प्रसिद्ध व ऐतिहासिक है श्री रघुनाथ मंदिर, कुल्लू

हिमाचल प्रदेश देव भूमि है। हरियाली, स्वच्छ जलवायु, प्राकृतिक सौंदर्य तथा शांति का स्वर्ग है यह प्रदेश। यहां कदम-कदम पर बने छोटे-बड़े, प्रसिद्ध-प्राचीन नवीन मंदिरों से आशीर्वाद प्राप्त होता है। षोड्शोपचार वाला ऐतिहासिक प्रसिद्ध प्राचीन श्री रघुनाथ मंदिर कुल्लू शहर के मध्य में मुख्य बस स्टैंड से लगभग 200 मीटर की दूरी पर स्थित है। वर्तमान में विजया दशमी का स्थल (ढालपुर मैदान) राजा जगत सिंह की रानी के धान के खेत थे जोकि उत्सव के लिए दान स्वरूप दिए गए जिसका राजस्व रिकॉर्ड प्रमाण मौजूद है। यह मंदिर राजा जगत सिंह के शासनकाल 1637-62 में बना। यह मंदिर ऊंची पहाड़ी पर शोभनीय है। एक प्राचीन शैली की समस्त पहाड़ी निर्माण कला की इमारत है। छोटी गली से गुजर कर मंदिर का बाहरी प्राचीन शैली का दरवाजा आता है। फिर जूते उतारने वाला प्राचीन कमरा। फिर भव्य मंदिर का आंगन आरंभ होता है। दाईं ओर प्राचीन शिल्प की लक्कड़ की सीढ़ियां तथा दो-मंज़िला इमारत प्राचीन निर्माण कला की धरोहर। दाईं और कुछ कमरे, सामने रसोई घर, प्रवेश करते ही बाईं ओर केन्द्र में मंदिर का स्वर्ग शोभनीय है। मंदिर का कमरा बड़ा है। कोई भी मंदिर के भीतर प्रवेश नहीं कर सकता, केवल पुजारी सदस्य ही जा सकते हैं। यहां शुचिता का ओजस्वी वातावरण है। मंदिर के साथ बाहर  कई महान संतों की प्रतिमाएं हैं। ये प्रतिमाएं रंगदार हैं तथा वीरता को उजागर करती हैं। मंदिर में कई भगवत् मूतियां चंदोये के नीचे सुशोभित हैं। श्री रामचन्द्र जी, सीता जी, लक्ष्मण जी की मूर्तियां अलंकारित है। मंदिर में षोड्शोपचार (पूजा-अर्चना) की समस्त सामग्री उपस्थित है। मंदिर के साथ एक कमरा है जिसमें भगवत् मूर्तियां सुशोभित हैं। यहां जाना बिल्कुल वर्जित है। केवल जालीदार खिड़की से ही दर्शन किए जा सकते हैं या केवल किसी विशेष दिन-त्यौहार को खुले दर्शन हो सकते हैं। मंदिर के सामने कई छोटे छोटे पूजा स्थल भी हैं। मंदिर की इमारत पहाड़ी स्लेटों की ढलाऊ शैली में बनी हुई है। कई पूजास्थलों की छतें छत से समतल होती हुई गोलाकार होकर ऊपर ध्वज का स्थान लेती हैं।
मंदिर के आंगन में एक चौरस स्थान पर तुलसी की हरी भरी खेती लहलहाती है जिसको लाल चुनरियों से ढका गया है। मंदिर के केन्द्र में एक बहुत बड़ा स्तम्भ है जिस पर छोटी-छोटी अनेक मूर्तियां अंकित हैं। मंदिर के शिखरों पर लाल ध्वज फहराते हैं। चतुर्भुज छतें मनोहर लगती हैं। एक चबूतरे में लटकते कई रंगों के रुमाल भी देखने को मिलते हैं। नुकीली छत्तें प्राचीन निर्माण कला की अद्भुत धरोहर हैं। बताया जाता है कि राजा जगत सिंह सन् 1637 ई. में कुल्लू की राज गद्दी पर बैठे। वह बहुत प्रतापी तथा पराक्रमी राजा थे, परंतु वह कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। यह नगर इस राज्य की राजधानी था। राज्य की सीमा बड़ी होने के कारण मकड़ाहार में भी अस्थायी राजधानी थी। राजा के साथ कई दंत कथाएं जुड़ी हुई हैं। विशेषतौर पर ब्राह्मण दुर्गादत्त, वैष्णव सम्प्रदाय के सिद्ध महात्मा कृष्णदास व पहारी (फुहारी बाबा) का प्रसंग भी आता है। विश्वास है कि दामोदर दास मूर्तियां लेकर कुल्लू की ओर चल पड़ा। मकड़ाहार पहुंचने पर राजा ने मूर्तियों का भव्य स्वागत किया। उन्हें राज गद्दी पर नृसिंह भगवान के साथ स्थापित कर दिया। इस अवसर पर श्री रघुनाथ जी के सम्मान में एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन भी किया गया। राजा प्रतिदिन पूजा-विधि देखता और चरणामृत का सेवन किया करता। कुछ समय बाद वह कुष्ठ रोग से मुक्त हो गया। वह इस अद्भुत घटना से बहुत प्रभावित हुआ और अपने राज्य की सारी जागीर श्री रघुनाथ जी को अर्पण करदी और स्वयं उनका सेवक बन गया। दामोदर दास गोसाईं को मूर्तियां बनाने के लिए राजा ने भूईण (वर्तमान भूंतर) नामक स्थान पर एक मंदिर बनवा दिया तथा चौरासी खार अनाज की पैदावार वाली ज़मीन मुआफी के रूप में दी। आज भी इस वंश के पंडित सालिग्राम गोसाईं के घर में यह प्राचीन मंदिर विद्यमान है। राजा ने कोठी जगतसुख की कुल आय धर्मार्थ लगा दी। वैष्णव धर्म के पोषक कृष्ण दास पहारी महात्मा, संत, कवि तथा वैष्णव धर्म के प्रचारक थे। उन्होंने राजा को अपना भक्त बना लिया। अपने गले की कंठी उतारकर उसे पहना दी। उस समय से श्री राम चन्द्र जी कुल्लू के प्रधान देवता के रूप में प्रतिष्ठित हुए। वैष्णव सम्प्रदाय के सभी उत्सव मंदिर में मनाए जाने लगे। 

-बलविन्दर बालम