क्या भाजपा गोरखालैंड के मुद्दे को फिर हवा दे रही है ?
अपने राजनीतिक फायदे के लिए विभाजनकारी मुद्दों को हवा देने में भाजपा का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। धार्मिक और साम्प्रदायिक मुद्दों पर तो उसका शुरू से ही एकाधिकार रहा है, लेकिन मोदी-शाह के युग में वह क्षेत्रीय, भाषायी, जातीय आधार पर विभाजनकारी राजनीति की भी चैंपियन बन चुकी है। अगले साल अप्रैल पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव होने वाला है और उससे पहले भाजपा ने ममता बनर्जी सरकार और उनकी पार्टी को छकाने के लिए एक बड़ा दांव चल दिया है। केंद्र सरकार ने अलग गोरखालैंड राज्य बनाने के मामले में अलग-अलग समूहों से बात करने के लिए वार्ताकार नियुक्त कर दिया है। ममता बनर्जी के लिए यह मामला बहुत अहम है, क्योंकि भाजपा अगर उत्तरी बंगाल के लोगों की भावनाओं को उभारती है तो चुनाव में उसे इसका फायदा मिल सकता है। इसीलिए ममता बनर्जी ने वार्ताकार नियुक्त करने का विरोध करते हुए कहा है कि इतने अहम मसले पर केंद्र ने बिना राज्य सरकार से विचार-विमर्श किए एक बड़ा कदम उठा लिया। केंद्र सरकार ने उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पंकज सिंह को वार्ताकार नियुक्ति किया है। वह अलग गोरखालैंड के साथ ही गोरखा समुदाय की 11 उपजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के मामले में अलग-अलग गोरखा समूहों से बात करेंगे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये दोनों मामले केंद्र के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, लेकिन ऐसे मामलों में किसी भी वार्ता में राज्य सरकार एक पक्ष ज़रूर होती है। इसीलिए ममता ने वार्ताकार की नियुक्ति रद्द करने की मांग करते हुए प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी है।
प्रशांत किशोर ने मैदान क्यों छोड़ा?
बिहार में चुनाव की घोषणा होने से पहले तक टेलीविज़न चैनलों ने प्रशांत किशोर को बढ़-चढ़ कर शेर की तरह प्रस्तुत किया, उन्हें बिहार के लिए एक नया विकल्प बता कर पेश किया, लेकिन चुनाव की घोषणा के बाद प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी भी मैदान छोड़ती दिख रही है। सोशल मीडिया पर उनका अभियान कमज़ोर हो गया है। पहले हज़ारों की संख्या में एक्स, फेसबुक और इंस्टाग्राम हैंडल से प्रशांत किशोर की बातों को प्रचारित किया जाता था। कई तटस्थ दिखने वाले हैंडल भी प्रशांत किशोर के बारे में प्रोपेगेंडा चला रहे थे। प्रशांत खुद भी रोज़ाना मीडिया के सामने विपक्षी पार्टियो पर निशाना साधते थे, लेकिन पिछले दो हफ्ते से उन्होंने यह सब बंद कर दिया है। जिन नेताओं को उन्होंने आर्थिक भ्रष्टाचार या आपराधिक मामलों में शामिल होने के लिए निशाने पर लिया, उन्होंने नामांकन किया लेकिन प्रशांत किशोर ने किसी पर सवाल नहीं उठाया। हैरानी की बात है कि प्रशांत किशोर खुद चुनाव नहीं लड़ रहे हैं और वह अपने किसी भी उम्मीदवार के नामांकन में नहीं गए। उनका दानापुर सीट का उम्मीदवार ऐन नामांकन के समय मैदान छोड़ कर भाग गया। मजबूरी में एक दूसरा उम्मीदवार उतारा गया, जिसका नामांकन खारिज हो गया। उनके कुछ अन्य उम्मीदवार भी मैदान से हटे हैं। बताते हैं कि प्रशांत किशोर को भी कहीं से कुछ संदेश आया है, जिसके बाद वह शिथिल हो गए। इस मामले में भी उनके पूरे अभियान को एक बड़ी साज़िश के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है और उन पर सवाल उठ रहे हैं।
कृत्रिम बारिश नहीं करवा पाई दिल्ली सरकार
