केन्द्र सरकार यूनिवर्सिटी की सीनेट चुनावों का प्रोग्राम जारी करवाए

जुगनुओं ने फिर अंधेरों से लड़ाई जीत ली
चांद सूरज घर के रौशनदान में रखे रहे।
(राहत इंदौरी)

चाहे इस समय देश में बिहार चुनाव, दिल्ली का बम धमाका और पंजाब के तरनतारन उप-चुनाव सबसे अधिक चर्चित विषय हैं, परन्तु हमारे लिए पंजाब यूनिवर्सिटी का विषय ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि जिस तरह विद्यार्थियों ने पंजाब यूनिवर्सिटी का पुराना स्वरूप बहाल रखने की लड़ाई लड़ी है और वह लगभग इसको जीत ही चुके हैं, उसने मुझे प्रसिद्ध शायर मोहतरम ‘राहत इंदौरी’ के उपरोक्त शेयर की याद दिला दी है।
परन्तु हैरानी की बात है कि पंजाब विरोधी लॉबी ने विद्यार्थियों की इस जीत को लटका दिया है। अफसोस है कि पंजाब के कुछ शरारती तत्व जो पंजाब समर्थकों के वेश में हैं, पंजाब, पजाबी एवं पंजाबियत की हिमायत के नाम पर मामले को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश भी करते हैं। ऐसा ही इन तत्वों ने किसान मोर्चे के समय भी किया था और अब भी वे काफी सक्रिय हैं और मामले को समूचे पंजाबियों के मामले के स्थान पर सिख मामला बनाने की कोशिश की जा रही है। यह किसी भी तरह समझदारी की बात नहीं है। यह ठीक है कि जब केन्द्र सरकार ने यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों के विरोध के बाद नोटिफिकेशन वापिस ले ही लिया था तो फिर उसको सीनेट चुनावों के प्रोग्राम की घोषणा में इतनी देरी नहीं करनी चाहिए थी। हमारी जानकारी के अनुसार फिलहाल मामला लटक गया है। 9 नवम्बर 2025 को पंजाब यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर ने सीनेट चुनावों के प्रोग्राम की मंजूरी लेने के लिए चांसलर जो भारत के उप-राष्ट्रपति हैं, को पत्र लिख दिया था। स्वाभाविक तरीके के साथ चाहिए तो यह था कि उसी दिन या हद अगले दिन इसकी मंजूरी भेज दी जाती। हमारी जानकारी के अनुसार ऐसा फैसला हो गया था कि 15 सितम्बर 2026 से 15 अक्तूबर 2026 के मध्य चुनाव करवा लिया जाएगा। परन्तु शायद 10 नवम्बर को रोष प्रदर्शन के बाद यह मामला लटक गया है। अब भी केन्द्र सरकार को इस अमल को जल्द से जल्द आगे बढ़ाना चाहिए।
मेरे लिए हैरानी की बात है कि पंजाब का नेतृत्व 1947 की आज़ादी के बाद एक अधूरा पंजाबी सूबा लेने के बिना कौन सी लड़ाई जीत सकी है? कौन सी मांग मनवा सकी है? हां, सिख नेतृत्व अपने इस उद्देश्य में कामयाब रही कि उसने एक सिख बहु-संख्या वाला प्रदेश प्राप्त कर लिया। हिन्दू नेताओं ने पंजाब का नुकसान तो किया, पंजाब के हिन्दुओं का भी नुकसान किया। यदि वे इमानदारी के साथ अपनी असली मातृ भाषा के बारे में झूठ बोल कर हिन्दुओं को पंजाबी के स्थान पर हिन्दी लिखवाने के लिए न उकसाते तो, पंजाब शिमला के निकट तक और अम्बाला के पार होता। इससे पंजाब में हिन्दू अल्पसंख्यकों में