विपक्ष भाजपा को टक्कर क्यों नहीं दे सका ?

नरेंद्र मोदी, उनकी पार्टी, उनकी पार्टी के अध्यक्ष और उनके विचारधारात्मक पितृ-संगठन की उन खूबियों की चर्चा अगले अंक में की जाएगी जिनके कारण उन्हें इस चुनाव में अभूतपूर्व जीत हासिल हुई है। इस अंक में भाजपा विरोधी विपक्ष की उन समस्याओं की चर्चा की जाएगी जिन्होंने इस चुनाव परिणाम में ज़बरदस्त योगदान किया है। इस विश्लेषण के केंद्र में मेरा एक दावा है : भारतीय राजनीति ने नरेंद्र मोदी को शुरू से ही एक कमज़ोर और रणनीतिविहीन विपक्ष तोह़फे के तौर पर दिया है। पिछले एक-डेढ़ महीने से मैं हर मंच से यही कहता आ रहा था कि चुनाव में पलड़ा मोदी और भाजपा का ही भारी है, बस देखना यह है कि यह 2014 जितना भारी है या उससे कम। लेकिन, धीरे-धीरे यह भी दिखाई देने लगा था कि विपक्ष में लोकसभा चुनाव जीतने की इच्छा-शक्ति उतनी प्रबल नहीं है, जितनी भाजपा में दिखाई पड़ रही थी। खासकर विपक्ष का गठजोड़-प्रबंधन बहुत खराब था। इतना खराब कि उसकी जो दुर्गति हुई, वह मुझे कुछ कम ही लग रही है। जनता को उसे इतने वोट भी नहीं देने चाहिए थे जितने संयोग से उसे मिल गए हैं। इसके तीन उदाहरणों पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। 
आइए, सबसे पहले कर्नाटक में कांग्रेस-जनता दल (एस) के गठजोड़ पर गौर करें। अगर क़ागज पर देखें तो इन दोनों पार्टियों के वोटों को जोड़ देने से भाजपा का सूपड़ा स़ाफ हो जाना चाहिए था। लेकिन, हुआ उल्टा। क्यों? दरअसल, ये दोनों पार्टियां आपस में मिल कर भाजपा से लड़ने के बजाय एक-दूसरे से लड़ रही थीं। कांग्रेस पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के नेतृत्व में सुनिश्चित करने में जुटी हुई थी कि देवगौड़ा की पार्टी चुनाव में हार जाए। सिद्धरमैया इस बात को छिपा भी नहीं रहे थे। उनकी तऱफ से बार-बार अपने और देवगौड़ा परिवार के बीच पुरानी राजनीतिक अनबन की चर्चा की जा रही थी। कांग्रेस आलाकमान के सामने स़ाफ था कि कर्नाटक में क्या हो रहा है। पर उसने अपनी प्रादेशिक इकाई पर सहयोगी दल के साथ मिल कर चुनाव लड़ने के लिए कोई दबाव नहीं डाला। जो हो रहा था, उसे होने दिया गया। नतीजा यह निकला कि दोनों बुरी तरह हार गए। 2014 से भी ज़्यादा बुरी तरह।  अब आइए, उत्तर प्रदेश पर। सपा-बसपा-रालोद गठजोड़ से हर राजनीतिक पंडित को उम्मीद थी कि वह भाजपा को कड़ी टक्कर ही नहीं देगा, बल्कि उसे खासा नुकसान पहुंचाएगा। ऐसा क्यों नहीं हो सका? भाजपा समर्थकों को उम्मीद थी कि समाजवादी पार्टी के यादव समर्थन-आधार के वोट बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों को अपेक्षा के मुताबिक नहीं मिलेंगे। उन्हें यह भी उम्मीद थी कि शिवपाल यादव की नवगठित पार्टी यादव वोटों को काट लेगी एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमान और जाट एक जगह वोट नहीं करेंगे। भाजपा समर्थक यह भी चाहते थे कि कांग्रेस के उम्मीदवार कुछ मुसलमान वोटों को काट कर गठजोड़ को कमज़ोर कर दें। लेकिन, भाजपा की जीत इन दोनों कारणों से नहीं हुई। दोनों पार्टियों (एक तरह से तीनों) के वोट आम तौर पर एक-दूसरे के उम्मीदवारों को मिले। इसीलिए उनका प्रतिशत चालीस के करीब पहुंच पाया। जो नहीं हुआ, वह दरअसल कुछ और ही, और कुछ जटिल किस्म का है। यह गठजोड़ तीन प्रभुत्वशाली जातियों (यादव, जाटव और जाट) की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियों का था। ये समझती थीं कि अगर ये तीन समुदाय आपस में मिल जाएं, और भाजपा का विरोध करने वाले मुसलमान भी उनका एकमुश्त साथ दे दें तो वे चुनाव जीत लेंगे। ऐसा मोटे तौर पर हुआ भी, लेकिन फिर भी मनचाहा परिणाम नहीं निकला (यह मानना पड़ेगा कि वोटों का परस्पर हस्तांतरण केवल यादव-जाटव स्तर पर हुआ, और जाटों के स्तर पर यह आधा-अधूरा था क्योंकि जाटों में भाजपा के प्रति आकर्षण बना रहा)। कुल मिलाकर इन पार्टियों ने बाकी हिंदू समाज के वोट पाने की कोशिश नहीं की, और भाजपा के लिए खुला मैदान छोड़ दिया। दूसरे, 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने जो सामाजिक गठजोड़ (ऊंची जातियां, गैर-यादव पिछड़ी जातियां और गैर-जाटव दलित जातियां) बनाया था, उसे तोड़ने का महागठबंधन ने कोई प्रयास नहीं किया। गोरखपुर का उपचुनाव जिस निषाद पार्टी के दम पर जीता गया था, उसे भी नाराज़ करके भाजपा के पाले में धकेल दिया गया। राजभरों के नेतृत्व के बीच पाई जाने वाली भाजपा विरोधी भावना को भी महागठबंधन ने भुनाने का प्रयास नहीं किया। अंत में ओम प्रकाश राजभर ने जो विद्रोह किया, वह अपने दम पर किया और देर से किया। इसलिए उसका कोई खास असर नहीं पड़ा। तीसरे, मायावती की पूरी कोशिश रही (और वे इसमें कामयाब भी रहीं) कि महागठबंधन में कांग्रेस न शामिल हो पाए। मायावती को डर था कि कांग्रेस को एक बार जाटव वोट मिलने शुरू हो गए तो विधानसभा चुनाव में उनका यह स्थायी जनाधार टूट सकता है। ज़ाहिरा तौर पर उनकी रणनीति 2022 के विधानसभा चुनाव के मुताब़िक बनाई गई थी। अगर ऐसा न होता और कांग्रेस गठबंधन में शामिल होती तो भाजपा दस से पंद्रह सीटें हार गई होती। नतीजों को देख कर दस सीटों पर तो स्पष्ट रूप से भाजपा की जीत के अंतर से बहुत-बहुत ज़्यादा वोट कांग्रेस के उम्मीदवारों को मिले हैं। तीसरा उदाहरण बिहार का है। राष्ट्रीय जनता दल की अगुआई में बनाया गया भाजपा विरोधी गठजोड़ क़ागज पर तो भाजपा-नितीश-पासवान गठजोड़ से कमज़ोर था ही, वह आपसी एकता के मामले में बहुत बुरी स्थिति में साबित हुआ। लालू यादव के परिवार में जो आपसी लतियाव था, वह 2017 में उत्तर प्रदेश के ‘समाजवादी’ परिवार के आपसी लतियाव की याद दिला देता था। सीटों के बंटवारे के सवाल पर यह गठजोड़ लगातार संकट का सामना करता रहा। जब बंटवारा हुआ भी तो देखने से ही लग रहा था कि इसके पीछे कोई सटीक सोच-विचार नहीं है। मसलन, राजग छोड़ कर आए उपेंद्र कुशवाहा को चार सीटें दे दी गईं जबकि उनके पास लड़ाने के लिए चार उम्मीदवार नहीं थे और वे खुद दो सीटों पर लड़ रहे थे। इसके उलट भाजपा ने दूरंदेशी दिखाते हुए नितीश और पासवान को अपने खाते से सीटें दीं, फायदा उठाया और चुनावों पर ऐसी ज़बरदस्त झाड़ू मारी कि लालू की पार्टी की तो दुकान ही बंद हो गई। कमोबेश इससे मिलती-जुलती स्थितियां सारे देश में भाजपा विरोधी शक्तियों की थीं। उनके गठजोड़ बिखरे हुए, कमज़ोर और एक हद तक बेवक़ूफाना रणनीतियों और कार्यनीतियों की चुगली खा रहे थे। यह ठीक है कि पुलवामा और बालाकोट ने नरेंद्र मोदी को राष्ट्रवादी जज़्बात उभारने का मौका दे दिया था। लेकिन, अगर विपक्ष ठीक से लड़ता तो भाजपा भले ही जीत जाती, लेकिन चुनाव परिणाम एकतऱफा न हो कर नज़दीकी होते।