एक देश, एक चुनाव की तरह एक देश, एक वेतन कानून क्यों नहीं?

भारत सरकार ने अपने पहले से बनाये चार श्रम कानून कानूनों को अधिसूचित करने का जो फैसला किया है, उससे देश में श्रम, रोज़गार और सामाजिक सुरक्षा को लेकर सालों से दबे सवाल उभर आये हैं। ये सभी सवाल इस बिना पर और प्रासंगिक हो गए हैं, क्योंकि अगले महीने यानी जनवरी 2026 से 8वें वेतन आयोग की अनुशंसा लागू की जाएगी। ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि जब एक देश-एक कर, एक देश-एक चुनाव, एक देश-एक विधान की बात की जा रही ह तो देश की सभी आबादी के व्यापक हितों को लेकर एक समान दृष्टि, एक समान उपाय, एक समान अवसर और एक समान परिवेश को लेकर सरकार अपना एक व्यापक दृष्टिकोण और कार्य योजना क्यों नहीं प्रदर्शित कर रही हैं? देश में कार्यशील आबादी जो कुल आबादी का करीब अधिकतम 60 प्रतिशत यानी 100 करोड़ की आबादी है, जिसमें अनेकानेक वर्ग समाहित है, इनके साथ पहले तो असमान रोज़गार अवसर की स्थितियां आती हैं, फिर इनकी अलग-अलग मज़दूरी, अलग-अलग कार्य परिस्थितियां और फिर सामाजिक सुरक्षा की अलग-अलग स्थितियां संलग्न होती हैं। भारत में श्रमिक महासमुदाय की ये अलग-अलग दुनिया हमें देश में संगठित बनाम असंगठित श्रम शक्ति यानी 90 प्रतिशत बनाम 10 प्रतिशत की तस्वीर दिखाती है। दूसरी तस्वीर दिखती है सरकारी बनाम गैर-सरकारी श्रम शक्ति की जिनकी परिस्थितियां एक-दूसरे से बिल्कुल अलहदा है। तीसरी तस्वीर है व्हाइट कालर बनाम ब्लू कॉलर श्रम शक्ति। चौथी है स्थायी रोज़गार प्राप्त और निविदा आधारित अस्थायी श्रम शक्ति की। 5वीं, आरक्षण प्राप्त रोज़गार क्षेत्र और आरक्षण मुक्त क्षेत्र की। 
कुल मिलाकर देश में सभी श्रम कानूनों से सुसज्जित श्रम शक्ति बनाम किसी भी कानूनी सुरक्षा से विरक्त श्रमिक वर्ग के बीच की ये जो बड़ी विभाजन रेखा है वह एक भारत और श्रेष्ठ भारत की तस्वीर को धुंधली कर रही होती है। ये सवाल तब और चिंताजनक हो जाता है,जब हमारी अर्थव्यवस्था जो घोषित और व्यावहारिक दोनों तौर पर सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र के दो स्तम्भों पर चल रही है। उस व्यवस्था में जहां निजी और सरकारी क्षेत्र का आपसी सहयोग है, आपसी प्रतियोगिता भी होती है और सबसे ऊपर एक नियामक प्राधिकरण के अधीन सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों के लिए एक लेवल प्लेइंग फील्ड के जरिये एक वैधानिक नियम अनुपालन और एक बराबर सरकारी प्रोत्साहन की भी बात की जाती है। ऐसे में सवाल उत्पन्न होता है कि हर दस साल में वेतन आयोग गठित कर सरकार देश में केवल 55 लाख सरकारी कर्मचारियों और करीब 75 लाख सेवानिवृत्त कर्मचारियों के पेंशन को लेकर उन्हें विशेष ट्रीटमैंट क्यों प्रदान कर रही है? यदि ये आबादी हकदार है तो क्या देश के और कामगार, मज़दूर या कर्मचारी इस प्रावधान के पात्र नहीं है? राज्यों की बात करे तो उनकी आर्थिक हैसियत केंद्र जैसी मजबूत नहीं है लेकिन उन पर भी अपने कर्मचारियों के लिए केंद्रीय वेतनमान देने का दबाव पड़ता है। कई बार केंद्रीय वेतनमान देने में राज्यों की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी है। कई बार ये भी देखा गया की केंद्र सरकार के व्यावसायिक उपक्रमों में लाभदायिक स्थिति वेतन आयोग की अनुशंसाएं लागू होने के उपरांत घाटे में तब्दील हो गई।
इसी के साथ दूसरा सवाल ये है की निजी उपक्रमों में श्रम कल्याण के तमाम प्रावधानों को उनकी अपनी मनमानी पर क्यों छोड़ दिया जाता है। गौरतलब है बड़े  निजी क्षेत्र में निचले यानी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों का वेतन सरकार की तुलना में कम होता है जबकि प्रथम या ऊंची श्रेणी के कर्मचारियों का वेतन सरकार की तुलना में ज्यादा होता है। सरकार में कार्यरत स्थायी कर्मचारी जहा शत प्रतिशत संगठित श्रम श्रम शक्ति के दायरे में आते हैं वही निजी क्षेत्र में चंद संस्थानों की श्रम शक्ति ही संगठित क्षेत्र के दायरे में है। अभी स्थिति ये है केवल दस प्रतिशत निजी यानी बड़े कॉर्पोरेट समूहों को छोड़ दें तो अधिकतर जगह श्रम कानूनों के अनुपालन की स्थिति नहीं है। निजी क्षेत्र की उत्पादकता और लाभदायकता उनकी तरफ से कामगारों के लिए दिए जाने वाले लाभ की मात्रा को प्रभावित करती है। पर विडंबना ये है की इसकी कोई पारदर्शी व्यवस्था हमें नहीं दिखाई पड़ती। 
