स्वाधीनता संग्राम के महान योद्धा अशफाक उल्ला खान

स्वाधीनता संग्राम के महान क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खान जन्म 22 अक्तूबर, 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के एक ज़मींदार परिवार में हुआ था। अशफाक अपने भाई बहनों में सबसे छोटे थे। बचपन से ही उन्हें तैरने, घुड़सवारी करने, बंदूक से निशाना साधने और शिकार करने का शौक था। वह हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। अशफक का परिवार बहुत पढ़ा-लिखा नहीं था जबकि ननिहाल पक्ष के लोग उच्च शिक्षित और महत्वपूर्ण नौकरियों में थे। ननिहाल के लोगों ने 1857 की पहली स्वतंत्रता की लड़ाई में साथ नहीं दिया था तो लोगों ने गुस्से में उनकी कोठी में आग लगा दी थी, जो आज भी ‘जली कोठी’ नाम से क्षेत्र में प्रसिद्ध है। 
वर्ष 1920 में अपने बड़े भाई रियासत उल्ला खान के सहपाठी मित्र रामप्रसाद बिस्मिल के सम्पर्क में आने के बाद अशफाक के मन में भी अंग्रेज़ों के प्रति विद्रोह की भावना भर गई और वह अंग्रेज़ों को देश से भगाने के लिए युवाओं को जोड़ने लगे थे। इसी बीच बंगाल के क्रांतिकारियों से भी सम्पर्क बना और एक संगठन बनाने का निर्णय लिया गया। विदेश में रह रहे लाला हरदयाल भी बिस्मिल से सम्पर्क साधे हुए थे और संगठन बनाकर उसका संविधान लिखने का निर्देश दे रहे थे। इसी बीच अशफाक कांग्रेस दल में अपने लोगों की सहभागिता चाहते थे। इसलिए 1920 के अहमदाबाद अधिवेशन में बिस्मिल और अन्य साथियों के साथ अशफाक शामिल हुए। लौटकर भी सम्पर्क बना रहा और 1922 के गया अधिवेशन में भी जाना हुआ लेकिन गांधी जी द्वारा बिना किसी से पूछे असहयोग आंदोलन वापस लेने से युवाओं का मन खराब हुआ और वहां से लौटने के बाद अपना एक दल बनाने की बात हुई और तब 1924 में बंगाल से आये क्रान्तिकारियों के सहयोग से ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ अस्तित्व में आई। 
1 जनवरी, 1925 को ‘दि रिवोल्यूशनरी’ नाम से अंग्रेज़ी में चार पन्ने का एक विचार-पत्र निकाला गया जो एक प्रकार से दल का घोषणा पत्र ही था जिसमें प्रत्येक पन्ने पर ऊपर लिखा हुआ था, ‘चाहे छोटा हो या बड़ा, गरीब हो या अमीर, प्रत्येक को मुफ्त न्याय और समान अधिकार मिलेगा।’ इस पत्र को पूरे देश के प्रमुख शहरों और सार्वजनिक स्थानों पर चिपकाया गया ताकि अधिक से अधिक लोग पढ़ सकें। दल के काम को बढ़ाने के लिए धन की आवश्यकता थी, लेकिन दल को कोई भी सेठ-साहूकार चन्दा नहीं दे रहा था। संयोग से इसी बीच योगेश चन्द्र बनर्जी और शचीन्द्रनाथ सान्याल पर्चों के साथ बंगाल जाते समय पकड़ लिए गये। अब दल  की पूरी ज़िम्मेदारी बिस्मिल और अशफाक पर आ गई। धन प्राप्ति के लिए अमीरों के यहां दो डकैती भी डाली गई, लेकिन पर्याप्त धन नहीं मिल सका और दो आम लोगों की न चाहते हुए हत्या भी हो गई। इससे बिस्मिल का मन बहुत क्षुब्ध हुआ और भविष्य में कभी भी राजनीतिक डकैती न डालने का निश्चय कर अब सरकारी खजाना लूटने की योजना बनी।
 बैठक में बिस्मिल ने प्रस्ताव रखा कि काकोरी से ट्रेन द्वारा जाने वाले खज़ाने को लूटा जाये। बैठक में उपस्थित सभी साथी सहमत थे लेकिन अशफाक ने इस प्रस्ताव का ज़ोरदार विरोध किया अन्तत: अशफाक की सहमति के योजनानुसार 26 अगस्त की शाम को ‘8 डाउन लखनऊ-सहारनपुर पैसेन्जर ट्रेन’ में 10 क्रान्तिकारी सवार हुए। जैसे ही काकोरी से खज़ाना लादकर ट्रेन आगे बढ़ी तो राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने ज़ंजीर खींच दी। अशफाक ने लपक कर ड्राइवर की कनपटी में माउजर धर दिया। गार्ड ने मुकाबला करने की कोशिश की लेकिन बिस्मिल ने उसे काबू में कर लिया। खज़ाने की तिजोरी उतारी गई लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद ताले नहीं खुले। समय जाता देख अशफाक ने अपनी माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा कर घन से तिजोरी तोड़ने लगे। अशफाक के ज़ोरदार प्रहारों से तिजोरी में एक बड़ा छेद हो गया। चांदी के सिक्के और रुपये चादरों में समेटा गया और निकल गये लेकिन जल्दबाजी में एक चादर छूट गई जो बाद में पुलिस की जांच में क्रांतिकारियों को पकड़ने का अहम ज़रिया बनी। 
इस घटना से अंग्रेज़ सरकार की बहुत किरकिरी हुई और क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए इनाम घोषित किये गये। 
पुलिस की खुफिया खोजबीन से पूरे देश में एक साथ 26 सितम्बर, 1925 को क्रांतिकारियों के कई ठिकानों पर छापा मारकर 40 क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार किया गया लेकिन पुलिस तब भी अशफाक और चन्द्रशेखर आज़ाद को पकड़ने में नाकाम रही। अशफाक पुलिस को चकमा देकर नेपाल चले गये। वहां से कानपुर आकर गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रेस में भी रहे फिर बनारस, राजस्थान, बिहार, भोपाल होते हुए दिल्ली पहुंचे। उनकी योजना पासपोर्ट बनवाकर देश से बाहर जाने की थी लेकिन दिल्ली में किसी मित्र के विश्वासघात के कारण खुफिया पुलिस अधिकारी इकरामुल हक द्वारा पकड़े गये। हालांकि अदालत द्वारा काकोरी कांड का फैसला 6 अप्रैल, 1926 को दिया जा चुका था लेकिन अशफाक और शचीन्द्रनाथ बख्शी के विरुद्ध फिर से पूरक केस दायर किया गया जिसका फैसला 13 जुलाई को आया जिसमें रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी एवं 16 अन्य को चार वर्ष से लेकर काले पानी तक की सज़ा दी गई। अदालत के आदेश के पालन करते हुए 19 दिसम्बर, 1927 को फैजाबाद जेल में अशफाक को फांसी दे दी गई। स्वतंत्रता की बलिवेदी पर भारत माता के एक और सपूत ने अपनी आहुति दे दी। आने वाली पीढ़ियां उनसे प्रेरित होती रहेंगी। (अदिति)

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