारे जाने और हज़ारों लोगों के विस्थापित होने के बाद भी वहां से ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं आई थी, जिसमें राज्यपाल ने कहा हो कि केंद्र सरकार संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल करके राज्य में दखल दे। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस ने वक्फ कानून के खिलाफ मुर्शिदाबाद में विरोध प्रदर्शन और तीन लोगों के मारे जाने की घटना को आधार बना कर केंद्र को रिपोर्ट भेजी है, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 355 के इस्तेमाल की सलाह दी है। इसके तहत केंद्र सरकार राज्यों में कानून व्यवस्था बहाल करने के लिए सेना या केंद्रीय बलों की तैनाती कर सकती है। इसी तरह राज्यपाल ने संवैधानिक प्रावधानों के तहत एक आयोग से राज्य में हुई हिंसा की जांच कराने और दोषियों को सज़ा दिलाने की पहल करने को भी कहा है। राज्यपाल के इस सुझाव पर भाजपा के नेता हिसाब लगा रहे हैं कि अगर ऐसा कुछ केंद्र सरकार करती है तो उसका लाभ भाजपा को मिलेगा या नहीं। भाजपा नेता यह भी मानते हैं कि ममता बनर्जी बांग्ला अस्मिता का दांव खेलने में माहिर हैं। वह सरकार की किसी भी पहल को राज्य की अस्मिता पर हमला बता सकती हैं।
चुनाव आयोग को मायावती के सुझाव
वैसे तो भारत का चुनाव आयोग किसी विपक्षी पार्टी का कोई भी सुझाव सुनने को राज़ी नहीं होता है। जैसे ही कोई विपक्षी पार्टी सलाह या सुझाव देती है, वैसे ही चुनाव आयोग के कर्ताधर्ता उसका जवाब देने और खिल्ली उड़ाने आ जाते हैं। सुझाव को तत्काल खारिज कर दिया जाता है। अब बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने खुद दिल्ली में चुनाव आयोग के मुख्यालय में जाकर मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के साथ दोनों चुनाव आयुक्तों के सामने अपने सुझाव दिए हैं। यह पहला मौका है जब बसपा प्रमुख मायावती खुद चुनाव आयोग से मिलने गईं। आमतौर पर पार्टियों के सुप्रीमो आयोग के पास नहीं जाते हैं, उसमें भी बहनजी का मामला तो अलग ही है, लेकिन वह गईं और उन्होंने कई सुझाव दिए। उन्होंने सभी वीवीपैट मशीनों की पर्चियों का मिलान ईवीएम के वोट से करने को कहा। यह सुझाव चुनाव आयोग पहले खारिज कर चुका है और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे खारिज कर दिया। लेकिन ईवीएम पर उठते सवालों का जवाब देने का यही सही तरीका है । इसके अलावा मायावती ने कहा कि चुनाव आयोग चुनाव में होने वाले खर्च की निगरानी करे। उन्होंने कहा कि तय सीमा से बहुत ज्यादा खर्च होता है, जिससे गरीब उम्मीदवारों का लड़ना मुश्किल होता जा रहा है। उनका तीसरा सुझाव चुनाव से पहले होने वाले ओपिनियन पोल्स को नियंत्रित करने का है। यह एक ज़रूरी काम है क्योंकि भारत में ओपिनियन पोल्स का इस्तेमाल किसी खास दल के लिए माहौल बनाने के मकसद से होता है।