आज सवाल ये है की इस नए आर्थिक युग में जब निजी और सरकारी क्षेत्र के लिए एक समान लेवल प्लेइंग की बात की जाती है तो उस दौर में यह विभेद क्यों? क्यों नहीं सरकारी क्षेत्र, निजी क्षेत्र की तरह कर्मचारियों की उत्पादकता और लागत संवेदनशीलता पर तवज्जो देता है और निजी क्षेत्र सरकारी क्षेत्र की तरह श्रम कल्याण और कार्यपरिस्थितियों का अनुपालन करते हैं? यदि श्रम बाज़ार की मांग और पूर्ति के कारक को माने तो भी एक कृत्रिम विभेद की स्थिति दिखाई पड़ती है। केंद्र सरकार ने एक नीतिगत निर्णय लेकर 2004 के बाद ज्वायन करने वाले कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति पेंशन को सरकारी कोष से देना बंद कर दिया और उसे  कर्मचारी योगदान अंश पर आधारित कर दिया गया। पर अब कई राज्य सरकारें इसे राजनीतिक वोट बैंक समझकर अपनी आर्थिक स्थिति के प्रतिकूल जाकर उनके पेंशन की पुरानी सुविधा जो आधे वेतन के बराबर है, उसे आजीवन प्रदान करने का वादा कर रही हैं। बावजूद इसके की इन राज्य सरकारों के करोड़ों नागरिक न्यूनतम वाजिब पेंशन की रकम से महरूम हैं। 
देश में अभी ऐसे कई सेवानिवृत्ति सरकारी कर्मचारी हैं जो एक लाख माहवारी पेंशन पाते है जबकि देश के अधिसंख्य लोगों को कोई पेंशन नहीं मिलता। इस मामले में सरकार में भी जो स्थिति पनपी है, वह घोर चिंताजनक है। पिछले कई दशकों से सरकारी महकमे में जो पक्की नौकरी और उससे जुड़े विभिन्न श्रम कानूनों का कवच चला आता आया, उससे सरकार में अनुत्पादक कार्य माहौल, बढ़ता वित्तीय बोझ और श्रम बाजार की बेहद असंतुलित परिस्थितियां उत्पन्न हुईं। इसका कोई स्थायी नीतिगत हल न निकालकर सभी सरकारें चाहे केंद्र में हो या राज्यों में हो या किसी भी दल की सरकार हो सबने इस पर चुप्पी साधे रखी और उन्होंने सरकारी नियुक्ति ही कम कर दी। आज स्थिति ये है भारत में प्रति हज़ार आबादी पर सरकारी नौकरी की संख्या महज 17 है जबकि चीन में 55 और पूंजीवादी देश अमरीका में 77 है। चंद राजपत्रित श्रेणी की नौकरी को छोड़कर अधिकतर सरकारें स्वीकृत या ज़रूरी श्रम शक्ति को भी बिना नए कर्मचारी की नियुक्तिके जैसे तैसे चला रही हैं या फिर उनकी निविदा पर नियुक्ति की जा रही है। इसके नतीजतन देश में सभी प्रकार की सरकारों की उत्पादकता इससे प्रभावित हो रही है। आज स्थिति ये है की केंद्र सरकार में करीब 10 लाख और राज्य सरकारों में करीब 1 करोड़ स्वीकृत पद खाली पड़े हैं। उस देश में जहां शैक्षिक बेरोज़गारों की संख्या 6 से 8 करोड़ हो वहां ऐसी ऐसी स्थिति बिल्कुल हैरतनाक लगती है। आज केंद्र और राज्य सरकार के हर महकमे में स्थायी और कोंट्रेकचुएल कामगारों की एक सामानांतर कार्य व्यवस्था चल रही है। स्थिति ये है की सरकार इस पर एक स्पष्ट नीतिगत स्थिति नहीं बना पायी है। एक सर्वोत्तम कार्य परिस्थितियों के अनुरूप यदि एक देशव्यापी कोंट्रेकचुएल नियुक्ति नीति अपनायी जाये और वह सभी सरकारें चाहे केंद्र, राज्य और स्थानीय शासन की हो या फिर निजी, संगठित और असंगठित क्षेत्र की हो तो देश में निश्चित रूप से एक उत्पादक, न्यायशील और समतामूलक श्रम रोज़गार व सामाजिक कल्याण का एक व्यापक इकोसिस्टम निर्मित हो जाता। सरकार देश में इस बात को सुनिश्चित करे की एक समान कार्य -एक समान वेतन, एक समान योग्यता- एक समान वेतन, एक सेवा काल- एक समान पेंशन समाज में स्थापित हो जिससे देश में श्रम जनित असमानता की खाई और चौड़ी होने से रोका जा सके। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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