एक नये सूरज की तलाश

संवादों का ज़िन्दगी में महत्त्व अधिक है या काम का? हमें लगता है कि काम करने के संवाद का अर्थात दूसरों को प्रेरणा दीजिये कि आप काम कीजिये, और स्वयं आराम कीजिये।
आपने वह कहानी सुनी है क्या कि  राष्ट्र निर्माण पर भाषण देने वाला एक शख्स एक बेरी के वृक्ष के नीचे सो रहा था, सोया रहा। जी हां, सोना और रियायती भोजन पाने के लिए कतार लगाना। आज यही प्रिय कर्म रह गया है, क्योंकि सरकार ने कह दिया है कि ‘हम आपको गारण्टी देते हैं, कि इस देश में किसी को भी कभी भूख से मरने नहीं देंगे।’ भई गारण्टियों का ज़माना है। नेता लोग अपनी सत्ता पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनाये रखने के लिए गारण्टियां देते हैं। ‘मेरा वचन गीता की कसम’। एक दूसरे से बढ़-चढ़ कर संवाद बोलने का ज़माना है, इसलिए हर कोई एक दूसरे से  बढ़-चढ़ कर कसम खाने की प्रतियोगिता करता रहता है। आपके लिए धरा पर स्वर्ग ला देने का वायदा करता है, लेकिन वोट डालने की तिथि तक। तिथि गुज़र गई, कौन-सी कसम, और किसे जामिन रख कर खाई थी यह कसम, वह भूल जाते हैं। बन्धु कसमें तो होती ही तोड़ने के लिए हैं। वह वायदा ही क्या जो व़फा हो गया। आजकल तो हवाओं में बेवफाई रची है। अपने संकल्प या अपनी कसम पर बलिदान हो जाने वाले तो भूतपूर्व हो गए। ज़माना अतीत का नहीं, वर्तमान को लांघ कर भविष्य हो जाने का है। इस भविष्य के संवादों में क्या नहीं रखा है आपके लिए? केवल अच्छे दिन आने का सपना नहीं, वह तो फुटपाथी लोगों को इतनी बार परोस दिया गया कि अब इसकी बासी कढ़ी में भी उबाल नहीं आता। एक सुबह उठने पर अपने खाते में पन्द्रह लाख की प्रविष्टि देखने का सपना भी बहुत दिन देखा था। जन-धन खाते खुल गए हैं। लाखों की प्रतिष्टियां आज भी इनमें हो जाती हैं, लेकिन महज़ एक दिन के लिए। साइबर अपराधी आपका खाता एक दिन के लिए किराये पर लेते हैं। पैसा आता है, छूमंतर हो जाता है। आप चन्द रुपल्ली का खज़ाना पाते हैं, बाकी रुपये यह जा, वह जा। हां, देश को मिल जाती है, एशिया के सबसे बड़े साइबर अपराधी हो जाने की एक उपाधि।
हां, ऐसी उपाधियां पाने में हम किसी से कम नहीं। अपना देश दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश है। चीन को हमने पछाड़ दिया, लेकिन भूख, महंगाई और बेरोज़गारी को तो हम पछाड़ नहीं सके। सबसे अधिक भूखे-नंगों का देश बना दिया इसे हमने, लेकिन उसे पुचकारने के लिए अस्सी करोड़ लोगों में हम रियायती राशन भी तो बांट रहे हैं। इतना अधिक रियायती राशन बांटने का रिकार्ड किसी और के पास नहीं। हमने अगर दुनिया में सबसे तेज़ विकास दर प्राप्त करने का रिकार्ड बना लिया है, तो सबसे अधिक लोगों में रियायती राशन बांटने का भी बनाया है। पूरी इच्छा है कि ये रिकार्ड अनन्तकाल तक बने रहें। हम दुनिया में सबसे तेज़ विकास दर भी प्राप्त करते रहें, और सबसे अधिक रियायती राशन भी बांटते रहें। बन्धु, विकास दर तो साल दर साल गिनी जाती है, लेकिन रियायती राशन बांटने की तिथि में पांच-पांच साल का विस्तार एक साथ कर दिया जाता है। फिलहाल अगर हमारा लक्ष्य दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाने का है, तो रियायती राशन भी सन उन्तीस तक बांट देने का लक्ष्य भी रखा है।
बचपन में सुना करते थे, ‘जिये मेरा भाई गली गली भौजाई।’ आजकल तो भौजाइयां रखने का ज़माना नहीं रहा, हां कानून ने लिव इन रिलेशन रखने की इजाज़त दे दी है। इसीलिए इसी तज़र् पर गली गली अनुकम्पा या फ्री फण्ड की उदारता बांटने का ज़माना शुरू हो गया। उपचार मुफ्त, बसों में सफर मुफ्त और बिना पढ़ाई लिखाई डिग्री प्राप्त करने का तरीका भी मुफ्त। इस मुफ्तखोर समाज में काम हराम हो गया। नये सर्वेक्षण बताते हैं कि एशिया में सबसे अधिक आलसी और काम के प्रति उत्साहहीन लोग भारत में पाये जाते हैं। यहां एक बड़ी जमात है जिससे उचित वेचन दिये बिना काम करवाने की उन्हें आदत हो गई है, और यह एक छोटी-सी जमात है जो इससे मिलने वाले बढ़ते हुए लाभ से देश की विकास दर के बढ़ने की घोषणा करती है।
ज्यों-ज्यों इन चन्द लोगों की बहु-मंज़िली इमारतों के कंगूरे ऊंचे होते चले जाते हैं, त्यों-त्यों उदास और सूने सपनों से भरी आंखों वाले नौजवान अपने ही देश में बेगाने होते चले जाते हैं। इस माहौल में हमने युवा पीढ़ी को राष्ट्रीय निर्माण का नहीं, देश से भगौड़ा हो जाने की प्रेरणा दे दी। इस देश से पलायन के न जाने कितने डंकी मार्ग खुल गए, लेकिन अब विदेश में भी इन अनचाहे आंगतुकों को कोई स्वीकार नहीं करता। हथकड़ी बेड़ियों की पोशाक पहना कर उन्हें बैरंग वापिस लौटा दिया जाता है। फिर भी किसी अनजान मार्ग से देश से भाग निकलने का अभी तक हठ ज़िन्दा है। रास्ते में न जाने कितने जल्लाद उन्हें डंकी मार्ग नहीं, वास्तव में गधा बनाने पर तुले हुए हैं।
अब देश की यह युवा पीढ़ी कहां जाये? लौट कर आते हैं तो उत्तेजित करने वाले संवाद उनका स्वागत करते हैं, सार्थक काम के अवसर स्वागत नहीं करते। शहरों के पिछवाड़े अवैध नशे की भट्ठियां उनका स्वागत करती हैं, या डार से बिछुड़े लोगों के लिए ज़िन्दा और चलती फिरती मौत स्वागत करती है।
‘हमने ऐसी कल्पना तो तुम्हारे लिए नहीं की थी।’ नई पौध को बिखरते देखते हैं तो सोचते हैं। क्या इस घनघोर अंधेरे से एक स्वर्णिम रेखा उभरेगी, जो इस अंधेरे को उजाले में बदल देगी? आज भी यह आवाज़ उठती है। इन अकेली आवाज़ों को सामूहिक हो जाने में देर क्यों लग रही है?

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