न होते और पंजाब के चंडीगढ़ और कई अन्य मामले पैदा न होते। इस लम्बे समय में पंजाबियों ने एक किसान मोर्चा ज़रूर जीता है। तीन कृषि कानून ज़रूर वापस करवाए हैं, जो केन्द्र अलग-अलग ढंग से अभी भी लागू करवाने की कोशिश में है और दूसरे किसान मोर्चे ने पहली जीत का प्रभाव भी खत्म कर दिया है। नोट करो, जिस प्रकार का व्यापार समझौता अमरीका के साथ हो रहा है, यदि वह कृषि और डेयरी क्षेत्रों में लागू हो गया तो यह पंजाब की किसानी के लिए ही नहीं बल्कि समूचे पंजाब की आर्थिकता बर्बाद कर देगा।
फिलहाल हमारी पंजाब यूनिवर्सिटी की सीनेट के चुनाव करवाने की लड़ाई लड़ रहे पक्ष को निवेदन है कि इस मामले को साम्प्रदायिक रंगत में रंगे जाने से बचाने के लिए वह सचेत रहे। हम मानते हैं कि इस मामले में जितनी भी जीत मिली है, वह विद्यार्थियों और नौजवानों की मेहनत है। हमारे रिवायती नेता और साम्प्रदायिक तत्व तो बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश में ही रहते हैं। याद रखें यदि सचेत न रहे तो जीती हुई बाज़ी भी हार सकती है।
आखिरी लम्हात में क्या सोचने लगते हो तुम,
जीत के नज़दीक आ कर हार मत जाया करो।
(अबरार अहमद)
पंजाब क्या करे?
उन का जो फज़र् है वो अहल-ए सियासत जाने
मेरा प़ैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे।।
(जिगर मुरादाबादी)
 पंजाब सरकार को अब यूनिवर्सिटी के मामले में एक कदम और आगे बढ़ाना चाहिए और पंजाब विधानसभा में यह प्रस्ताव पास करके पंजाब यूनिवर्सिटी पर पंजाब के हक का दावा करना चाहिए। जैसे किसी समय पंजाब कृषि यूनिवर्सिटी भी सांझी थी और जब हरियाणा और हिमाचल अलग हुए तो वह अब अकेले पंजाब की है। पंजाब यूनिवर्सिटी के साथ भी अब हरियाणा, हिमाचल के कालेज नहीं हैं। बेशक हमें पता है कि पंजाब भाजपा ने चाहे पंजाब यूनिवर्सिटी के संघर्ष में कोई हिस्सा नहीं लिया और उसकी ए.बी.वी.पी. भी दूर ही रही है, पर पंजाब भाजपा के नेताओं ने पार्टी स्तर पर केंद्र को नोटिफिकेशन वापिस लेने के लिए अपनी सामर्थ्य अनुसार ज़रूर कहा है। वे यह दावा भी करते हैं कि मोदी शासन के 10 वर्षों में पंजाब यूनिवर्सिटी को 3200 करोड़ रुपये दिये गये हैं। इसलिए हमारी पंजाब भाजपा के नेताओं खासतौर पर पंजाब भाजपा के कार्यकारी प्रधान अश्विनी शर्मा जो विधायक भी हैं, को निवेदन है कि वह मामले को साम्प्रदायिक रंगत देने वालों को स्पष्ट जवाब दें और निरोल पंजाबियत का प्रगटावा करने के लिए खुद आगे आकर पंजाब विधानसभा का सैशन बुलाने की मांग करें और खुद प्राईवेट प्रस्ताव पेश करें जो पंजाब यूनिवर्सिटी को पंजाब की यूनिवर्सिटी बनाने की मांग करता हो।
चंडीगढ़ का पंजाबी स्वरूप