पहले से इस बात का अंदाज़ा था कि दिल्ली की भाजपा सरकार कृत्रिम बारिश के नाम पर सिर्फ हवाबाजी कर रही है। सोचने वाली बात है कि जुलाई-अगस्त के महीने में जब खूब बारिश हो रही थी, उस समय दिल्ली सरकार ने कृत्रिम बारिश का फैसला कर तारीख भी तय कर दी गई थी, लेकिन जब चारों तरफ से इसका विरोध हुआ और कहा गया कि जब मानसून की बारिश हो रही है तो ऐसे में कृत्रिम बारिश का क्या मतलब है। तब जाकर दिल्ली सरकार ने फैसला टाला और कहा कि दिवाली के बाद प्रदूषण बढ़ने पर कृत्रिम बारिश कराई जाएगी, लेकिन दिवाली के बाद अब सरकार कह रही है कि वह कृत्रिम बारिश नहीं करा सकती, क्योंकि उसके लिए आकाश में प्राकृतिक बादल का होना ज़रूरी है। सवाल है कि क्या यह बात दिल्ली सरकार को पहले मालूम नहीं थी? अगर मालूम थी तो क्या वह यह मानती थी कि दिवाली के अगले दिन या उसके आगे के दिनों में दिल्ली के आकाश में बादल छाए रहेंगे? अगर वह ऐसा सोच रही थी तो इससे बड़ी मूर्खता क्या हो सकती है कि कोई मानसून की वापसी के तुरंत बाद कार्तिक के महीने में बादल छाने के बारे में सोचे! ज़ाहिर है कि मानसून के समय भी दिल्ली सरकार कृत्रिम बारिश करवाने में सक्षम नहीं थी और अब भी तकनीकी रूप से इसमें सक्षम नहीं है। लेकिन दिल्ली के लोगों को बरगलाने और दिवाली पर पटाखों की मंजूरी के लिए इसका प्रचार किया गया।
ऐसे खत्म हो रहा है केंद्रीय सूचना आयोग
सूचना के अधिकार कानून के तहत सरकार से जानकारी मांगने और सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने के अभियान को कमज़ोर करने के लिए पिछले 11 साल से व्यवस्थित तरीके से केंद्रीय सूचना आयोग को खत्म किया जा रहा है। वैसे तो सभी राज्यों में सूचना आयोग खाली पड़े रहते हैं। सरकारें किसी न किसी बहाने सूचना आयुक्तों की नियुक्ति टालती रहती हैं। अगर मजबूरी में नियुक्ति करनी पड़ जाए तो सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं या पत्रकारों की जगह चहेते रिटायर अधिकारियों को नियुक्त कर दिया जाता है ताकि वे सरकार के हिसाब से काम कर सकें। लेकिन केंद्रीय सूचना आयोग का मामला सबसे अलग है। पिछले 11 साल में सातवीं बार ऐसा हुआ है कि केंद्रीय सूचना आयोग बिना मुखिया के पड़ा हुआ है। इस साल 9 सितम्बर को मुख्य सूचना आयुक्त के पद से हीरालाल सामरिया के रिटायर होने के बाद से मुख्य सूचना आयुक्त का पद खाली है, लेकिन ऐसा नहीं है कि बाकी सूचना आयुक्त है और केंद्रीय आयोग काम कर रहा है। कानून के मुताबिक केंद्रीय सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त के साथ 10 अन्य आयुक्त होना चाहिए। इनमें से आठ पद नवम्बर 2023 से खाली हैं। अब आयोग सिर्फ दो आयुक्तों के साथ काम कर रहा है। आयोग के सामने 26 हज़ार से ज्यादा सूचना के आवेदन लंबित हैं। एक आवेदन का निपटारा करने में एक-एक साल लग रहा है। ऐसा लग रहा है कि सरकार पूरी तरह से प्रतिबद्ध है कि इस आयोग को पंगु बना कर रखना है।
उप-चुनाव में ओवैसी कांग्रेस के साथ
कांग्रेस और दूसरी भाजपा विरोधी पार्टियां, जहां तक संभव होता है कि एमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी से दूर रखती है। बिहार में ओवैसी और उनकी पार्टी ने इस बात का जी-तोड़ प्रयास किया कि महागठबंधन से तालमेल हो जाए। ओवैसी पांच सीटें लेकर भी महागठबंधन में लड़ने को तैयार थे। लेकिन महागठबंधन ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। वजह थी कि अगर एक बार तालमेल कर लिया तो ओवैसी की पार्टी को भाजपा की बी टीम ठहराने का नैरेटिव हमेशा के लिए समाप्त को जाएगा, लेकिन वही ओवैसी अगर बिहार में महागठबंधन के उम्मीदवारों का समर्थन कर देते तो महागठबंधन की पार्टियां क्या करतीं? ओवैसी ने हैदराबाद में कांग्रेस को ऐसी ही दुविधा में डाला है। गौरतलब है कि हैदराबाद एमआईएम का गढ़ है। वहीं से ओवैसी लगातार लोकसभा का चुनाव जीत रहे हैं। हैदराबाद की सभी छह विधानसभा सीटों पर भी उनकी पार्टी जीतती है। उसी हैदराबाद शहर की जुबली हिल्स सीट पर उप-चुनाव हो रहा है और अपना उम्मीदवार देने की बजाय ओवैसी ने कांग्रेस उम्मीदवार को समर्थन दिया है। ओवैसी का कहना है कि एक सीट की जीत-हार से सरकार की सेहत पर फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन अगर वह कांग्रेस का साथ देते हैं तो भाजपा को हराया जा सकेगा। अब कांग्रेस को समझ में नहीं आ रहा है कि वह इस पर क्या करे? कांग्रेस न तो उनका समर्थन स्वीकार कर सकती है और न ठुकरा सकती है। दोनों ही स्थितियों में ओवैसी बिहार के चुनाव में अपने को भाजपा विरोधी और सेकुलर ठहराने के लिए इस बात का इस्तेमाल करेंगे।





