बीमार दवा क्षेत्र को उपचार की दरकार

विगत दिनों मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा और बैतूल में ज़हरीले कफ  सिरप से 16 बच्चों की मौत के मामले ने दवा क्षेत्र पर कई प्रश्न खड़े कर दिए हैं। आरंभिक जांच में कोल्ड्रिफ  सिरप में ज़हरीले रसायन डायथिलीन ग्लाइकाल की मात्र 46.20 और 48.6 प्रतिशत मिली जबकि यह मात्रा 0.1 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती। इस जांच ने दवाओं के गुणवत्ता मानकों की भी पोल खोल दी है। मिले समाचारों के अनुसार कोल्ड्रिफ  सिरप श्रीसन फार्मास्यूटिकल्स कंपनी बनाती है जिसकी उत्पादन इकाई तमिलनाडु के कांचीपुरम में है। समाचार यह भी है कि इस कंपनी को वर्ष 2009 में सरकारी रिकॉर्ड से हटा दिया गया था यानी सरकारी रिकॉर्ड में यह कंपनी तब से बंद हो चुकी है। फिर कोल्ड्रिफ  सिरप का उत्पादन और प्रयोग किस आधार पर किया जा रहा था? यदि जांच में डायथिलीन ग्लाइकाल निर्धारित सीमा से बहुत अधिक मिली है तो दवाओं की गुणवत्ता जांच करने वाला सरकारी स्टाफ क्या कर रहा था? दवा में निर्धारित मात्रा से कई गुना अधिक मात्रा किसी षड्यंत्र का हिस्सा तो नहीं? प्रश्न तो यह भी है कि जिन परिवारों ने अपने बच्चों को खो दिया, उनको न्याय कब और कैसे मिलेगा? क्या चिकित्सक की गिरफ्तारी, ड्रग कंट्रोलर को हटाया जाना, निलंबित किया जाना और अब इस उत्पाद को प्रतिबंधित किया जाना ही पर्याप्त है?
सर्वविदित है कि विगत कुछ महीनों में देश के अलग-अलग हिस्सों से नकली दवाओं और गुणवत्ता के मानकों पर खरी न उतरने के सैकड़ों मामले सामने आ चुके हैं। केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन व स्टेट ड्रग अथॉरिटी की ओर से जनवरी महीने में जारी ड्रग अलर्ट में देशभर की 135 दवाओं के सैंपल गुणवत्ता पर खरे नहीं उतरे। इनमें सर्दी, खांसी, जुकाम, एलर्जी व दर्द निवारण के लिए प्रयोग होने वाली दवाएं शामिल हैं। यह भी समाचार था कि इनमें से 38 दवाओं का उत्पादन हिमाचल के उद्योगों में हुआ है। फरवरी 2025 की कैग रिपोर्ट में यह सामने आया कि दिल्ली के अस्पतालों में दवाओं की खरीद में अनियमितताएं रही और ब्लैक लिस्ट एवं प्रतिबंधित फर्म से भी दवाएं खरीदी गई। मार्च 2025 का एक समाचार बताता है कि केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन व स्टेट ड्रग अथारिटी की जांच में देशभर के विभिन्न दवा उद्योगों में बनी 145 दवाएं गुणवत्ता की कसौटी पर खरी नहीं उतरी हैं। इसी प्रकार विगत में निम्न गुणवत्ता वाली दवाओं के खिलाफ  एक अभियान के तहत दवाओं के 111 नमूने गुणवत्ता के मानकों पर खरे नहीं उतरे और कुछ नमूने नकली दवाओं के भी मिले हैं? विगत दिनों दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने भी नकली सिरप बेचने वाले सिंडिकेट का भंडाफोड़ किया था। उक्त सभी बातों से यह स्पष्ट होता है कि लंबे समय से दवा क्षेत्र में भिन्न-भिन्न प्रकार की विसंगतियां और धांधली चल रही है। विभिन्न प्रकार की जांच और धर-पकड़ के बाद भी दो-चार दिन मामला चर्चा में रहता है फिर स्थिति वहीं पहुंच जाती है। क्या इसके लिए शासन-प्रशासन ज़िम्मेदार नहीं है? यदि है तो उन पर भी आपराधिक संलिप्तता के तहत मुकद्दमा क्यों न चले?
मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा और बैतूल की यह घटना कोई पहली बार नहीं है। विगत में हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली एवं छत्तीसगढ़ आदि में भी ऐसी कई घटनाएं हो चुकी है जहां पर्याप्त चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में अथवा जर्जर उपकरणों के कारण बच्चों की मौत हुई हैं। गली-गली में वैध एवं अवैध सैकड़ों नर्सिंग होम एवं चिकित्सा केंद्र खुले हुए हैं जहां कभी ऑक्सीजन के अभाव में तो कभी आग लगने से न जाने कितने मासूम मौत के मुंह में जा चुके हैं। कैंसर जैसी घातक बीमारी की नकली दवाइयों के समाचार भी खूब सामने आते हैं। बीमारी में गरीब आदमी कज़र् लेकर अथवा अपनी संपत्ति बेच कर इलाज के लिए भागदौड़ करता है, लेकिन नकली दवाइयां न तो जीवन बचा पाती हैं और न ही उसकी संपत्ति। क्या यह अपराध नहीं है? क्या यह सीधे-सीधे शासन-प्रशासन की लापरवाही को उजागर नहीं करता है?
यहां यह भी चिंतनीय है कि विगत कुछ वर्षों से केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र हेतु लगातार बढ़ोतरी की जा रही है लेकिन आज भी अनेक प्रदेश ऐसे हैं जहां स्वास्थ्य की मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं है। इस बार के बजट में भी डिजिटल हेल्थ केयर के लिए 340 करोड़ का प्रविधान किया गया है? क्या भारत के सुदूर क्षेत्रों में इसका कोई लाभ हो पाएगा क्योकि उन क्षेत्रों में अभी भी डिजिटल सुविधा उपलब्ध नहीं हैं। दूसरा, यदि किसी रोगी ने किसी प्रकार डिजिटल तकनीक से दवाइयां लिखवा भी ली तो उन क्षेत्रों में अच्छी दवाइयों की उपलब्धता आज भी एक बड़ी चुनौती है। भारत जैसे सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश में बालकों एवं नवजात शिशुओं की मृत्यु दर अभी भी अधिक है। बच्चों में निमोनिया, संक्रमण, कुपोषण, भ्रूण संबंधी विकार एवं माताओं में प्रसव की जटिलताएं आज भी बनी हुई हैं। 
आंकड़ों के अनुसार इस समय भारत में लगभग 13 हज़ार लोगों पर एक डाक्टर उपलब्ध है जबकि वैश्विक स्तर पर आदर्श अनुपात 1000 लोगों पर एक डाक्टर का माना गया है। क्या यह स्थिति स्वयं में ही गंभीर नहीं है? बाल चिकित्सा एवं देखभाल बिल्कुल भिन्न क्षेत्र है। उसमें कुशल चिकित्सक, नर्स एवं अन्य कर्मचारियों की उपलब्धता भी समुचित नहीं है। ऐसे में बहुत आवश्यक है कि केंद्र, राज्य और ज़िला स्तर पर व्यापक योजना बनाकर समन्वय के साथ उन्हें लागू किया जाए और स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े हुए सभी लोगों की ज़िम्मेदारी तय हो।
भारतीय न्याय संहिता के अधिनियम 1940 के अंतर्गत नकली दवाओं के निर्माण, बिक्री, आयात या वितरण के लिए कम से कम 10 वर्ष के कारावास से लेकर आजीवन कारावास का प्रविधान है। इसके साथ-साथ आर्थिक दंड का भी प्रविधान है, लेकिन बहुत कम मामलों में दोषियों को इस प्रकार का दंड दिया जाता है, क्योंकि वे किसी न किसी कारण से छूट जाते हैं। (युवराज)

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