एक प्रभाव यह भी है कि जैसे पंजाब यूनिवर्सिटी का मोर्चा जीत की ओर पहुंचा है, उससे यह प्रभाव बना है कि यदि अभी भी पंजाबी सामूहिक रूप में राजनीति और साम्प्रदायिकता से दूर रह कर चंडीगढ़ लेने के लिए संघर्ष करें तो उसको हासिल करना भी संभव हो सकता है। परन्तु यहां हालात ऐसे हैं कि चंडीगढ़ का पंजाबी स्वरूप तो बुरी तरह डगमगा चुका है। जब चंडीगढ़ बना था तो यह पंजाब (पुआधी) बोलते 28 गांवों को उजाड़ कर बनाया गया था। भाव यह 100 प्रतिशत पंजाबी बोलता इलाका था, परन्तु सिर्फ 11 वर्ष में ही यहां इतने प्रवासी बसा दिये गये कि 1971 के जनगणना में ही पंजाबी मातृ भाषा लिखाने वालों की संख्या सिर्फ 40.67 प्रतिशत रह गई थी। 1991 की जनगणना में चंडीगढ़ में पंजाबी बोलने वाले सिर्फ 34.70 प्रतिशत थे, 2001 की जनगणना में और कम होकर 27.87 प्रतिशत और 2011 में यह संख्या लगभग 22 प्रतिशत थी। अब यह संख्या शायद अनुमान के अनुसार 18 प्रतिशत से भी कम होगी क्योंकि लगातार केन्द्र सरकार भी बाहर के लोगों को चंडीगढ़ में नौकरी दे रही है और प्रवासी मज़दूरों की संख्या भी बढ़ रही है। यदि यह सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो चंडीगढ़ पर पंजाब का अधिकार लगभग समाप्त हो जाएगा। पंजाबियों को सचेत होने की ज़रूरत है। इसलिए हर पंजाबी जो पंजाबी को प्यार करता है, चाहे वह हिन्दू है यां सिख, को चाहिए कि वह अपने परिवार के कम से कम एक व्यक्ति को चंडीगढ़ में रहने के लिए उत्साहित करे। जिनके पास मकान-फ्लैट खरीदने की सामर्थ्य है, वे खरीद भी करें। चाहिए तो यह है कि जैसे प्रवासी मज़दूर चंडीगढ़ में रह रहे हैं, हम पंजाबी भी अपने मज़दूर भाइयों की आर्थिक मदद करके उनको चंडीगढ़ में रहने के लिए उत्साहित करें। वहां उनको मज़दूरी भी पंजाब से अधिक मिलेगी। हमारे अमीर परिवारों के होशियार बच्चे भी चंडीगढ़ पढ़े और नौकरियों को प्राथमिकता दें।
इसके अलावा याद रखना चाहिए कि जब वी.पी. सिंह बदनौर पंजाब के राज्यपाल थे, उन्होंने एक पेशकश की थी कि चंडीगढ़ के पंजाब और हरियाणा के कर्मचारियों के बीच का 60:40 के अनुपात का एडिट करवा लिया जाए। उस समय तो यह नहीं हो सका। अब हरियाणा को मना कर या अपने ज़ोर के साथ यह एडिट करवा कर चंडीगढ़ में चपड़ासी से लेकर आई.ए.एस. अधिकारी तक पंजाब के 60 प्रतिशत कर्मचारी लगाने की मांग मनवाई जाए। एक और बात भी नोट करने वाली है कि अब चंडीगढ़ हमारे राजनीतिक नेताओं के कहने के मुताबिक ‘सफेद हाथी’ नहीं है बल्कि यह सोने की खान है। पहले तो चंडीगढ़ शहर ही अरबों-खरबों रुपये की जायदाद है। फिर अब यह गुड़गांव और बेंग्लुरु की तरह व्यापारिक और आई.टी. हब भी बन चुका है। इसकी जी.डी.पी. और प्रति व्यक्ति आय औसतन पंजाब के प्रति व्यक्ति आय से कहीं अधिक है। इसको लेना पंजाब के लिए फायदेमंद हो सकता है।
कहानी हो जो भी बात बेबाक कहा कर,
दहशत के साथ हक की हिमायत नहीं होती।

-1044 गुरु नानक स्ट्रीट, समराला रोड़, खन्ना
मो. 92168-60000

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